अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप ईरान पर हमले को लेकर लगातार कन्फ्यूज दिख रहे हैं. कभी उनका इशारा होता है कि ईरान पर बहुत बड़ा हमला होने वाला है, पूरा तेहरान खाली करने को कहने लगते हैं. कभी ईरान को मोहलत देते दिखते हैं. गुरुवार को एक बार फिर ट्रंप ईरान को 2 सप्ताह की मोहलत देते दिख रहे हैं. जबकि ईरान लगातार इजरायल पर हमले करते जा रहा है. इजरायल ने अपने जन्म के बाद से कभी भी इस तरह के हमले नहीं देखा था.
दुनिया भर को ऐसा लग रहा था अमेरिका बहुत जल्द खुलकर इस युद्ध में शामिल हो जाएगा. पर ऐसा होता दिख नहीं रहा है. जाहिर है कि सवाल उठ रहे हैं कि क्या मध्य एशिया में अमेरिका कमजोर पड़ रहा है? अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां और बयानबाजी हमेशा से अनिश्चितता और विरोधाभास से भरी रहती हैं. अब ईरान पर हमले को लेकर ट्रंप की नीतियों में अनिश्चितता और विरोधाभास कई कारणों से उभरकर सामने आए हैं.
पूर्व में ट्रंप बार-बार ईरान के साथ कूटनीतिक समाधान की वकालत करते रहे हैं. ट्रंप ने दावा किया था कि उन्होंने ईरान को परमाणु समझौते के लिए 60 दिन का समय दिया था, जो 13 जून को समाप्त हुआ. लेकिन इजरायल के हमले के बाद, ट्रंप ने इसे समर्थन दिया, यह कहते हुए कि वह हमले की योजना से पूरी तरह वाकिफ थे. एक तरफ तो वे ईरान के साथ बातचीत कर रहे थे, समझौते की वकालत कर रहे थे तो दूसरी तरफ सैन्य कार्रवाई का समर्थन भी .इस तरह की बातों के चलते ट्रंप ने खुद को बहुत जटिल बना दिया है.
ट्रंप की अनिश्चितता के पीछे बहुत से कारण
ट्रंप के मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (MAGA) मुहिम से जुड़े लोग इजरायल के समर्थन को लेकर विभाजित हैं. 14 जून 2025 को अल जज़ीरा लिखता है कि मार्जोरी टेलर ग्रीन और चार्ली कर्क जैसे उनके समर्थक मध्य पूर्व में युद्ध के खिलाफ हैं. ट्रंप का कोई भी समर्थक यह नहीं चाहता है कि देश युद्ध में फंसे. क्योंकि यह अमेरिका फर्स्ट सिद्धांत के विपरीत है. ट्रंप की अनिश्चितता इस आंतरिक दबाव को दर्शाती है, क्योंकि वह अपने समर्थकों को नाराज नहीं करना चाहते.
इससे भी खास बात यह है कि डोनाल्ड ट्रंप की इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से भी नहीं पटती है. न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, ट्रंप ने शुरू में इजरायल के हमले का विरोध किया था, क्योंकि ट्रंप की योजनाओं में यह युद्ध आड़े आ रहा था. माना जा रहा है कि इजरायल ने बिना अमेरिका से परामर्श लिए और बिना उसकी सहायता के ईरान पर हमला किया, जिससे ट्रंप की स्थिति अमेरिका में कमजोर हुई. बाद में, उन्होंने इसे समर्थन देकर अपनी छवि बचाने की कोशिश की.
दूसरी तरफ ट्रंप ने ईरान को बिना शर्त आत्मसमर्पण की मांग की और दावा किया कि अमेरिका और इजरायल ने ईरान के हवाई क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल कर लिया है. हालांकि यह भी अभी तक साबित नहीं हो पाया है. ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई ने इस धमकी को खारिज करते हुए कहा कि ईरान कभी आत्मसमर्पण नहीं करेगा. उसके बाद ईरान ने इजरायल पर जबरदस्त जवाबी मिसाइल हमले किए हैं जिसके बाद ट्रंप को सोचने को मजबूर किया है.
ट्रंप की सैन्य कार्रवाई की अनिश्चितता का एक कारण कांग्रेस और वैश्विक समुदाय का दबाव भी है. साथ ही ट्रंप खुद को शांति के मसीहा के रूप में स्थापित करना चाहते हैं. उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार की तलब हो गई है. यही कारण है कि भारत-पाक में सीजफायर का श्रेय लेने के लिए करीब बीसियों बार बयान दे चुके हैं. फिर भी दुनिया उन्हें घास नहीं डाल रही है. चुनावों में उन्होंने वादा किया था कि गद्दी पर बैठते ही एक दिन में वो रूस यूक्रेन युद्ध बंद करवा देंगे. दुर्भाग्य से उन्हें यह भी सफलता नहीं मिली. अब अमेरिका अगर ईरान में फंस जाता है तो फिर वो देश की जनता को क्या जवाब देंगे?
अमेरिका की मजबूरियां भी कम नहीं हैं
अमेरिका की आर्थिक स्थिति अब ऐसी नहीं है कि वह अनावश्यक तरीके से किसी भी युद्ध में खुद को उलझा दे. चीन की बढ़ती इकॉनमी को रोकने के लिए ट्रंप हर संभव प्रयास कर रहे हैं. इराक और अफगानिस्तान के युद्धों में अमेरिका को भारी नुकसान पहुंचा. हजारों अमेरिकी सैनिक भी मारे गए.ट्रंप ने चुनाव अभियान के दौरान वादा किया था कि वह विदेशी युद्धों से बचेंगे. ईरान के साथ युद्ध में शामिल होकर वो अपने चुनावी वादे से दूर हटेंगे.जाहिर उनकी राजनीतिक छवि धूमिल होगी.
ट्रंप की अपनी खुफिया प्रमुख तुलसी गबार्ड ने मार्च 2025 में कहा था कि ईरान परमाणु हथियार नहीं बना रहा है. अब ये बात समझ में नहीं आ रही है कि ट्रंप ने इजरायल के दावे का समर्थन क्यों किया कि ईरान परमाणु हथियार के करीब है. पर कहा तो यह जा रहा है कि नेतन्याहु ने ईरान पर अटैक करने के पहले ट्रंप को भरोसे में नहीं लिया. ट्रंप को मजबूरी में इजरायल का समर्थन करना पड़ रहा है. अब ये कितना सही है यह तो ट्रंप और नेतन्याहु ही बता सकते है. पर इससे जो विरोधाभास पैदा हुआ उसके चलते ट्रंप जरूरी अविश्वसनीय हुए हैं.
कहा जा रहा है कि अमेरिका के मध्य एशिया के सहयोगी जैसे सऊदी अरब और यूएई,मिस्र आदि ने ईरान के खिलाफ जुबानी समर्थन तो दिया पर धरातल पर नहीं. इन देशों के सैन्य सहयोग के ईरान के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई दुरूह हो सकती है. युद्ध की कीमत अमेरिकी जनता बर्दाश्त नहीं करने वाली है. तेल की कीमतों में 5% की वृद्धि ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर दबाव में ला दिया है.
इजरायल की कमजोरियां
अब तक हुए सभी वॉर में इजरायल की आयरन डोम और अन्य रक्षा प्रणालियां प्रभावी रही हैं. पर इस बार इजरायल ईरानी मिसाइलों को रोक नहीं पा रहा है. तेल अवीव में ईरानी मिसाइलों ने भयंकर तबाही मचाई है.ईरान की 400 से अधिक बैलिस्टिक मिसाइलों में से 35 ने इसकी रक्षा को भेदा, जिसमें तेल अवीव और सोरोका अस्पताल पर हमले शामिल हैं.
ईरान की मिसाइलों आगे इजरायल फीका पड़ गया है. ईरान के फतेह-110 और ज़ुल्फिकार, सटीक और लंबी दूरी की हैं. इजरायल की रक्षा प्रणालियां छोटे पैमाने पर हमलों को रोकने में प्रभावी हैं, लेकिन सैकड़ों मिसाइलों के एक साथ हमले को झेलने में असफल हैं. ईरान की मिसाइलों ने इजरायल के सैन्य और नागरिक ठिकानों को नुकसान पहुंचाने में सफल रही हैं.
इजरायल का बेन गुरियन हवाई अड्डा बंद होने से 1,50,000 यात्री फंस गए, और अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ा है. बंकरों में लगातार रहने से जनता परेशान है. इजरायल को यूरोप से उस तरह का समर्थन नहीं दिख रहा है जैसा पहले हुआ करता था. हमले को जर्मनी जैसे कुछ देशों ने ही समर्थन दिया है. नेतन्याहू की एकतरफा नीतियों और अमेरिका के साथ समन्वय की कमी ने स्थिति को और जटिल किया है.