कहानी - वायसरॉय साहब का पंखा
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
ये कहानी उन दिनों की है जब मैं दिल्ली के ज़ाकिर नगर में रहता था... आप लोगों का अगर कभी आना हुआ हो उधर तो ज़ाकिर नगर खाने के लिए बड़ी मशहूर जगह है। एक से बढ़कर एक दुकानें हैं और काफी मशहूर हैं... अच्छा पूरा ज़ाकिर नगर गलियों में बंटा हुआ है। आबादी ज़्यादा है, जगह कम है इसलिए काफी कंजेस्टेड भी लगता है। शाम होते ही ये गलियां गुलज़ार हो जाती हैं। सड़क के दोनों तरफ सजी खाने पीने की दुकानों से खुश्बू उठने लगती है और भीड़ दिखाई देती है। चाय की दुकानों पर लड़के और लोकल दुकानों पर खरीदारी करती औरतें दिखाई देती हैं। ट्राफिक ज़्यादातर जाम ही रहता है... पर फिर भी सबका काम चलता रहता है। ज़ाकिर नगर की इन्हीं गलियों में एक दुकान हुआ करती थी, जिसके ऊपर एक बड़ा सा बोर्ड होता था.. जिसपर लिखा रहता है लवली डेंटल क्लीनिक .. (बाकी की कहानी पढ़ने के लिए नीचे जाएं। और अगर इसी कहानी को SPOTIFY में जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनना है तो बिल्कुल नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें)
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(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) शटर के अंदर देखेंगे तो वो एक डेंटल क्लीनिक थी.. करीब पचास साल पुरानी, उसमें जो साहब उसमे बैठते थे उनका नाम था अब्दुल जलील .. और वो कोई डॉक्टर नहीं थे... उनके पास कोई डिग्री भी नहीं थी.. लेकिन फिर भी उनकी क्लिनिक पर भीड़ लगी रहती थी। जब भी गुज़रिये उधर से आप देखेंगे कि तीन चार मरीज़ जलील भाई का इंतज़ार कर रहे हैं। उनकी क्लीनिक के बारे में थोड़ा सा बता दूं ... दस बाई 12 की छोटी सी जगह थी... शटर उठाओ तो एक लकड़ी के फ्रेम वाला कांच का दरवाज़ा था। अंदर छोटा सा पार्टिशन किया हुआ था जिसके उस तरफ जलील भाई एक मेज़ के पीछे बैठे रहते थे, मेज़ पर गुलाबी रंग के मसूड़े वाले नकली जबड़े सजे रहते थे। और इस तरफ वो कुर्सी रखी थी जो आम तौर पर नाइयों की दुकान पर होती है... हां, बजट कम था तो जलील भाई ने डेंटिस्ट वाली कुर्सी की जगह बाल कटाने वाली कुर्सी रखी हुई थी... जिसमें नीचे एक लीवर लगा था उसे पैर से दबाओ तो ऊंची होती जाती थी... जलील उसी कुर्सी के पीछे खड़े होकर मरीज़ के खुले हुए मुंह में काम करते थे। और कुर्सी के बिल्कुल ठीक ऊपर एक अंग्रेज़ों के ज़माने का पंखा लटका रहता था जिसमें से मुसलसल चूं-चूं की आवाज़ आती थी... कोई मरीज़ जब कुर्सी पर बैठकर मुंह खोलकर ऊपर की तरफ देखता था तो उसे पंखा ही दिखाई देता था। गर्मियों के दिनों में जब लाइट जाती थी और पंखा धीरे-धीरे रुकता था तो चूं-चूं की आवाज़ सुस्त होते होते ऐसे आवाज़ रुकती थी जैसे किसी मुर्गी को मौत आ गयी हो और वो अपनी वसीयत बताते-बताते इंतकाल फर्मा गयी हो।
वैसे, जलील भाई ने न कभी किसी डेंटल स्कूल में पढ़ाई की थी न किसी ने उनके हाथ में किताब देखी थी, बस उन्होंने ये काम अपने मरहूम वालिद साहब से सीखी थी। तो ख़ैर सर्दियों की ठिठुरती हुई एक शाम थी। और उसी धुंधलाई हुई शाम में लवली डेंटल क्लीनिक के बाहर एक रिक्शा आकर रुका... रिक्शे पर बैठे थे खां साहब और उनकी बेटी कुलसुम खान। खां साहब ने रुमाल से एक तरफ का गाल दबाया हुआ था। उन्हें दांत की तकलीफ थी। कुलसुम ने रिक्शे से उतरते-उतरते अब्बा से कहा, दिल्ली में इतने अच्छे अच्छे डेंटल कॉलेज हैं... पता नहीं आपको इसी घटिया से झोला छाप आदमी के पास क्यों आना था।
खां साहब गाल दबाए-दबाए बोले, ऐसा न कहो.. जलील बहुत काबिल है... इसके अब्बा जब ज़िंदा थे तो हम लोग रोज़ाना दो-दो घंटे ओखला हेड पर बैठे चाय पीते थे... तभी हमने तुम्हारा रिश्ता जलील के साथ तय कर दिया था। और पता नहीं तुम क्यों उससे इतना चिढ़ती हो... देखो कितना नेक लड़का है.. जब भी दही वाली दुकान पर दिखता है तो सलाम करता है... तुम्हारी और उसकी जोड़ी....
- अरे अब्बा आप फिर शुरु हो गए.. कुलसुम ने उनकी बात काटी अब्बा आप फिर शुरु हो गए... मैं इस आदमी से शादी नहीं करूंगी.. नहीं करूंगी.. नहीं करूंगी.. और इसीलिए कह रही हूं.. कि वहां जा तो रहे हैं लेकिन सिर्फ दांत निकलवाइयेगा .... फिर से आपने कोई इधर-उधर की, शादी-वादी की बात की तो.. मै.. बस समझ लीजिए अच्छा नहीं होगा
खां साहब बेटी के आगे मजबूर तो थे लेकिन दबी हुई तमन्ना उनकी यही थी कि गुज़र चुके दोस्त को जो ज़बान दी थी वो पूरी हो जाए। ख़ैर, गाल दबाए-दबाए क्लीनिक के अंदर गए। पूरा मतलब दवाओं की महक से भरा हुआ था... सामने वाली नाइयों वाली कुर्सी थी जिसके ठीक ऊपर बाबा आदम के ज़माने वाला पंखा घूम रहा था.. नीचे एक लड़का छोटू स्टूल पर बैठा गोल गोल घूम रहा था... गोल गोल घूमता हुआ बोला, बैठिए अभी वो बिज़ी हैं...
- अरे बिज़ी क्या हैं, बताओ हम आए हैं खां अंकल... बोलो उसको
- अरे वो बहुत ज़रूरी काम कर रहे हैं... दो मिनट रुकिए...
खां साहब ने गुस्से में उसके हटाते हुए पार्टिशन के उस तरफ खुद ही झांक लिया। तो देखा जलील मियां मोबाइल पर रील्स चला के खींखी हंस रहे थे। खां साहब को देखकर शर्मा गए।
स्लालेकुम खां अंकल... वो एक डेंटल ऑपरेशनल की वीडियो देख रहा था... बस दो मिनट बैठिए...
हां हां बेटा तुम कर लो... जो कर रहे हो... मैं बैठा हूं
जलील थे भी कुछ अजीब से। बिखरे लंबे घुंघराले बाल, दुबला-पतला जिस्म, बात करते हुए अटकते भी थे। वो डेंटिस्ट न थे, और न लगते थे। बहरहाल अगर कोई कहे कि ये इतवार-इतवार पूरे जिस्म पर मिट्टी लगाकर बर्तनों पर कलई करते हैं, तो आप मान भी लेते।
ख़ैर थोड़ी देर बाद जलील हाथ में बिला-वजह कुछ कागज़ लिए हुए पर्दे के इस तरफ आए और छोटू को डांट लगाई। अरे यार.. छोटू...बताना था न अंकल आए हैं... फिर कुलसुम की तरफ देखा... अरे अपने लोग हैं भई... अपने लोग आए हैं और तुमने बताया नहीं... अंकल वो मैं ज़रा कोई जर्नल देख रहा था तो... चलिए ख़ैर आइये बैठिए... तो ख़ैर खां साहब ने तकलीफ बताई तो जलील ने उन्हें कहा कि एक तरफ की दाढ़ खराब हो गई है, उसे निकलना पड़ेगा...
- अरे दाढ़ निकाल दोगे तो मैं खाना कैसे खाऊंगा भई खां साहब ने पूछा तो जलील बोले, दूसरी तरफ से खा लीजिएगा.. आदमी के पास दाढ़ दो होती हैं... फिर कुलसुम की तरफ देखकर बोले हां बस दिल एक ही होता है
तो भई सर्जरी शुरु हुई... खा साहब वो नाई वाली कुर्सी पर बैठे... गर्दन के पीछे जलील ने कुर्सी का वो फट्टा लगा दिया जो नाई दाढ़ी बनाते वक्त लगाते हैं... तो ख़ैर खां साहब ने मुंह खोल कर ऊपर किया... तो उन्हें वो चूं चूं वाला पंखा नज़र आया... उसके पंख इतनी ऐंठ ऐंठ के चल रहा था जैसे किसी बहुत गुनाहगार आदमी की रुह निकाली जा रही हो...
- अरे ये गिर तो नहीं जाएगा डरते-डरते खा साहब ने आंखे फैलाकर कहा। जलील बोले... अरे नहीं चचा, क्या बात कर रहे हैं... ये 1940 का पंखा है... दादा लाए थे इसे, दिल्ली में ये वायसरॉय साहब के बंग्ले में लगा था। उन्होंने हमारे दादा को दिया था... ये उसी ज़माने का लोहा है, मज़बूत है... समझ लीजिए... ये पूरी बिल्डिंग गिर सकती है... पर ये पंखा नहीं गिरेगा... चलिए अब आप बेफिक्र हो जाइये... और मुंह थोड़ा और खोलिये.... कुलसुम आप मेरे करीब... खड़ी हो जाइये... हां मतलब अब्बा का हाथ पकड़ लीजिए... थोड़ी हिम्मत रहती है खां साहब के इंजेक्शन लगाया गया और फिर जलील भाई ने दाढ़ निकालना शुरु की। हालांकि पूरे प्रोसेस के दौरान उनका ध्यान कुलसुम की तरफ था।
ख़ैर, दांत निकल गया। खां साहब गाल दबाए-दबाए घर आ गए। थोड़ी देर बाद जब सुन करने वाले इंजेक्शन का असर कम हुआ तो आइने के सामने गए। मुंह खोलकर देखा तो मुंह खुला का खुला ही रह गया। हाथ कांपने लगा... आंखें फैल गयीं। जलील ने सही वाली दाढ़ निकाल ली थी।
अब्बा, टेबल पर हलवा रख दिया है, खा लीजिएगा... क्या हुआ... कुलसुम ने हैरानी से देखा ... अब खां साहब फंस गए... कुलसुम को बताते तो वो उल्टा डांट लगाती कि मैंने मना किया था कि कहीं और चलते हैं... पर आप ही को बड़ा प्यार आ रहा था। और फिर उसको मौका मिल जाता इस रिश्ते से इंकार करने का... लिहाज़ा बेचारे दर्द बर्दाश्त करने लगे। किसी को कुछ नहीं बता रहे थे बस मुंह को रुमाल से ढके...दर्द बर्दाश्त करते रहे... पर कसम से गुस्सा बहुत आ रहा था जलील पर... सामने मिल जाता ... तो दे लप्पड़ दे लप्पड़ सुजा देते पर... अब क्या करें... गुज़र चुके दोस्त से रिश्ता भी तो निभाना था।
सुस्त कदमों से बाहर आए और खाने की टेबल पर बैठ गए... क्या हुआ दर्द ज़्यादा है क्या? दिखाइये ज़रा मुंह खोलिए कुलसुम ने कहा तो बोले अम्म, अम्म.. ठीक है कुछ देर बाद कुलसुम चम्मच अपनी प्लेट पर घुमाते हुए मुस्कुराकर बोली, अच्छा अब्बा... आप से कुछ बात करनी थी...
- हम्म बताओ...
- वो... मैंने कहा था ना कि मेरा एक दोस्त है... एक लड़का .. समीर...
- हां तो
- तो मैं चाहती हूं आप उससे मिल लें... बस एक बार मिल लीजिए... आपको नहीं अच्छा लगेगा तो
खां साहब गाल पर हाथ रखे रखे बोले डेंटिस्ट तो नहीं है..
- नहीं, नहीं अब्बा... डेंटिस्ट नहीं है... उसकी बहुत सारी बेकरी हैं नोएडा में... बिज़नेसमैन है...
खां साहब ने उसे समझाया कि देखो मिलने को वो मिल लेंगे लेकिन जलील के बारे में कुलसुम को भी एक बार संजीदगी से सोचना चाहिए। आखिर अपने बाप की बात को यूं ही तो नहीं टाल सकती कुलसुम। उसने कहा कि ठीक है वो संजीदगी से सोचेगी, ये और बात है कि फैसला वो कर चुकी थी। खां साहब ने गलत दाढ़ निकालने वाली बात कुलसुम को बताई नहीं ताकि जलील के नंबर कम न हो जाएं। पर गुस्सा तो था ही मन में, लिहाज़ा कुलसुम के घर से जाने के बाद खा साहब ने अपने सूजे हुए मुंह को ठीक-ठाक किया। गली में रिक्शा रोका और चल दिये जलील की लवली डेंटल क्लीनिक।
- कहां है वो कमबख्त जलील... क्लीनिक पहुंच कर खां साहब ने चीखते हुए कहा तो छोटू बोला, सर हैं नहीं, कहीं गए हैं... बाद में आइये... कहते हुए स्टूल पर दूसरी तरफ घूम गया। खां साहब को गुस्सा आया। गए पीछे से उसकी पतली सी गर्दन को हथेली से दबाया और अपनी तऱफ घुमा दिया... अल्ला... अल्ला... अरे .. छोड़िये... आ... ऐ...
- बुला उसको...बता दो कि हम आएं हैं... और ये पंखा बंद करो... चूं चूं किये जा रहा है...
- जी जी ... करते हैं – कहते हुए उसने जल्दी से फोन किया जलील भाई को... जलील फौरन अपनी स्कूटर पर बैठे हुए लववी डेंटल क्लीनिक पहुंचे।
- क्या हुआ अंकल... हुआ क्या मतलब
- हुआ क्या... अबे तुमने गलत वाली दाढ़ निकाल दी मेरी....
- अंकल तो गलत वाली ही तो निकालनी थी... जो सही है वो क्यों निकालेंगे
- अबे बेवकूफ, मेरा मतलब तुमको गलत वाली निकालनी थी, सही वाली दाढ़ क्यों निकालोगे जब वो सही है...
- हां तो अभी आप ही ने कहा कि मैंने गलत वाली निकाल दी है... सही वाले क्यों निकालना सही वाली ही तो गलत थी..
- अबे गधे.. अहमक, बेवकूफ, उल्लू... अरे यही तो मैं कह रहा हूं कि सही वाली क्यों निकालोगे भई... निकालनी गलत वाली थी...सही वाली ही निकाल दी तुमने...
- हां मतलब मैंने सही निकाली ना... तो इसमें क्या गलती है...
- अरे सही मतलब... सही वाली नहीं निकालनी थी... तुमने गलत वाली निकला दी
- हां लेकिन मैं गलत क्यों निकालूं जब सही
- अरे मतलब गलत वाली ही सही थी... सही वाली गलत थी...
- अकंल मैं... माफ कीजिएगा... आप को समझ ...
"चुप्प.... एक दम चुप्प"अचानक से क्लिनिक में छोटू की आवाज़ गूंजी। खां साहब और जलील दोनों ने उसकी तरफ गर्दन घुमाई। छोटू अपना गोल गोल घूमने वाला स्टूल लेकर आया... खां साहब के पास लगाया। स्टूल पर बैठा, बोला मुंह खोलिए... बोला... निकालनी ये वाली थी... निकाल ये वाली दी...
- अरे बाप रे बाप....कहते हुए जलील भाई ने उंगलियां दातों में दबा ली। खां साहब बोले, यही तो बोल रहा हूं इतनी देर से कि तुमको दाढ़ निकालनी थी ये वाली ससुरे निकाल दी ये वाली...
- अरे ये तो भारी ब्लंडर हो गया... कसम से कह रहे हैं अंकल ऐसा मेरे पूरे करियर में नहीं हुआ... वैसे सच बताएं... जब आप आए तो आपने कहा कि ये वाली निकालनी है... हमने वही निकाल दी...
- अबे तुम डेंटिस्ट हो कि हलवाई कि हमने बताया ये मिठाई निकाल दो... तुमने रैक से वही वाली दे दी... देखना चाहिए न कि कौन सी निकालनी चाहिए
- देखिए... अंकल,... मैं... मैं बहुत शर्मिंदा हूं... गलती तो हुई है... सरासर हुई है... पर पर आप किसी से कहिएगा मत.. मतलब हैं... मतलब.. देखिए बेइज़्ज़ती तो होगी और.. और कुलसुम पर भी बहुत खराब
- इसीलिए मैंने उसे नहीं बताया... चुपचाप यहां आया हूं...
- अरे अंकल कैसे चुकाऊंगा मैं आपका एहसान... बहुत शुक्रिया अंकल... मैं आपका ये एहसान कभी नहीं भूलूंगा.. कभी भी नहीं... अब देखिए.... जो दाढ़ निकालनी थी वो तो मुंह में ही रह गयी... अभी तो एनिस्थिसिया का असर है... तो दर्द नहीं हो रहा... पर जब असर कम होगा... तो दर्द फिर होगा... मैं ऐसा करता हूं... वो वाली भी निकाल देता हूं... और फिर एक टूथ इंप्लांट करवा देता हूं... आजकल ऐसी टेक्नॉलोजी आ गयी है कि एक स्क्रू के ज़रिए टाइट हो जाता है... दर्द नहीं होता बिल्कुल... दोनों तरफ नई दाढ़ लगवा देंगे आपके... आप आराम से रहिएगा इकदम... .अच्छा चलिए अब आप कुर्सी पर बैठ जाइये... दूसरी वाली निकाल देते हैं... बैठिए... छोटू... सब तैयारी करो...
- जी उस्ताद....
- जलील... ये ज़लील हरकत अगर किसी और ने की होती न तो जूते से मारता लेकिन बस चुप हूं कि मैं चाहता हूं कि ये रिश्ता हो जाए...
- मैं... मैं... मैं... समझ रहा हूं.... आप का एहसान है बस... ऐ छोटू.. .सब सामान ले कर आओ इघऱ जल्दी .. आप ऊपर देखिए... हां ऐसे टेक लगा लीजिए... बस बढ़िया...
दो मिनट में छोटू सब सामान जिसमें दांत खीचने के लिए प्लायर... एक लंबी सी नुकली तीली जिसके एक सिरे पर गोल गोल कांच लगा था... वो सब लेकर आ गया... जलील ने सर पर एक कपड़े का बेल्ट सी बांधी जिसमें आगे टॉर्च थी। उसे जलाया और कुर्सी के पीछे खड़े हो गए। मुंह खोलिये अंकल... थोड़ा और... थोड़ा...
- यार छोटू ये... पंखा बंद कर दो... चूं चूं चूं करता है... इससेस ध्यान भटकता है...
- जी उस्ताद...
वो भागकर गया... और वो बाबा आदम के ज़माने वाला पंखा जो जलील के दादा वायररॉय हाउस से लाए थे... उसका स्विच ऑफ कर दिया। पंखा बंद हुआ तो चरर्माते हुए बंद होने लगा.. खां साहब जो पंखे के बिल्कुल नीचे बैठे थे... मुंह खोले हुए सर ऊपर उठाए आंखे बंद किये थे... और दुआ कर रहे थे कि किसी तरह दाढ़ ठीक हो जाए वरना कुलसुम को क्या बताएंगे कि दोनों दाढ़ कैसे निकल गयीं। वो इसी उधेड़बुन में लगे थे। इधर कुर्सी के अगल बगल खड़े जलील और छोटू सर उठाए पंखे को ग़ौर से देख रहे थे क्योंकि आज वो कुछ अलग आवाज़ कर रहा था... चूं चू करते हुए ऐंठ ऐंठ के झटके लेते हुए घूम कर रहा था कि लग रहा था कि कोई मुर्दा वेंटिलेटर पर रख कर उसकी सांस चलाई जा रही है। अब ये दोनों देख ही रहे थे कि तभी पंखे से खटाक की आवाज़ आई। दोनों पीछे हुए और तभी वायसरॉय साहब का वो पंखा जो लोहा-लाट था, पंख समेट नीचे गिरा। और खां साहब एक हाय की आवाज़ के साथ चीखे। अब मंज़र क्या था कि इधर खां साहब पड़े हुई हैं... सर पर गुमड़ निकला हुआ है... दाढ़ जो निकलनी थी..वो नहीं निकली लेकिन आगे तो दो दांत शहीद हो गए थे... वो अंग्रेज़ों के ज़माने वाला पंखा एक तरफ पड़ा था...
कम्बख्त मारे... रुक... कहते हुए खा साहब उठे और जलील और छोटू अपनी क्लिनिक छोड़कर भागने लगे... ज़ाकिर नगर की गलियों ने उस दिन देखा कि खा साहब हाथ में दांत खींचने वाला प्लायर लिए हुए.... छोटू और जलील को पागलों की तरह दौड़ा रहे थे, और वो दोनों नंगे पैर भागे जा रहे थे।
फिर क्या हुआ कुछ पता तो नहीं है लेकिन लोग बताते हैं कि जो कहा जाता है कि एक बार ज़ाकिर नगर गली नंबर नौ के पास एक बूढ़े आदमी ने दो नौजवनों को नाली में घुसा घुसा के, कीचड़ में लिटा लिटा के मारा था... वो दो लोग छोटू और जलील डेंटिस्ट ही थे। ख़ैर, ये बात पक्की नहीं है तो कुछ यकीन से नहीं कह सकता... पर हां, ये मुझे पता है कि इस वाकिये के दो महीने बाद ही खां साहब के घर में शादी की शहनाई बजी... जिसमें कुलसुम दुल्हन बनी थी और दूल्हे थे... नोएडा में बेकरी चलाने वाले समीर भाई साहब... और उस दिन मैंने खां साहब को बहुत दिन बाद मुस्कुराते हुए देखा। ये और बात है कि मुस्कुराहट में उनके आगे के दो दांत गायब थे।
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