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कहानी : एक सुपर हीरो की कहानी | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद

सुपरहीरो वो नहीं जो आसमान में उड़ते हैं, बिल्डिंग्स से लटकते हैं, विलेंस को मारते हैं -सुपरहीरो वो होते हैं जो ज़िंदगी की तकलीफों, दूरियों और ग़म के बीच कुछ ऐसा कर जाते हैं कि दुनिया उन्हें याद रखती है. ये कहानी है कारगिल के एक ऐसे ही हीरो की. जमशेद क़मर सिद्दीक़ी स्टोरीबॉक्स में सुना रहे हैं 'एक सुपरहीरो की सच्ची कहानी'

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एक सुपरहीरो की कहानी
राइटर - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

 

हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में एक सड़क है, नाम है बुंदला कंडी रोड... इस रोड पर एक मकान है... जिसके बाहर एक मूर्ति लगी हुई है। खूबसूरत हरियाली से घिरे हुए उस मकान को अक्सर लोग देखने आते हैं... क्योंकि इसकी एक कहानी है... इस घर की ऊपर मंज़िल पर एक कमरा है... जहां तस्वीरें हैं, एक आर्मी यूनिफ़ॉर्म है और एक कांच की अलमारी के अंदर रखा है – एक चेक... वो चेक जो सरहद पर जाने से पहले, एक बेटे ने अपनी मां को दिया था और कहा था - मां मैं जा रहा हूं... मैंने इस चेक पर साइन कर दिया है... आप बैंक से कैश निकाल लेना... जब भी ज़रूरत हो... मैं जल्द आउंगा...उस चेक को मां ने आज भी संभाल कर रखा है क्योंकि अब वही चेक ... बेटे की आखिरी निशानी है। इस चेक पर दस्तख्वत की जगह लिखा है – सौरभ कालिया। (बाकी की कहानी नीचे पढ़ें या फिर इसी कहानी को अपने फोन पर सुनने के लिए ठीक नीचे दिए गए SPOTIFY या APPLE PODCAST के लिंक को क्लिक करें) 

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दोस्तों स्टोरी बॉक्स की कहानी का हीरो कोई फिक्शनल हीरो नहीं है... एक असली हीरो है... वो हीरो जिसने वतन के लिए वो जांबाज़ी दिखाई कि आने वाली बेशुमार नस्लें जब जब उन लोगों को याद करेंगी जिनकी कुर्बानियों से हिंदुस्तान वो कर पाया, या बन पाया जो वो है... तो उन्हें सौरभ कालिया का याद आंएगे- शहीद लेफटिनेंट सौरभ कालिया...  

चलिये सब कुछ शुरु से शुरु करते हैं। साल था1999, तारीख 3 मई ... एक साहब थे, नाम था ताशी नामग्याल... खुबानी उगाने का काम था उनका... कारगिल में रहते थे... कुछ दिन पहले वो एक याक खरीद कर लाए थे। तीन तारीख की सुबह उनका वो याक कहीं खो गया। अब ताशी साहब ने अपना याक ढूंढने की कोशिश की... जब नहीं मिला तो कारगिल की पहाड़ियों पर आ गए... कि शायद इधर आ गया हो। गले में दूरबीन लटकाए ताशी, अपने याक को आवाज़ लगा रहे थे। पहाड़ियों पर आमतौर पर सन्नाटा ही रहता था। उस तरफ दूर तक फैले पाकिस्तान का इलाका है।

अभी वो ढूंढ ही रहे थे याक को कि अचानक उन्हें वहां कुछ हलचल दिखाई थी। ऐसा लगा जैसे कुछ लोग पत्थर हटाकर रास्ता बना रहे थे। ताशी ने दूरबीन आंखों से सटाई। सात-आठ लोग थे, कुछ के पास हथियार भी थे। ताशी ने ज़मीन पर देखा तो इस तरफ से जाते हुए जूतों के कोई निशान नहीं थे। यानि ये लोग उस तरफ से आए थे... पाकिस्तान की तरफ से। ताशी तेज़ कदमों से फौरन अपने गांव की तरफ रवाना हुए जहां पंजाब रेजिमेंट का स्टेशन था। वहां पहुंचकर उन्होंने गार्ड कमांडर को पूरी आंखों देखी बात बताई।

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ताशी नामग्याल की ख़बर को भारतीय सेना ने पूरी संजीदगी से लिया। यूनिट्स पैट्रोलिंग पर भेजी गईं। दस दिन तक छानबीन हुई और फिर आई तेरह मई... जब हेडक्वार्टर में ये फ़ैसला हुआ कि अगले दिन यानि चौदह मई को एक और गश्त दल बजरंग पोस्टपर भेजा जाएगा। इस दल की अगुवाई के लिए टीम भी तैयार हो गयी, तैयारियां जारी थीं। लेकिन उसी वक्त अधिकारियों को पता चला कि फोर जाट रेजिमेंट में तैनात लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया, गश्त दल पर जाना चाहते हैं। पालमपुर से आए लेफ़्टिनेंट सौरभ कालिया को तब सेना में कमीशन हुए महज़ चार महीने हुए थे। वो इस मिशन के नेतृत्व के लिए अपॉइंट हो गए।

तो अगली सुबह गश्त दल को निकलना था... लेकिन उससे पहले की रात का ज़िक्र बहुत ज़रूरी है। उस रात लेफ़्टिनेंट सौरभ कालिया को उनका घर बार-बार याद आ रहा था। असल में उनके छोटे भाई वैभव की सालगिरह आने वाली थी। एक इंटरव्यू में वैभव ने ये बात बताऊ कि उसी रात उनके भाई सौरभ का फोन आया था। बेल बजी वैभव ने उठाया... उधर से आवाज़ आई... हैलो वैभव... वैभव हफ्तों बाद अपने भाई की आवाज़ सुनकर खुश हो गए। दोनों में खूब बातें हुई, शरारत भरी छेड़खानी भी। हालांकि वैभव जानते थे कि सौरभ उनकी सालगिरह पर नहीं आ पांएगे अच्छा, अपनी बर्थडे पर तो आओगे ना भाई... 29 जून भी आने ही वाली है, आओगे?”  वैभन ने पूछा तो सौरभ ने वादा किया कि वो पालमपुर ज़रूर आएंगे।

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ख़ैर... अगली सुबह कारगिल की पहाड़ियों के पीछे से चौदह मई का सूरज झांक रहा था। ये वो तारीख थी जब भारतीय सेना की एक जांबाज़ टीम जान का खतरा उठाकर, कारगिल की पहाड़ियों में छुपे दुश्मनों की जानकारी लेने निकल पड़ी थी। लेफटिनेंट सौरभ कालिया के साथ पांच और जवान थे। उनके पास पीठ पर टांगने वाले पाउच एम्यूनिशिन, कुछ ग्रेनेड, एक-एक लाइट वेपेन और बुलेट्स थीं। इसके अलावा एक जवान जिनका नाम नरेश सिंह था... उनके पास रेडियो सेट भी था। तो बहरहाल वो लोग चौकन्ना होकर बढ़ते जा रहे थे... सतर्क... आहिस्ता.. आहिसाता। उस खतरे का एहसास हम और आप घरों में बैठकर कतई नहीं कर सकते.... कि कैसा लगता है जब आप एक जगह से गुज़र रहे होंते हैं आप जानते हैं कि इसकी पूरी पॉसिबिलिटी है कि कहीं दूर छुपकर बैठे दुश्मन की बंदूक की नली आपकी तरफ तनी है। वो एहसास वही कर सकता है जिसने उन हालात को जिया हो।

उधर कारगिल से छ सौ पचपन किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में लेफ़्टिनेंट की मां विजया कालिया का दिल किसी अजनबी डर से बैठा जा रहा था। बेटे की तस्वीर को देखते हुए उन्हें याद आ रहा था कि जब पिछली बार सौरभ ड्यूटी पर जा रहे थे तो वो, सौरभ के पापा के साथ उन्हें छोड़ने पालमपुर रेलवे स्टेशन आई थीं। प्लैटफ़र्म नंबर दो से ट्रेन चलने को थी, सौरभ ट्रेन के दरवाज़े पर खड़े थे। मां और पापा दरवाज़े के सामने। अपनों को छोड़कर जाना कितना मुश्किल होता है - ये सौरभ की आंखों में दिख रहा था लेकिन अपनों को जाते हुए देखना और ज़्यादा मुश्किल होता है, ये मां की आंखों में नज़र आ रहा था। सामने वो बेटा था जो थोड़ी ही देर में आंखों से ओझल हो जाना था अगली नामालूम छुट्टी तक... वो उसे जी भर कर देख लेना चाहती थीं। एक मां जब अपने बच्चे को बेतरहा याद करती है, या जब उससे अलग हो रही होती है तो जिन ख़ास लम्हों को वो याद करती है, उनमें उसकी पैदाइश का वक्त भी शामिल होता है। 29 जून 1976 की तारीख थी वो जब सौरभ कालिया ने दुनिया में पहली सांस ली थी, हालांकि उनकी पैदाइश अमृतसर में हुई थी क्योंकि उन दिनों पालमपुर में कोई अच्छा अस्पताल नहीं था। मां को याद आ रहा था। वो वक्त जब डीलीवरी के वक्त नर्स ने मुस्कुराकर कहा था कि आपका बच्चा बड़ा नॉटीहै और उसके बाद से उन्होंने अपने लाडले को प्यार से नॉटी बुलाना शुरु कर दिया था। अब वही नॉटी छ फीट दो इंच का हो चुका था और उसके कंधे पर अशोक की लाट चमकती थी। विजया कालिया को वो लम्हा बारीकी के साथ याद था कि दरवाज़े पर खड़े हुए सौरभ कालिया ने उनकी बहती आंखों में एक पल ग़ौर से देखा और फिर ट्रेन के दरवाज़े पर लगे लंबे से हैंडल को थाम कर मां के पैरों की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा, ऐसा काम करके लौटूंगा कि पूरी दुनिया में नाम होगा। गर्व से आंखें छलछला गयी थी मां की, फख्र से सीना चौड़ा हो गया था पीछे खड़े पिता का। लेकिन उस चौदह मई की सुबह से ही पालमपुर में मां अजीब सी बेचैनी महसूस कर रही थी।

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कारगिल में लेफ़्टिनेंट सौरभ कालिया अपने साथी जवानों के साथ दुश्मन की तलाश में आगे बढ़ रहे थे। बजरंग पोस्ट पर पहुंचने के बाद वो और ज़्यादा चौकन्ना हो गए क्योंकि वहां उन्हें किसी के होने का अंदाज़ा हो रहा था। रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जेनरल शंकर प्रसाद साहब ने एक इंटरव्यू में बताया कि अभी सौरभ कालिया और उनकी टीम एक जगह पर ठहरे ही रहे थे कि कुछ दूर पर हलचल महसूस हुई। इससे पहले की कुछ समझ पाता, दूसरी तरफ से एक गोली चलने की ज़ोरदार आवाज़ हुई और एक गोली उनके ठीक पीछे वाली चट्टान से जा टकराई। छ के छ भारतीय जवानों ने अपनी पोज़िशन ले ली। और इसके बाद बेहिसाब गोलियां बरसने लगीं। यानि ताशी नामग्याल वो शख्स जो अपने याक की तलाश में घूम रहा था और उसे कुछ हलचल दिखाई दी थी... और उसने ही सेना को जानकारी दी थी... वो जानकारी बिल्कुल सही थी।

पाकिस्तानी घुसपैठियों की तादाद तकरीबन तीस थी। गोलियां कारगिल की दूरतक फैली फ़िज़ा में गूंजने लगीं। थोड़ी ही देर में वो ताज़ा हवा के झोंके से महकती हुई वादी, बारूद के भपकों से भर गयी।

हैलो... हैलो.... रेडियो सेट लिए जवान नरेश सिंह, चट्टान की आड़ लेकर बार-बार बैस कैंप से संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे ताकि जानकारी हेडक्वार्टर तक पहुंचाई जा सके लेकिन रेडियो सेट काम नहीं कर रहा था। छ जवानों के पास जितना भी गोला बारूद था वो थोड़ी देर में खत्म हो गया... पर दुश्मन के पास तो पूरी तैयारी थी। दुश्मन गोलियां दागते हुए आगे बढ़ने लगा।

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इधर शाम ढलने के बाद भी गश्त दल जब बेस कैंप नहीं लौटा तो ऑफिसर्स को फिक्र हुईष कुछ और यूनिट्स उनकी तलाश में निकले लेकिन जब वो बजरंग पोस्ट पर पहुंचे तो उन्हें वहा दिखाई दिये खून के धब्बे... सौरभ कालिया और उनके साथी कहां है... ये कोई नहीं जानता था... और शायद किसी को पता चलता भी नहीं.. अगर अगले दिन पाकिस्तानी रेडियो पर एक खबर ना आती। खबर थी -
ये पाक़िस्तान का रेडियो स्कर्दू है। आपको बता दें कि ये खबर मिली है कि हमारे जाबांज रेंजर्स ने लाइन ऑफ कंट्रोल से पाकस्तानी सरहद लांघ कर आए छ भारतीय जवानों को हिरासत में ले लिया है

ये झूठ था... लेकिन इससे एक बात तो तय हो गयी कि सौरभ कालिया और उनके साथी पाकिस्तान के कब्ज़ें में हैं। जेनेवा कंवेंशन के हिसाब से जंग में बंदी बनाए गए जवानों के साथ बेअदबी नहीं की जा सकती। हिंदुस्तान ने हमेशा इसका मान रखा है लेकिन पाकिस्तान ने सौरभ कालिया और उनके साथियों के साथ जो क्रूरता की उसकी डीटेलिंग आने वाली बेशुमार सालों तक जब जब पढ़ी जाएगी... याद आएगा कि एक मुल्क था पाकिस्तान जिसने इंसानियत के म्यार से गिरकर... हिरासत में लिये गए जवानों के साथ हैवानियत की वो इबारत लिखी थी जिस पर सिर्फ लानत भेजी जा सकती है।

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सिगरेट के बट से सौरभ कालिया के जिस्म को दागा गया, उनके हाथ और पैर के बीसों नाखून खींच लिए गये, आंखें दाग दी गयीं और .. और कान के पर्दे फाड़ दिये गए... क्या चाहते थे वो... यही कि गोपनीय जानकारी दे दें लेकिन दुश्मन नाकाम रहा।

इधर पालमपुर में सौरभ के भाई वैभव की फिक्र बढ़ती जा रही थी क्योंकि कई दिनों से बात नहीं हुई थी और आर्मी हेडक्वार्टर से बस इतना कहा जा रहा था कि फिलहाल जानकारी की कोशिश की जा रही है। वैभव, जो अब हिमाचल प्रदेश एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी में एसिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं, उस वक्त बुरी तरह घबराए हुए थे। हालांकि सेना ने भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। पाकिस्तान की इस कायराना हरकत का जवाब देने के लिए 26 मई 1999 को एक ऑपरेशन शुरु हुआ... और इसका नाम था  - ऑपरेशन विजय.... उस सुबह कारगिल की पहाड़ियां गूंज उठीं टैकों तोपों की गर्जना से ... और पाकिस्तान को एहसास हो गया कि इतिहास में हारी हुए जंगों की हताशा, कुछ सिपाहियों पर उतारने से कुछ नहीं होगा...

जब देश की नज़रें कारगिल मे चल रही सैन्य कार्रवाई पर थी उस वक्त पालमपुर के उस मकान में खामोशी छाई हुई थी। टीवी पर आती ब्रेकिंग न्यूज़ की हड़बड़ाई पट्टियों में कारगिल में चल रही जंग की लगातार खबरें थीं। उन पट्टियों में एक भाई अपने भाई का नाम ढूंढता था, एक मां-बाप अपने बेटे का। सब गीली धुंधलाई आंखों से टीवी देखते और मन ही मन घर के लाडले को याद करते। खामोश बैठे वैभव को याद आ रही थी 31 दिसंबर 1998 की वो शाम, जब आर्मी में सौरभ का सिलेक्शन हो गया था। हालांकि उस दौरान उन्हें कश्मीर जाने से पहले बरेली में बने जाट रेजीमेंट सेंटर जाना था। वैभव को याद आ रहा था कि जाने से पहले रेलवे स्टेशन के रास्ते में सौरभ ने उनसे एक ही बात तीन बार कही थी, सुनो, वो... मम्मी का ख्याल रखना। हम्म? ख्याल रखना उनका। ठीक है? मम्मी का ध्यान रखना

छोटे-छोटे लम्हें, छोटी-छोटी डीटेल्स कितनी खास हो जाती हैं जब कोई आंखों के सामने से ओझल हो जाता है। जब नामालूम ख़लाओं से उसकी कोई ख़बर नहीं मिलती। लेकिन कारगिल की जंग के दौरान एक रोज़ पाकिस्तान की तरफ़ से लेफ़्टिनेंट सौरभ कालिया की ख़बर आ गयी।

वो तारीख थी सात जून 1999. पाकिस्तानी सेना ने झूठ चढ़ाते हुए अपने आधिकारिक बयान में कहा कि उन्हें पाकिस्तानी सीमा में छ भारतीय जवानों के शव मिले हैं, जबकि हिरासत वाली बात रेडियो पर पहले ही प्रसारित हो चुकी थी... इसके बाद नौ जून को पाकिस्तान ने भारतीय सेना के छ शहीद जवानों के शव भारत को सौंप दिये... इनके नाम थे - भीका राम चौधरी, बनवारी लाल बागारिया, मूला राम, नरेश सिंह, अर्जुन राम और लेफ़्टिनेंट सौरभ कालिया।

जिस्म आधे अधूरे थे... वैभव ने सिर्फ आईब्रो से अपने भाई की पहचान की। उन्होंने सेना से ये दरख्वास्त रखी कि शहीद की बॉडी उनके मम्मी-पापा को ना दिखाई जाए। ताकि उनकी यादों में हमेशा वही बेटा रहे जिसे उन्होंने आखिरी बार ट्रेन से मुस्कुराते हुए विदा किया था। वो आज भले दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके शौर्य, उनकी हिम्मत, उनके जज़्बा की कहानी आने वाली नस्लों के बीच हमेशा ज़िंदा रहेगी... ऐसे ही लोग होते हैं हमारे सुपर हीरो... शहीद कैप्टन सौरभ कालिया को मेरा सलाम...

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