Parshuram Jayanti 2025: परशुराम जयंती आज मनाई जा रही है. मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम को भगवान विष्णु का छठा 6वें अवतार माने जाते हैं. परशुराम का उल्लेख रामायण, ब्रह्रावैवर्त पुराण और कल्कि पुराण आदि में मिलता है. भगवान परशुराम का जन्म माता रेणुका और ऋषि जमदग्नि के घर में हुआ था. एक ऋषिपुत्र होने के बावजूद वह एक कुशल योद्धा भी थे, उनके शस्त्र का नाम था ‘फरसा’. लेकिन, आज भी उनका वह फरसा झारखंड के गुमला जिले के 'टांगीनाथ धाम' में गड़ा हुआ है और यह जगह रांची से लगभग 150 किमीं. दूरी पर स्थित है.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, टांगीनाथ धाम भगवान परशुराम का तप स्थल था, जहां वह भगवान शिव की उपासना किया करते थे. इस फरसे की आकृति भी भगवान शिव के त्रिशूल से मिलती-जुलती है. यही वजह है कि भक्त उस फरसे की पूजा भगवान के शिव के त्रिशूल के रूप में भी करते हैं.
टांगीनाथ धाम से जुड़ी पौराणिक कथा
त्रेतायुग में राजा जनक की पुत्री सीता के स्वयंवर में श्रीराम ने शिवजी का पिनाक धनुष तोड़ दिया था. जिसके बाद माता सीता ने उन्हें अपना वर चुना था. शिव जी का धनुष श्रीराम द्वारा तोड़ देने की बात जब परशुराम को ज्ञात हुई, तो वे अत्यंत क्रोधित हुए थे और उसके बाद वे स्वयंवर स्थल में पहुंचे. जहां भगवान परशुराम की बहस लक्ष्मण से हुईं. लेकिन, इसी बीच जब परशुराम को यह बात ज्ञात हुई कि भगवान श्रीराम भी नारायण के अवतार हैं तो उन्हें बहुत ही ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने तुंरत भगवान श्रीराम ने क्षमा मांगी. शर्म से आहत होकर वे वहां से प्रस्थान कर गए और घने जंगलों के बीच स्थित एक पर्वत श्रृंखला में आश्रय लिया. यहां उन्होंने भगवान शिव की स्थापना कर गहन तपस्या शुरू की और इस दौरान उन्होंने अपने परशु यानी फरसे को भूमि में गाड़ दिया.
मंदिर की नक्काशी है बेहद अद्भुत
टांगीनाथ धाम का प्राचीन मंदिर अब रखरखाव के अभाव में पूरी तरह से ढह चुका है. कभी आस्था और कला का प्रमुख केंद्र रहा यह क्षेत्र अब खंडहर में तब्दील हो गया है. हालांकि, मंदिर नहीं बचा, लेकिन आज भी इस पहाड़ी पर प्राचीन शिवलिंग बिखरे हुए दिखाई देते हैं. यहां की पुरानी कलाकृतियां, नक्काशियां और स्थापत्य शैली यह संकेत देती हैं कि यह स्थल देवकाल या त्रेता युग से जुड़ा हो सकता है.
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव का इस इलाके से गहरा संबंध रहा है. एक पौराणिक कथा के अनुसार, जब शनिदेव ने कोई अपराध किया था तो शिव ने क्रोधित होकर अपना त्रिशूल फेंका. त्रिशूल इस पहाड़ी की चोटी पर जा धंसा. आश्चर्य की बात यह है कि त्रिशूल का अग्र भाग आज भी जमीन से ऊपर दिखाई देता है, लेकिन यह कितनी गहराई तक ज़मीन में धंसा है, यह कोई नहीं जानता. यहां का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व बहुत गहरा है, लेकिन संरक्षित न होने की वजह से यह धरोहर धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है.