खुदाई-मचाई-छंटाई! कई-कई दिन और कई-कई साल तक ये काम चलता है, तब जाकर हीरा मिलता है. किस्मत हो तो पहली कुदाल जमीन पर पड़ते ही फट से चकाचौंध कर देगा. रूठा हो तो पीढ़ियां खप जाएं, छिपा ही रहेगा.
'आपको क्या कभी हीरा मिला?'
हां…मिला क्यों नहीं. इतनी बार मिला कि गिनती छोड़ दी. मैं मजदूर थी. ठेकेदार के हाथ में हीरा देती तो सीना धड़-धड़ करता. आंखों के आगे अंधेरा छा जाता. फिर आदत हो गई. चाहे करोड़ों का हीरा मिले, हमारे लिए उसका मोल शाम के चूल्हे जितना है.
पन्ना! मध्य भारत का ये जिला हीरों की खदान के लिए मशहूर रहा. वहां के राजा छत्रसाल को वरदान था कि उनके घोड़े के पांव जहां-जहां पड़ेंगे, वहां-वहां धरती के भीतर हीरा जी उठेगा. पन्ना के बाशिंदों के पास इसपर लंबी-छोटी ढेरों कहानियां हैं. शहर के भीतर घुसते ही ये कहानियां जिंदा हो जाती हैं. खदानों में, चाय की दुकानों में...और सुबह फावड़े-तसलियां लेकर जाते और देर दोपहर टूटी झोपड़ियों में लौटते मजदूरों में.
जंगलों और पहाड़ों से घिरे पन्ना और वहां के हीरों पर कितनी ही रिपोर्ट्स हो चुकीं. aajtak.in भी उन कहानियों को दोहरा रहा है. और दोहरा रहा है उस अंधेरे को, जो जुगर-जुगर करते इस पत्थर के भीतर चुपचाप सांस लेता है.
मध्यप्रदेश के उत्तरी कोने पर बसे जिले में भीतर घुसते ही घने जंगल मिलेंगे. यहां लगभग साढ़े पांच सौ वर्ग किलोमीटर में फैला टाइगर रिजर्व है, जिसमें सफारी के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं. इससे गुजरने के बाद पन्ना के खदानी इलाके शुरू हो जाएंगे. ये इलाका पारंपरिक तौर पर डायमंड माइनिंग के लिए ही जाना जाता है, जहां देश का अकेला हीरा कार्यालय भी है.

खनन क्षेत्र में शुरू से आखिर तक घूमते चलें तो कुछ चीजें कॉमन हैं. धूप और धूल से बनी खानों में धूसर रंगे लोग दनादन फावड़े चलाते हुए, प्यास लगने पर जीभ फेरकर मुंह तर करते हुए...और बिना सुस्ताए दोबारा हीरा तलाशते हुए.
आज तक की टीम किस्त-किस्त में ऐसे कई चेहरों में मिली.
हीरे की खोज में पीढ़ियां खाक करते हुए…
हीरा पाकर भी उसके लिए तपते हुए…
हीरे की आस में जीते हुए…
और हीरे के ख्वाब में मिट्टी होते हुए…!
मुख्यालय से NH 39 लेते हुए आगे जाने पर सात किलोमीटर दूर मनौर गांव पड़ेगा. सड़क से नीचे उतरते ही कच्ची-पक्की रोड. लगभग दो सौ घरों वाला ये गांव हमारा पहला पड़ाव था. शहर को छूता हुआ लेकिन शहराती छुअन से बचा हुआ.
पन्ना की कहानियों में मनौर का नाम कुछ फुसफुसाते हुए ही लिया जाता है. क्यों? यहां विधवाएं ज्यादा बसती हैं. इसकी जड़ में भी खदानें ही हैं. पत्थर खदानें. जहां काम करते-करते पुरुषों के सीने पथराने लगे.
‘मुझमें सांस तो है लेकिन ले नहीं पाता…!’ पथराए फेफड़ों वाला ऐसा ही एक शख्स कहता है.
उसकी कहानी बाद में. फिलहाल हम गेंदाबाई उर्फ फूल से मिलते हैं.
दरमियानी उम्र की महिला के चेहरे से लेकर हाव-भाव में उनके नाजुक नाम की कहीं झलक तक नहीं. सारी मुलायमियत खानों में खप चुकी. बिना कैमरा वो सहेली की तरह बतियाती हैं, स्क्रीन दिखते ही कुछ सिमट जाती हैं.
12 साल की थी, जब हीरा बीनना शुरू किया. तब हफ्ते के 210 रुपये मिला करते. खदान कोड़ने के बाद उसे मचाने (पैरों की मदद से मिट्टी में से कंकड़ छांटना) का काम करते. मुझे अक्सर ही हीरा मिल जाता. कभी रेज (छोटे आकार का हीरा) तो कभी खूब भारी भी मिलता.
मेहनत सारी हीरे के लिए ही थी, लेकिन जब मिलता तो दिल दुख से भर जाता था, बाई...
आंखों के आगे अंधेरा छा जाता. छाती जोरों से धकधक करती, जैसे फटने को हो. हीरा जब ठेकेदार या मालिक के हाथ में देते तो रुलाई आ जाती थी. फिर आदत पड़ गई. जी कसकना बंद हो गया.

आपने कभी चुपके से हीरा रखने का नहीं सोचा! मैं टटोलती हूं.
‘कभी नहीं. कितने पत्थरों के बीच हो, हीरा छिपता नहीं है. तुम उठाओ और वो अपने-आप चीख उठेगा कि देखो, मैं मिल गया. उसकी चोरी नहीं कर सकते. बेच दो तब भी फलेगा नहीं. चमकते-चमकते अंधियारा कर देगा.’ माथे को छूते हुए शायद कुछ याद-सा करते हुए वे बोल रही हैं.
गेंदाबाई जैसी ही यह बात खदान में काम करते लगभग सारे चेहरे दोहराते हैं.
चाहे सिर पर मालिक या ठेकेदार सवार न भी हो, चाहे आसपास निपट सन्नाटा हो, हीरा छिपाया या चुराया नहीं जा सकता. कोशिश करते ही वो शापित हो जाएगा.
‘थक-थकाकर हमने अपना परयास (कोशिश) शुरू कर दिया.’ गेंदाबाई बताती हैं, जैसे कोई जाहिर भेद खोल रही हों.
राजा के लिए शाही थाल सजाते हुए खानसामे का दिल खुद खाने का हो आए, कुछ यही हाल गेंदाबाई समेत पन्ना के ज्यादातर हीरा मजदूरों का है. वे ये कीमत पत्थर आए-दिन देखते तो हैं लेकिन रख नहीं पाते. हारकर वे अवैध खनन की तरफ मुड़ गए.
जिले में सकरिया, अजयगढ़ और विश्रामगंज जैसे कई इलाके हैं, जहां अवैध माइनिंग चल रही है. पेड़ों और पहाड़ियों से घिरे ऐसे हिस्सों में जंगली पशुओं और गरीब मजदूरों के अलावा कोई नहीं जाता.
गेंदाबाई कहती हैं- पट्टा वैसे सस्ता होता है लेकिन उसे खरीदकर महीनों एक ही जगह किस्मत आजमाने की बजाए, मैं भी पहाड़ियों से नीचे उतरने लगी. जगह-जगह गड्ढे खोदने लगी ताकि कुछ न कुछ मिल ही जाए.
भगवान जागने (सूरज उगने) से पहले पहाड़ी रास्तों से होते हुए हम वहां पहुंचते, और सुबह सात बजे तक लौटकर खदान भी चले जाते. खतरों से भरा रास्ता. सांप ऐसे गुजरते जैसे शहर का टरैफिक (ट्रैफिक) हो. ओट से कई बार शेर-भालू दिखे. लेकिन मुश्किल तब थी, जब जंगल वाले (फॉरेस्ट विभाग) आ जाएं. तब सब छोड़कर भागना होता था.
रात सोती तो मिट्टी के ढेर में पड़ा वो हीरा दिखता, जो मुझे कभी न मिल सका. फिर यूं किया कि खदान में काम ही छोड़ दिया.
तो अब?
जंगल से लकड़ी काटकर लाते हैं और पन्ना जाकर बेच आते हैं. इसमें भी दो दिन लगते हैं. एक दिन जाकर लकड़ियां लाने और दूसरे दिन पन्ना में बेचने के लिए. इसी में गुजारा चल रहा है. घर के आदमी भी अब शहर में लेबरी (मजदूरी) करने लगे.
मतलब अब सब ठीक है!
ठीक ही मानो. लकड़ी काटकर लौटते हैं तो शरीर पिराता है. लेकिन खदान में हाथ-पांव कुचाकर काम करने से तो यही ठीक है. और कौन सा हीरा निकालते-निकालते हम राजा बनने वाले थे. टपरिया में जन्मे. इसी टपरिया में जाएंगे.
पन्ना की उथली खदानों में हर साल पांच से सात सौ कैरेट डायमंड मिलता है, जिसकी कीमत लगभग सात करोड़ तक है. वहीं सरकारी खदान यानी NDMC के जरिए एक लाख कैरेट तक मिल जाता है, जिसकी अनुमानित कीमत सौ करोड़ है. यह बात हीरा विभाग के अधिकारी बताते हैं.
पीली-नारंगी साड़ी पहने गेंदाबाई अरबों-खरबों रुपये वाली इंडस्ट्री के दूसरे छोर पर हैं, जहां तक पहुंचते हुए इस पत्थर की चमक लगभग स्याह हो जाती है.

हमारा अगला पड़ाव है- कल्याणपुर.
सुनहरा ग्राम पंचायत में शामिल गांव की आबादी हजार से भी कम है. लगभग 37 प्रतिशत साक्षरता दर वाले गांव में ज्यादातर घर हैं, जिनकी पीढ़ियां हीरा खोजते हुए मिट्टी हो चुकीं.
यहीं हमें पुष्पेंद्र आदिवासी मिले. वे काम से लौटे ही थे. मेहमान पाकर व्यस्त हो उठे. कुल जमा एक प्लास्टिक की कुर्सी को यहां से वहां रखते हुए वे बार-बार बैठने को बोलते हैं.
सहज होने पर बताते हैं- पहले दादा, फिर पिता और अब मैं यही कर रहा हूं. अब तो चौदह-पंद्रह साल का बेटा भी साथ जाता है.
तब तो खूब हीरे मिले होंगे!
मिल जाते तो क्या होता! देखिए ये घर. न रोटी है, न पानी. फिर भी लगे रहते हैं कि कभी तो किस्मत की देवी बगल से गुजरेगी.
चूने और गोबर से लिपी हल्की नीली दीवारों वाला ये घर शुरुआत में ही अपना अंत दिखा देता है. संभलकर भीतर घुसते हुए भी कई बार सिर छत से टकराते हुए बचा. अंदर बिछावन की जगह फटी हुई कथड़ियां. सर्दियां शुरू होने पर भी नंगे-चिरे पैर, मानो कई जोड़ा पांव एक साथ लेकर उन्हें आधा-अधूरा सिल दिया हो. छोटे-बड़े कई बच्चे, जो स्कूल न जाकर या तो खदान जाते हैं, या खदान जाने का इंतजार करते हैं.
छोटे बच्चों से काम क्यों कराते हैं?
हम नहीं कराते मैडम… गरीबी कराती है. आवाज ऐसी सहज जैसे चाय में बिस्किट डुबोकर खाने की बात चल रही हो.
जब तीन पीढ़ियों से हीरा मिला ही नहीं, तो काम छोड़ क्यों नहीं देते?
मिल जाता है. साल-छह महीने में कुछ हजार के हीरे मिल ही जाते हैं. तब लगता है कि आज रेज मिली, क्या पता कल कुछ बड़ा मिल जाए. तो किए जा रहे हैं.
छाती की पसलियों की तरह ढांप-समेटकर रखी ये उम्मीद लगभग हर झोपड़ी में जिंदा है.

हीरा खोजने के साथ और कुछ काम भी करते हैं?
हां. हीरा खदान में मजदूरी भी करते हैं. वहां बाप-बेटा को तीन-तीन सौ मिल जाते हैं. काम चलता रहता है. अगर खदान में काम न हो तो पन्ना जाकर कमाते हैं. सुस्त आवाज आती है.
कल्याणपुर में ही हमारी मुलाकात गुलाब बाई से हुई.
जंगल की कहानियां उनके पास भी कम नहीं. उनका एक कंधा जख्मी होकर हमेशा के लिए जोर खो बैठा. वजह? अंधेरे में खदान में काम करने जा रही थीं. रास्ते में रीछ दिख गया. बचने की कोशिश में गिर पड़ीं और कंधा टूट गया.
अब अललीगल (इललीगल) काम नहीं करते. मजदूरी पर जाते हैं खदान मालिक की. लेकिन तकलीफ उसमें भी है. पानी में मिट्टी मचाते हुए पैर सुन्न हो जाते हैं. झुकते-उठते पेट में दर्द रहता है.
महीना आने पर भी खदान में जाती हैं!
नहीं. तब तो कर ही नहीं सकते. इतना भारी काम है बाई. तब घर रहते हैं लेकिन कमर और पेट में दर्द हमेशा ही रहता है.
खदानों में औरतों का काम करना कितना सुरक्षित है?
अब जनानियां तो देखो, कहीं सुरक्षित नहीं. क्या खदान- क्या कारखाना. लेकिन हां ज्यादातर अपनी राजी से करती हैं. कई बार जबर्दस्ती भी होती है. तब हम सब की सब काम छोड़ देती हैं. बताती हैं कि फलां लफंगा है.
भालू से मुठभेड़ में जख्मी कंधे को अनजाने ही बार-बार छूते हुए वे कहती हैं- एक बात हो तो कहें बाई. लड़का बाहर रहता है. न खुद आता है, न हमको बुलाता है. कहता है कि अपनी रोटी खुद बना लेगा. कहां जाएं! खदान में काम करते-करते उम्र बीत गई. हीरा मिला तो लेकिन पराया. यही सगुनी हाथ जब अपने लिए मिट्टी मचाते हैं, मिलता हीरा खो जाता है.
चटख रंग साड़ी और जतन से लगाई लिपस्टिक में भी गुलाब बाई उदास लगती हैं, जैसे कब्रिस्तान में उग आया पौधा. उसपर खुशदिल पक्षी नहीं चहचहाते, चमगादड़ और उल्लू बसते हैं.

उन समेत बहुत से मजदूर कैमरे पर बात करते बचते तो हैं, लेकिन कैमरा या शहरी लोग उनके लिए नई बात नहीं.
हीरा नहीं मिला तो झक क्यों मार रहे हैं- जैसे सवाल उन्हें उकसाते नहीं.
वे अपनी पीठ पर खुदे तानों को सहलाने के लिए हाथ नहीं फेरते.
वे इन तमाम शहरी हैरानियों को, ठंडे सवालों को हवा के साथ बहना छोड़ देते हैं. और हीरे के इंतजार में अगली सुबह फिर निकल पड़ते हैं.
शहर से कुछ दूरी पर विश्रामगढ़ रेंज में रुंझ नदी है.
पन्ना हिल रेंज से निकली नदी में मछलियां नहीं, हीरे बहते हैं. साल 2022 में नदी के किनारे डायमंड मिलने की घटनाएं तेजी से बढ़ीं. इसके साथ ही यहां अस्थाई घर दिखने लगे. किसी एडवेंचर-प्रेमी टूरिस्ट की तेजी से बनते-बिगड़ते इन घरों में रहने वालों का एक ही मकसद है- किसी और के हाथ पड़े, इसके पहले हीरा हासिल कर लेना.
सुबह लगभग पांच बजे हम गांधीग्राम से होते हुए विश्रामगढ़ पहुंचे. नदी के करीब पहुंचने से पहले ही लोकल सोर्स कहता है- यहीं उतर जाते हैं, वरना लोग हमें फॉरेस्ट वाला सोचकर भाग जाएंगे.
आंखें खुली हों तो सुनाई पड़ने के पहले ही यहां वो सब दिखाई पड़ जाएगा, जो आप समझना चाहते हैं.
उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच बसी ये दुनिया एकदम अलग है.
यहां सुबह होते ही चाय-पानी पीकर लोग घरों को क्रॉस की हुई लकड़ियों से ढांपते हैं, और फावड़े-तसलियां लेकर नदी में उतर जाते हैं. कोई बहती रेत में सीधे ही तसला डालकर हीरा खोजता हुआ तो कोई किनारे की रेतीली-पथरीली जमीन पर फावड़े चलाता हुआ.
ज्यादातर लोग परिवार समेत दिखेंगे. सबके पास डेडलाइन, जो उनके पास मौजूद राशन और छुट्टे पैसों से जुड़ी है. महीनेभर में राशन चुकेगा तो हम गांव लौट जाएंगे...संक्रांति तक हीरा न मिला तो मैं चला जाऊंगा...ये बातें वहां आम हैं.

हीरा उगलती नदी नई दिल्ली का रेलवे प्लेटफॉर्म बनी हुई. रोज चेहरे बदलेंगे. जमीन वही रहेगी.
सामने ही एक घर अस्थाई तैयार हो रहा है. लकड़ियां खोंचकर उसपर बांस की खपच्चियां डाली जाती हैं. ऊपर मोटी नीली पॉलीथिन. हम एक घर को आधे घंटे से भी कम वक्त में बनता हुआ देख रहे हैं. इस बीच पास ही दो-तीन चूल्हों पर रोटियां पकती हुईं. एक बड़ा चूल्हा है, जहां साझा सब्जी बनाई जा रही.
यह पन्ना जिले का ही परिवार है, जो कल रात यहां शिफ्ट हुआ है. अगले महीनेभर के लिए. लगभग 15 सदस्यों के परिवार की मुखिया हैं शीला.
वे कहती हैं- सुना कि नदी हीरा दे रही है तो हम भी देखने आ पहुंचे. सबको मिलता है. शायद हमें भी मिल जाए.
और न मिले तो…
अभी ही तो आए हैं. कुछ दिन छोटे-बड़े सब मिलकर हीरा खोजेंगे. राशन खत्म होने लगेगा तो कुछ लोग शहर जाकर मजदूरी करेंगे, कुछ हीरे में लगेंगे. फिर भी न हो तो दिल्ली चले जाएंगे, मजदूरी के लिए.
शीला पहले भी दिल्ली जा चुकीं. लेकिन किस्मत आजमाने पहली बार निकली हैं. इस आजमाइश का उनका सफर महीनेभर के राशन जितना है. राशन खत्म- खोज खत्म.
पास ही उनकी बहू बैठी है. शायद चचेरी. मैं उनसे बात करना चाहती हूं. शीला उर्फ चचिया सास साथ बनी रहती है.
पत्थर खदानों की वजह से पति को खो चुकी महिला हाथों से ही रोटियां थापकर आग पर सेंक रही है. बहुत कुरेदने पर वे कहती हैं- चार साल हुए पति को गए. वो था तो हम घर पर रहते थे. अब मजदूरी कर बच्चे पाल रहे हैं.
पन्ना में माइनिंग में लगी बाकी औरतों से अलग ये महिला बिल्कुल सादा है. बल्कि रोटियां पकाते हुए भी धूसर-मिट्टी लगती हुई. पूछने पर जवाब आता है- पहले तो सदा बसंती रहते थे. शौक-सिंगार पति के साथ चला गया.
रोटियां सेंकती शीला की बहू को छोड़कर हम आगे बढ़ते हैं. काले-नीले टेंटों के बीच चमकीले पीले रंग की एक झोपड़ी सुबह की धूप में अलग दमकती हुई. इसमें रहने वाला शख्स हीरा-अभियान के लिए हड़बड़ी में भागता हुआ.

जाते हुए ही हम पूछते हैं- कभी हीरा देखा है आपने!
नहीं.
फिर मिलेगा तो पहचान कैसे पाएंगे?
आपको कभी बिच्छू ने काटा है? पहली बार काटे तब भी मुंह से चीख निकलेगी कि देखो बिच्छू ने काट लिया. हीरा भी वही बिच्छू है. आप ही आप हम पहचान लेंगे- पलटता हुआ जवाब देते हुए पीले टेंट वाला शख्स नदी में उतर जाता है.
यात्रा के दौरान हमारी मुलाकात जिला खनिज अधिकारी डॉ रवि पटेल से हुई. वे कई जानकारियां देते हैं.
डॉ पटेल कहते हैं- यह देश का अकेला हीरा कार्यालय है, जहां इतने बड़े स्तर पर काम होता है. सरकार यहां उथली हीरा खदानों के लिए पट्टा देती है. खरीदने वालों को यहां की भाषा में तुआदार कहा जाता है. वे खदानें लगाते हैं और हीरा मिलने पर उसे कार्यालय में जमा कराते हैं.
हर पांच से छह महीने में नीलामी होती है, जिसमें हीरा व्यापारी शामिल होते हैं. अगर इस वक्त से पहले भी दो सौ कैरेट के ऊपर डायमंड आ जाए तो भी नीलामी की जाती है. इसका लाइव टेलीकास्ट होता है ताकि पारदर्शिता रहे. सबसे ज्यादा बोली लगाने पर डील सील कर दी जाती है. इसके बाद जो राशि आती है, उसमें से साढ़े 11 प्रतिशत रॉयल्टी काटकर बाकी तुआदार को दे दी जाती है.
इस साल अक्टूबर तक 390 पट्टा इश्यू हो चुके, लेकिन फील्ड में जाएं तो कहीं ज्यादा भीड़ दिखेगी. पिछले सालों से भी तुलना करें तो पट्टे लेने वालों की संख्या में काफी गिरावट दिखती है. साल 2020 में 633 पट्टे जारी हुए थे, जो अब घटकर लगभग आधे हो चुके.
अवैध खनन तो चल ही रहा है, साथ ही हीरे की ब्लैक मार्केटिंग भी हो रही है. सरकारी अधिकारी इससे अनजान नहीं.

डॉ पटेल बताते हैं- इसकी वजह भी है. लोग अपना काफी कुछ दांव पर लगाकर, कई बार उधार लेकर खनन करते हैं. ऐसे में हीरा मिलते ही उन्हें पैसों की जरूरत पड़ती है. तस्कर उन्हें लालच देकर अपनी तरफ खींच लेते हैं. इसमें पैसा तो है लेकिन वाइट नहीं और कई खतरे भी हैं.
सरकार ने इसे ठीक करने के लिए तुआदारों के लिए स्कीम शुरू की. इसके तहत हीरे की कीमत से 50 प्रतिशत राशि या एक लाख रुपये की राशि, जो भी कम हो, वह उसे तुरंत दी जाती है. बाकी रकम नीलामी के बाद मिलती है.
पन्ना में डायमंड की ब्लैक मार्केटिंग का भी जाल फैला हुआ है.
इस बारे में पता करते हुए हम एक ऐसे शख्स तक पहुंचे जो सालों से अवैध हीरों का एजेंट है. दुबला-पतला एजेंट दिल्ली-एनसीआर के आईटी प्रोफेशनल की झलक दे रहा है. इतना कि उसके साथ कम से कम तस्करी शब्द फिट नहीं बैठता.
एजेंट बताता है- हमारे मोहल्ले में एक एजेंट था. उसके पास सूरत से, मुंबई से पार्टियां आती रहती थीं. दोस्ताने में मैं भी साथ जाने लगा और फिर यही मेरा काम बन गया.
हमारे लोग गांव-गांव हैं. जैसे ही किसी को हीरा मिलता है, सबसे पहले हम तक खबर आ जाती है. हम उससे मिलते हैं. हीरा देखते हैं. फिर कीमत का अंदाजा लगातार पार्टी को कॉल (वो व्यापारी जो ब्लैक में हीरा खरीदेंगे) करते हैं. वे लोग पन्ना आते हैं. खुद तसल्ली करते हैं और फिर सब फाइनल हो जाता है. पार्टी हवाला से पैसा भेजती है, जो हमारे पास आता है. इसके बाद हम अपना एक से दो परसेंट काटकर हीरा पाने वाले को पूरी रकम दे देते हैं.
पैसों को लेकर कभी कोई फसाद नहीं हुआ?
नहीं. दो नंबर के काम में सबसे ज्यादा ईमानदारी होती है. लेकिन कई बार दूसरे झंझट आते हैं. जैसे पुलिस पकड़ लेती है. उन्हें अपना हिस्सा चाहिए होता है.
लोग अपना हीरा नंबर दो में क्यों बेचने लगे?
पैसे तुरंत के तुरंत मिल जाते हैं. दूसरा, सरकारी नीलामी में व्यापारी पहले से तय करके बैठने लगे कि इतनी बोली से ऊपर जाएंगे ही नहीं. वे कम कीमत देने लगे, जिससे तुआदार के पास कोई रास्ता नहीं बचता था. ब्लैक मार्केट में वही व्यापारी बेहतर कीमत देते हैं.
एजेंट इससे ज्यादा जानकारी देने से इनकार करता है. लेकिन बड़ी ही आत्मीयता से चाय की मनुहार करते हुए हमें अपने पास मौजूद हीरे दिखाता है.
चमकते हुए ये पत्थर अगर पत्थरों के ढेर में भी पड़ें हो, तब भी वाकई अलग से समझ आ जाएंगे. बिच्छू के डंक की तरह.