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इंदिरा की जगह दादा फिरोज गांधी क्यों राहुल के लिए साबित हो सकते हैं बेहतर रोल मॉडल?

राहुल गांधी अब लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं. राहुल गांधी के लिए अपनी दादी इंदिरा गांधी और दादा फिरोज गांधी में से किसके नक्शेकदम पर चलना बेहतर होगा. इंदिरा नहीं, दादा फिरोज गांधी क्यों राहुल गांधी के लिए बेहतर रोल मॉडल साबित हो सकते हैं? जानिए

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राहुल गांधी, इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी
राहुल गांधी, इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी

नवगठित लोकसभा में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं. लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में राहुल गांधी के लिए अपनी दादी इंदिरा गांधी के मुकाबले अपने दादा फिरोज गांधी के नक्शेकदम पर चलना बेहतर होगा. इंदिरा नहीं, फिरोज गांधी क्यों राहुल गांधी के लिए बेहतर रोल मॉडल साबित हो सकते हैं? सवाल ये भी है.  बीबीसी ने 1999 में एक सर्वे कराया था. इस सर्वे में इंदिरा गांधी का नाम पिछले हजार साल की महानतम महिला के रूप में सामने आया था. इस सर्वे के शीर्ष 10 में एलिजाबेथ द्वितीय, मैरी क्यूरी, मदर टेरेसा और म्यांमार की राजनेता आंग सान सू की के नाम थे.

फिरोज गांधी की बात करें तो राहुल गांधी के दादा साल 1960 में निधन तक लोकसभा सदस्य रहे और उनकी गिनती उत्कृष्ट सांसद के रूप में होती थी. फिरोज होमवर्क के लिए प्रसिद्ध थे और अपने वक्तव्यों में डेटा, सांख्यिकीय और बयानों का भी उल्लेख किया था जब उन्होंने एक उल्लेखनीय खुलासे के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को निशाने पर लिया था. इस खुलासे को मुंद्रा मामले के रूप में जाना जाता है. इस मामले में फिरोज गांधी के खुलासे के बाद पंडित नेहरू के करीबी सहयोगी तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामाचारी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

कृष्णामाचारी के नाम स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहले घोटाले की वजह से पद छोड़ने वाले मंत्री का रिकॉर्ड दर्ज है. फिरोज गांधी ने इंश्योरेंस कंपनियों और बिजनेसमैन के करप्ट नेक्सस को उजागर किया था. तब संसद की कार्यवाही कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गिस ने बाद में एक साक्षात्कार में कहा था, "फिरोज गांधी अपनी तैयारियों में डिलिगेंट और संपूर्ण थे."

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इसके विपरीत, राजनेताओं के बीच एक नेता इंदिरा गांधी संसद के प्रति अक्सर कम प्रतिबद्धता दिखाती थीं. आपातकाल के दौरान उन्होंने लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया था जो गलत था. इंदिरा गांधी ने अध्यादेश राज की शुरुआत की और कई नीतिगत निर्णय संसद के बाहर लिए. इससे गलत परंपरा की शुरुआत हुई जिसका वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई सरकारों ने इस्तेमाल किया.

राहुल गांधी 2018 के जुलाई महीने में संसद के भीतर सांसदों, संसद टीवी के कैमरे के सामने पीएम मोदी के पास गए और उन्हें गले लगाने की कोशिश की. उस दिन राहुल जुझारू नजर आ रहे थे और भूकंप लाने की धमकी दे रहे थे लेकिन बहुत लोगों को लगा कि 'आग' नहीं है. राफेल से लेकर डोकलाम तक, राहुल गांधी के भाषण में फैक्ट-फिगर और विवरणों का अभाव था. कोई यह तर्क दे सकता है कि राहुल का व्यवहार एक सक्षम सांसद की बजाय एक राजनेता की तरह अधिक था संसद-जनसभा के बीच की लाइन कुछ हद  तक धुंधली हो गई.

अब वह राहुल गांधी आधिकारिक रूप से विपक्ष के नेता हैं. उन्हें अधिक विजिबल, रेस्पॉन्सिबल और फोकस्ड होने की जरूरत है. राहुल गांधी ने परिपक्वता और फोकस के संकेत दिखाए हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव संपन्न होने के तुरंत बाद राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और एग्जिट पोल नतीजों पर सवाल उठाए, चुनौती दी और इसे स्टॉक एक्सचेंज में उथल-पुथल से जोड़ा.इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से लगा कि राहुल गांधी ने  तथ्यों और आंकड़ों के साथ शांत, नपे-तुले लहजे में सभी सवालों के जवाब देने का कौशल विकसित किया है.

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राहुल गांधी संसद में अपनी टी-शर्ट से हटकर सफेद कुर्ता-पाजामा में प्रवेश करते नजर आए जो नई भूमिका में संयम का संकेत है. 2014 और 2019 में कांग्रेस की स्ट्रेंथ 44 और 52 सांसदों की थी जो विपक्ष के नेता पद के लिए जरूरी संख्याबल से काफी कम थी. नियमों के मुताबिक लोकसभा में 10 फीसदी से अधिक सांसदों वाली पार्टी ही विपक्ष के नेता पद की हकदार होती है.

आने वाले दिन, हफ्ते और महीनों में अधिक एक्शन देखने को मिलेगा. राहुल गांधी का गेमप्लान साफ है. वह चाहते हैं कि 2029 के चुनाव में न्यूट्रल वोटर्स को एक विकल्प नजर आए और वे मोदी सरकार के लिए वोट ना करें. भले ही बीजेपी लगभग 240 लोकसभा सीटों के साथ गठबंधन का नेतृत्व करती रहे.

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि व्यक्तित्व की परख के मामले में जिन इंदिरा गांधी की दाद दी जाती है, खुद वह भी राहुल गांधी के धैर्य और दृढ़ संकल्प को महत्व देती थीं. इंदिरा गांधी की जब अक्टूबर 1984 में मौत हुई, तब राहुल गांधी बमुश्किल 14 साल के थे. इंदिरा उन मुद्दों पर भी राहुल गांधी से बात करती थीं, जिन्हें राजीव गांधी या सोनिया गांधी से बताने से भी वह बचती थीं. इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि अपनी हत्या से कुछ ही महीने पहले जून 1984 में इंदिरा गांधी अपनी जान को लेकर भयभीत थीं और वह राहुल से कहती थीं कि वह "कार्यभार संभालें" और जब उनकी मृत्यु हो तो रोएं नहीं.

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जून 1984 में ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद जब सेना ने पंजाब के स्वर्ण मंदिर से खूंखार आतंकियों का सफाया कर दिया, इंदिरा गांधी को यह लगने लगा था कि वह मरने वाली हैं, संभव है कि हिंसक मौत यानि हत्या. इंदिरा ने चुपचाप राहुल से अंतिम संस्कार की व्यवस्था के बारे में बात की और ये बताया कि वह अपना जीवन जी चुकी हैं. राहुल गांधी शायद यह सब समझने के लिए बहुत छोटे थे लेकिन उनमें इंदिरा गांधी को अपने मन के विचार साझा करने के लिए आदर्श साथी मिल गया था और उनके निर्णय पर भरोसा था. 40 साल बाद अब कई कांग्रेसी भी इस विचार पर विचार कर रहे हैं कि राहुल गांधी पर इंदिरा का भरोसा सही था.

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