सामने तो बिहार चुनाव ही है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी पहले से ही 2026 के विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुटी हुई है. उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए के उम्मीदवारों के संभावित नामों पर चर्चा भी उसी के मद्देनजर चल रही थी - और अब तो सीपी राधाकृष्णन को अपना उम्मीदवार घोषित कर बीजेपी ने राजनीतिक इरादा भी जाहिर कर दिया है.
2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से बीजेपी जिन राज्यों में सत्ता पर काबिज होना चाहती है, उनमें पश्चिम बंगाल और केरल पहली वरीयता की सूची में शामिल रहे हैं. अव्वल तो बीजेपी नेता अमित शाह यूपी में बीजेपी की सरकार बनने से पहले से ही स्वर्णिम काल की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन बंगाल और केरल जैसे राज्य अब तक बाधा बने हुए हैं. अमित शाह के स्वर्णिम काल से आशय पंचायत से पार्लियामेंट तक सत्ता पर बीजेपी का कब्जा है.
दिल्ली की बाधा पार कर लेने के बाद तो पश्चिम बंगाल पर ज्यादा ही जोर नजर आने लगा था. लेकिन उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम सामने आ जाने के बाद लगता है, बंगाल का मामला फिलहाल होल्ड पर चला गया है - और, तमिलनाडु पर फोकस बढ़ गया है.
2022 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से तमिलनाडु को विशेष रूप से कनेक्ट करने की खास कवायद चल रही है. काशी तमिल संगमम का तीसरा सीजन इस साल की शुरुआत में पूरा हो चुका है. काशी तमिल संगमम बनारस में चलने वाला महीने भर का विशेष समारोह होता है, जो पिछले तीन साल से सरकारी तौर पर आयोजित किया जा रहा है. पहले काशी तमिल संगमम का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर, 2022 को किया था.
बीजेपी की तमिलनाडु साधना
काशी तमिल संगमम के तो तीन ही सीजन पूरे हुए हैं, लेकिन समारोह के महीने भर ही नहीं, पूरे साल बनारस में सड़कों पर तमिलनाडु की गहरी छाप देखने को मिल रही है. और बनारस के खान पान पर भी कुछ दिनों से इसका खासा असर देखने को मिल रहा है. वजह विशेष तो है ही, जैसी डिमांड होगी सप्लाई भी तो वैसी ही होगी. सैलानियों का आवक तो बढ़ा ही है.
विदेशी पर्यटकों का तो बरसों से आना होता रहा है, लेकिन वे घाटों के अलावा सारनाथ जैसी जगहों पर घूमते रहे हैं. विश्वनाथ गली के अलावा भी गलियों और मोहल्लों में सैलानियों का हुजूम देखने को मिलता रहा है. दक्षिण भारत से काशी पहुंचने वाले पर्यटक तो ज्यादातर घाटों से सटे मोहल्लों में ही देखने को मिलते हैं.
वैसे तो बनारस में पूरा देश ही बसा हुआ महसूस होता है, लेकिन अब रंग-रूप और रहन-सहन हर मामले में बदलाव की बहती बयार भी अलग से महसूस की जा सकती है. घाट किनारे की गलियों में तो देश की हर संस्कृति, हर आस्था और खान-पान को दशकों से जीते जागते देखा जाता रहा है, अब तो बाकी मोहल्लों में भी तेज विस्तार देखा जा सकता है. और, ये सब बनारस के रहने वाले लोग ही बातचीत में बताते हैं.
अगर गंगा किनारे के मोहल्लों में हनुमान घाट, केदार घाट, चौकी घाट और मानसरोवर घाट होते हुए दशाश्वमेध तक जाएं तो मंदिरों के साथ साथ खान-पान की दुकाने भी बंगाल से लेकर दक्षिण के राज्यों की झांकी वैसे ही पेश करती हैं, जैसे रिपब्लिक डे परेड में देखने को मिलता है. अब तो मोहल्ला अस्सी तक ऐसे ही नजारों का एक्सटेंशन बन गया है. काशी तमिल संगमम के दौरान तो हर तरफ मेला ही नजर आता है.
ये तो नहीं कह सकते कि कचौड़ी-सब्जी और जलेबी गायब होते जा रहे हैं, लेकिन ताजा-ताजा इडली-डोसा-सांभर खाने के लिए पहले घाट किनारे की गलियों में जाना पड़ता था, वही गली जो दशाश्वमेध से घाटों के किनारे होते हुए अस्सी की तरफ चली जाती थी. सीधा रास्ता तो केदारघाट के हाड़ाबाग तक ही है, लेकिन घूम-फिर कर आगे तो निकल ही जाते हैं.
इडली-डोसा-सांभर अब शहर में बाकी सड़कों पर ठेले वाले भी सर्व कर रहे हैं. बनारस के सीनियर पत्रकार विनय सिंह कहते हैं, दशाश्वमेध पर तो सुबह सुबह ठेले पर कई जगह दक्षिण भारत के ब्रेकफास्ट मिलने लगे हैं. हालांकि, ये बाजार की दुकानें खुलने से पहले ही अपना बिजनेस बढ़ा लिया करते हैं.
काशी विश्वनाथ धाम और कुछ घाटों के साथ साथ सुबह-ए-बनारस का नजारा तो बदला ही है, लेकिन क्या ये बदलाव काशी तमिल संगमम की वजह से हुआ है?
विनय सिंह का कहना है, देखिए, पहले और अभी के दौर को देखें तो फर्क ये आया है कि खाने पीने की चीजें बदलने लगी हैं. मिठाइयां, पान और भांग तो बेअसर हैं, लेकिन सुबह-ए-बनारस का खास नाश्ता कचौड़ी-सब्जी-जलेबी, और शाम को मिलने वाला लौंगलत्ता समोसा के अलावा बनारस के टमाटर चाट पर भी असर तो पड़ा ही है.
हालांकि, बरसों से बनारस को जीने वाले सीनियर पत्रकार एके लारी ऐसी बातों से इत्तफाक नहीं रखते. कहते हैं, 'देखिए... खान-पान पर असर जरूर पड़ा है, लेकिन ये बदलाव के दौर का प्रभाव है. ऐसा नहीं कह सकते कि इडली-डोसा ने कचौड़ी-सब्जी को रिप्लेस कर दिया है... नई पीढ़ी को पसंद पीढ़ी की पसंद काफी बदल रही है. नई पीढ़ी को नूडल्स और मोमो भी पसंद आ रहा है, और इडली डोसा भी.'
बनारस पर दूसरे राज्यों का ही नहीं, एके लारी कहते हैं, 'आस पास के इलाकों का भी प्रभाव बढ़ा है. मोमो और नूडल्स की तरह सत्तू के शर्बत पीने और बाटी-चोखा खाने का चलन भी बढ़ा है.'
बातचीत में वैसे वो ये भी मान लेते हैं कि दक्षिण भारत की संस्कृति का भी प्रभाव थोड़ा बहुत तो पड़ा ही है. एके लारी कहते हैं, ऐसा कोई सर्वे तो नहीं सामने आया है कि आंकड़ों के जरिये समझा जाए, लेकिन हाल के दिनों में प्रभाव से इनकार भी नहीं किया जा सकता.
तमिलनाडु पर फोकस, तो क्या बंगाल को होल्ड पर मान लें
काशी तमिल संगमम ही नहीं, नये संसद भवन में सेंगोल की स्थापना, भाषा-संस्कृति और तमिलनाडु से जुड़ी चीजों का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में तवज्जो मिलने जैसे कई उदाहरण हैं जो भारतीय जनता पार्टी के तमिलनाडु के प्रति राजनीतिक प्रेम की झलकियां बार बार दिखाते हैं. बस एक ही बात ऐसी है जो थोड़ा अलग हो जाती है, और वो है केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से हिंदी को लेकर अपने अनुराग का रह रह कर इजहार कर दिया जाना.
उपराष्ट्रपति पद के लिए बीजेपी की तरफ से उम्मीदवार घोषित किए गए, सीपी राधाकृष्णन फिलहाल महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं. तमिलनाडु में संघ और बीजेपी की लंबी सेवा के बाद पहली बार सीपी राधाकृष्णन को झारखंड का राज्यपाल बनाया गया था, और कुछ अतिरिक्त प्रभार भी उनके जिम्मे रहे हैं. ये भी संयोग है कि जगदीप धनखड़ भी उपराष्ट्रपति बनने से पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ही थे, वैसे बीजेपी की तरफ से तो ये प्रयोग ही ज्यादा लगता है.
तमिलनाडु चुनाव में बीजेपी का विपक्षी AIADMK से चुनावी गठबंधन हो चुका है, और बीच बीच में पूर्व मुख्यमंत्री ई के पलानीस्वामी की तरफ से बस एक ही बात बताई जा रही है कि चुनावी गठबंधन का मतलब सत्ता में साझीदार होना नहीं है, डीएमके ने भी तो कांग्रेस के साथ ऐसा ही रिश्ता बना रखा है.
अभी से ये मान लेना तो मुश्किल है कि सीपी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति बनाकर बीजेपी तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में फायदा उठा सकती है, लेकिन सभी चीजें सीधे फायदा नहीं दे पातीं, कुछ उपाय नुकसान रोकने के लिए भी होते हैं. और, नुकसान न होना भी फायदा ही होता है. काशी तमिल संगमम से लेकर सीपी राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाने तक के प्रयासों के बावजूद, सनातन के सरोकार और बीजेपी को हिंदी की पैरोकार बताकर उसके राजनीतिक विरोधी जो नुकसान पहुंचा सकते हैं, ऐसे उपायों से बीजेपी कुछ हद तक बचाव तो कर ही सकती है.