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Muharram 2025: क्यों अलग-अलग तरीके से मुहर्रम मनाते हैं शिया और सुन्नी समुदाय? जानें ऐतिहासिक कारण

Muharram 2025: मुहर्रम का महीना 26 जून से शुरू हो गया है. मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है जिसे शोक और गम के रूप में मनाया जाता है. मुहर्रम महीने का खास दिन होता है अशुरा.

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मुहर्रम 2025
मुहर्रम 2025

Muharram 2025: इस बार मुहर्रम का महीना 26 जून से शुरू हो गया है. मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है जिसे शोक और गम के रूप में मनाया जाता है. इस महीने में मुस्लिम समुदाय के लोग शादी या कोई भी शुभ आयोजन नहीं मनाते हैं, सिर्फ और सिर्फ मातम मनाते हैं. मुहर्रम के महीने का खास दिन अशुरा होता है जो कि 10वें दिन होता है. इस बार अशुरा 6 जुलाई को है. दरअसल, इस दिन लोग पैगंबर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं जो 680 ई. में कर्बला की जंग में अपने परिवार के साथ शहीद हुए थे. 

अशुरा को रोज-ए-अशुरा कहा जाता है. अशुरा को शिया और सुन्नी समुदाय के लोग अलग-अलग तरीके से मनाते हैं. शिया लोग इस दिन मातम और शोक के रूप में मनाते हैं, काले कपड़े पहनते हैं और खुद को जख्म देते हैं. साथ ही काले रंग के कपड़े पहनकर शोक का जुलूस निकालते है. वहीं, सुन्नी लोग इस दिन रोजा रखते हैं और नमाज पढ़ते हैं.

सवाल उठता है कि शिया और सुन्नी समुदाय के लोग अलग-अलग होकर मुहर्रम क्यों मनाते हैं? स्कॉलर मौलाना कारी इसहाक गोरा ने इसके पीछे का ऐतिहासिक कारण बताया है.

क्यों अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है मुहर्रम?

सहारनपुर में रहने वाले इस्लामिक मामलों के जानकार और स्कॉलर मौलाना कारी इसहाक गोरा बताते हैं, 'मुहर्रम की फजीलत बहुत ही पुराने दौर से चली आ रही है. यानी ये पैगंबर मोहम्मद के दौर से चली आ रही है. दरअसल, शिया समुदाय इसको एक मातम के तौर पर मनाते हैं जो कि इमाम हुसैन से ताल्लुक रखता है और सुन्नी इसको कुछ अलग तरीके से मनाते हैं. जिसे हम मतभेद तो कहेंगे लेकिन मनभेद नहीं कहेंगे.'

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क्यों अलग हुए थे शिया-सुन्नी?

कुछ किंवदंतियों के अनुसार, शिया और सुन्नी के बीच विवाद की शुरुआत पैगंबर मुहम्मद की मौत के बाद से हुई कि खलीफा कौन होगा. हजरत मोहम्मद का दामाद अली या पैगम्बर साहब का करीबी अबु बकर. जिन लोगों ने अबु बकर में अपना भरोसा दिखाया, वह सुन्नी कहलाए. और जो अली के पक्ष में थे वो शिया कहलाए. इसी वजह से मुस्लिम समुदाय के लोग शिया और सुन्नी समुदाय में बंट गए थे. 

मौलाना कारी इसहाक गोरा के मुताबिक, 'शिया-सुन्नी दोनों एक ही कलमे के शरीक हैं. यानी दोनों ही पैगंबर मुहम्मद को मानते हैं. पैगंबर मोहम्मद की वफात यानी मौत के बाद खलीफा बनने को लेकर लोगों में बहस नहीं हुई थी. बल्कि, सभी ने खलीफा हजरत अबू बकर के खलीफा बनने को लेकर लब्बैक (सभी ने उनकी अधीनता स्वीकार की थी) कहा था. यानी उन्हें पहले खलीफा के रूप में चुना था. हजरत अबू बकर के बाद दूसरे खलीफा हजरत उमर बने थे, उनके बाद हजरत उस्मान तीसरे खलीफा चुने गए थे और उनके बाद चौथे खलीफा हजरत अली बनाए गए थे. खलीफा हजरत अली के बाद उनके बड़े बेटे हसन इब्न अली को खलीफा चुना गया था. परंतु, हसन इब्न अली ने कुछ वक्त बाद ही मुआविया को खिलाफत सौंप दी थी.

मुआविया के मरने के बाद उनकी सारी ताकत उनके बेटे यजीद को मिली. यजीद चाहता था कि वह इस्लाम को अपने तरीके से चलाए. उसने पैगंबर मोहम्मद के पोते इमाम हुसैन से कहा कि वे उसे अपना खलीफा मानें और उसके हुक्म मानें. यजीद को लगता था कि अगर हुसैन उसे अपना खलीफा मान लें तो वह इस्लाम पर अच्छा नियंत्रण कर सकेगा. लेकिन इमाम हुसैन ने साफ मना कर दिया कि वे यजीद को अपना खलीफा नहीं मानेंगे. यह बात यजीद को बिलकुल पसंद नहीं आई. उसने इमाम हुसैन के खिलाफ योजना बनानी शुरू कर दी. फिर यजीद ने अपने सैनिकों को कर्बला के पास भेजा और इमाम हुसैन और उनके साथियों को घेर लिया. उसने उन्हें दबाव डाला कि वे उसे अपना खलीफा मान लें. लेकिन इमाम हुसैन ने फिर से मना कर दिया. इसके बाद यजीद ने युद्ध की घोषणा कर दी.

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मुहर्रम की 7 तारीख से यजीद की सेना ने इमाम हुसैन के साथियों को खाना-पानी देना बंद कर दिया. वे भूखे-प्यासे रह गए. इमाम हुसैन ने बहुत सब्र किया, लेकिन यजीद के अत्याचार बढ़ते गए. मुहर्रम की 10 तारीख को बड़ी लड़ाई हुई. यजीद के पास ज्यादा सैनिक और हथियार थे, जबकि इमाम हुसैन के साथ केवल 72 लोग थे. इस लड़ाई में यजीद की सेना ने इमाम हुसैन और उनके साथियों को मार डाला. उन सभी में इमाम हुसैन का 6 महीने का बच्चा अली असगर, 18 साल का बेटा अली अकबर और 7 साल का भतीजा कासिम भी था. इसलिए मुस्लिम समुदाय इस दिन को बहुत दुख के साथ याद करता है. इसी वजह से मुहर्रम का महीना खास होता है और लोग अपने दुख को अलग-अलग तरीके से जताते हैं.'

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