किताबः सिंगल मैनः द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ नीतीश कुमार ऑफ बिहार
लेखकः शंकरशन ठाकुर
प्रकाशः हार्पर कॉलिन्स
पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले यह किताब आई थी. लेकिन आज जब बिहार दोबारा अपनी सरकार चुनने की तैयारी कर रहा है तो यह और भी मौजूं हो जाती है. पटना में ही पैदा हुए शंकरशन ठाकुर पहली ही लाइन में लिखते हैं 'पटना इज नॉट अ नाइस प्लेस टु बी.' फिर भी लौटकर पटना जाते हैं और लालू यादव के बाद अब नीतीश कुमार की राजनीतिक बायोग्राफी रचते हैं. बिहार और वहां की सियासत में है ही ऐसा खिंचाव. तभी तो बिहार चुनाव आज राष्ट्रीय चर्चा बना हुआ है.
नीतीश, जिनको नहीं समझ आया मार्क्सवाद
यह किताब न सिर्फ बिहारी पृष्ठभूमि के लोगों के लिए रुचिकर और जानकारी बढ़ाने वाली है, बल्कि बाहर के लोगों को भी प्रदेश के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने को गुनने-समझने में मदद करती है. जाति बिहार का सबसे बड़ा सच है. लेखक से बातचीत में खुद नीतीश कहते हैं, ‘मार्क्स का दास कैपिटल पूरा पढ़ गए और सिर के ऊपर से निकल गया. मार्क्स में कहीं कास्ट का जिक्र ही नहीं है. अटपटा सा लगा. कास्ट हमारी सबसे बड़ी रिएलिटी है.’
शायद इसी सच को ध्यान में रखकर नीतीश कुमार ने अब महागठबंधन किया है. उन्हीं लालू यादव के साथ जिनके लिए 1992 में उन्होंने कह दिया था, ‘अब साथ चल पाना मुश्किल है. मैं अलग होकर ही राजनीति करना उचित समझता हूं.’ उसी कांग्रेस के साथ, जिसके लिए छात्र जीवन में लोहियावादी नीतीश कहा करते थे कि ‘इस पार्टी ने आंख खुलते ही धोखा दिया.’
नीतीश के करियर का इतिहासनामा
शंकरशन 'द टेलीग्राफ' के घुमंतू संपादक (रोविंग एडिटर) हैं. उन्होंने यह किताब लिखने के लिए भी बिहार की सड़कें नापी हैं. नीतीश के घरवालों से लेकर उनके गोपनीय मिस्त्री रामचंद्र बाबू उर्फ आरसीपी तक को कुरेद-कुरेद कर तथ्य उकेरे हैं. आरसीपी यूपी कैडर से उस दौर के आईएएस रहे हैं जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी पीएम बने थे. आरसीपी ने उसी दौरान एक-एक लोकसभा क्षेत्र की मैपिंग, डेमोग्राफिक पैटर्न, जाति का गणित और सियासी तिकड़म की फर्स्ट हैंड ट्रेनिंग ली. इसी ट्रेनिंग ने 2005 में नीतीश को पसमांदा मुसलमानों के वोट दिलाए और उनका राजतिलक हुआ.
इस राजतिलक से पहले नीतीश को क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े, शंकरशन ने इसे तफसील से बताया है. कैसे 1977 में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने वाले नीतीश 11 साल तक हारते गए. इन 11 वर्षों में किस मनोदशा से गुजरे. कैसे विजय कृष्ण ने उन्हें ठेकेदार बनते-बनते रोक लिया. कैसे 1989 में जनता दल के टिकट पर पहली बार लोकसभा चुनाव जीता. लालू के मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के बाद नीतीश कैसे कुर्मी-कोइरी समुदाय के मसीहा हो गए. सरजू राय के साथ लालू के दुर्व्यवहार से चिट्ठियों की राजनीति चली और छात्र जीवन के दो लोहियावादियों के रास्ते कैसे अलग हो गए. कैसे नीतीश का पारिवारिक जीवन राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की आहूति चढ़ गया. कैसे 22 साल की उम्र में ब्याह दिए गए नीतीश ज्यादातर समय अपनी पत्नी मंजू से अलग ही रहे. और आखिर में सीएम आवास की देहरी देखे बिना ही उनकी पत्नी चल बसीं.
'सत्ता हासिल करूंगा, चाहे जैसे'
शंकरशन की इस किताब को कोई भी प्रो-नीतीश कह सकता है. लेकिन वह पूरी किताब में इस चिंता से बेफिक्र दिखते हैं. लालू-राबड़ी के कार्यकाल के लिए शंकरशन खुद अपने भतीजे के मुंह से कहलवाते हैं- ‘ये बिहार है, जंगलराज.’ शंकरशन किताब की शुरुआत उस बिहार के नीतीश की कहानी से करते हैं, जिसकी राजधानी पटना के बाजार में आज भी तेज आवाज में भोजपुरी गाना सुनाई पड़ता है- करेजवा लगाइले बिदेसिया, बिजौली कसल अंगिया...इसके हर पन्ने पर बिहारी आभा दमकती है.
शंकरशन ने नया बिहार का सपना देखने वाले नीतीश के जीवन के हर हिस्से की कहानी 11 हिस्सों में कही है. उस नीतीश की कहानी जो बतौर छात्र नेता कहा करता था- ‘सत्ता प्राप्त करूंगा, बाय हुक ऑर क्रुक. लेकिन सत्ता लेकर अच्छा काम करूंगा.’ उस सांसद नीतीश की कहानी जो घर की मरम्मत के लिए कहने पर बोलता था- 'बिहार बनाना है' के पहले अपना घर ही बना लें. और अंत उस नीतीश पर करते हैं जो जून 2013 में एनडीए से अलग होकर अकेला ही निकल पड़ा था. अपने 9 साल के काम से आए बदलाव के दम से उपजे भरोसे के पथ पर. उस नीतीश पर जिसने एक बार फिर सिंगल मैन बनकर अकेले चलने की ठान ली थी. उस नीतीश पर जिसने अपने उसूलों के लिए नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया.
लालू चिल्लाए- 'सरकार हथियाना चाहता है का नितिशवा'
किताब की सबसे खास बात है इसकी भाषा. जो जैसे कहा गया, उसे वैसे ही कह देने की भाषा, जिस पर बिहार का हस्ताक्षर है, अपील है. जो हर पन्ने, हर किस्से से बांधे रखती है. मसलन- 'नीतीश वॉज ऑलवेज गुस्सैल टाइप'. लालू स्क्रीम्ड- 'निकल बाहर, बाहर निकल साला. सरकार हथियाना चाहता है का नितिशवा. तुम हमको राजपाट सिखाओगे. गवर्नेंस से पावर मिलता है का. पावर वोट बैंक से मिलता है. पीपुल से मिलता है. शेषनवा पगला गया है का. चुनाव करा रहा है के कुंभ. हवा बदल गया है. लोग फ्री घूम रहा है. डर नहीं है लुच्चा-लफंगा, छीना-झपटी का. ट्रैफिक तो तक धिना-धिन तेज है, लोग भी दना-दन मर रहा है एक्सीडेंट में.'
किताब सोचने को मजबूर करती है कि आखिर जिन वजहों से नीतीश ने जिन लोगों का साथ छोड़ा, आज वही लोग उन्हीं वजहों से उनके इर्द-गिर्द कैसे हैं. क्या जाति तोड़ने और सत्ता लेकर अच्छा काम करने की बातें करने वाले नीतीश खुद जाति के चक्रव्यूह में फंस गए हैं? या अब नीतीश लोहियावादी न रहकर खांटी नेता हो गए हैं? या फिर अब भी उनका मकसद बाय हुक ऑर क्रुक, सत्ता हासिल कर फिर से अच्छा काम करना ही है. मकसद जो भी हो, ये पब्लिक है सब जानती है. वही फैसला भी करेगी.