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वर्ष 2025 'साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10' की सिनेमा श्रेणी में शैलेन्द्र पर लिखी पुस्तकों की धूम

'साहित्य तक: बुक कैफे टॉप 10' में वर्ष 2025 की 'सिनेमा' श्रेणी की पुस्तकों में गीतकार शैलेन्द्र के पुस्तकों की धूम है. इस सूची में सिनेमा में भगवान राम, मूक और श्वेत-श्याम सिनेमा का इतिहास, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, अमोल पालेकर और जावेद अख़्तर पर केंद्रित पुस्तकों के अलावा और किन-किन ने अपनी जगह बनाई है. देखें पूरी सूची...

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'साहित्य तक: बुक कैफे टॉप 10' में वर्ष 2025 की 'सिनेमा' श्रेणी की पुस्तकों में गीतकार शैलेन्द्र के पुस्तकों की धूम है. इस सूची में सिनेमा में भगवान राम, मूक और श्वेत-श्याम सिनेमा का इतिहास, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, अमोल पालेकर और जावेद अख़्तर पर केंद्रित पुस्तकों के अलावा और किन-किन ने अपनी जगह बनाई है. देखें पूरी सूची...
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किताबें आपको बताती हैं, जताती हैं, रुलाती हैं. वे भीड़ में तो आपके संग होती ही हैं, आपके अकेलेपन की भी साथी होती हैं. शब्द की दुनिया समृद्ध रहे, आबाद हो, फूले-फले और उम्दा किताबों के संग आप भी हंसें-खिलखिलाएं, इसके लिए इंडिया टुडे समूह ने अपने डिजिटल चैनल 'साहित्य तक' पर वर्ष 2021 में पुस्तक-चर्चा कार्यक्रम 'बुक कैफे' की शुरुआत की थी... आरंभ में सप्ताह में एक साथ पांच पुस्तकों की चर्चा से शुरू यह कार्यक्रम आज अपने वृहत स्वरूप में सर्वप्रिय है.
भारतीय मीडिया जगत में जब 'पुस्तक' चर्चाओं के लिए जगह छीजती जा रही थी, तब 'साहित्य तक' के 'बुक कैफे' में लेखक और पुस्तकों पर आधारित कई कार्यक्रम प्रसारित होते हैं. इनमें 'एक दिन एक किताब' के तहत हर दिन पुस्तक चर्चा; 'नई किताबें' कार्यक्रम में हमें प्राप्त होने वाली हर पुस्तक की जानकारी; 'शब्द-रथी' कार्यक्रम में लेखक से उनकी सद्य: प्रकाशित कृतियों पर बातचीत; और 'बातें-मुलाकातें' कार्यक्रम में किसी वरिष्ठ रचनाकार से उनके जीवनकर्म पर संवाद शामिल है. 
'साहित्य तक' पर हर शाम 4 बजे प्रसारित हो रहे 'बुक कैफे' को प्रकाशकों, रचनाकारों और पाठकों की बेपनाह मुहब्बत मिली है. 'साहित्य तक' ने वर्ष 2021 से 'बुक कैफे टॉप 10' की शृंखला शुरू की तो उद्देश्य यह रहा कि उस वर्ष की विधा विशेष की दस सबसे पठनीय पुस्तकों के बारे में आप अवश्य जानें. 'साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10' की यह शृंखला इसलिए भी अनूठी है कि यह किसी वाद-विवाद से परे सिर्फ संवाद पर विश्वास करती है. इसीलिए हमें साहित्य जगत, प्रकाशन उद्योग और पाठकों का खूब आदर प्राप्त होता रहा है. 
'बुक कैफे' पुस्तकों के प्रति हमारी अटूट प्रतिबद्धता और श्रमसाध्य समर्पण के साथ ही हम पर आपके विश्वास और भरोसे का द्योतक है. बावजूद इसके हम अपनी सीमाओं से भिज्ञ हैं. संभव है कुछ बेहतरीन पुस्तकें हम तक न पहुंची हों, यह भी हो सकता है कुछ श्रेणियों की बेहतरीन पुस्तकों की बहुलता के चलते या समयावधि के चलते चर्चा में शामिल न हो सकी हों... फिर भी हमारा आग्रह है कि इससे हमारे प्रिय दर्शकों, पुस्तक प्रेमी पाठकों के अध्ययन का क्रम अवरुद्ध नहीं होना चाहिए. आप खूब पढ़ें, पढ़ते रहें, किताबें चुनते रहें, यह सूची आपकी पाठ्य रुचि को बढ़ावा दे, आपके पुस्तक संग्रह को समृद्ध करे, यही कोशिश है, यही कामना है. 
पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने की 'साहित्य तक' की कोशिशों को समर्थन, सहयोग और अपनापन देने के लिए आप सभी का आभार.
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साहित्य तक 'बुक कैफे-टॉप 10' वर्ष 2025 की 'सिनेमा' श्रेणी की श्रेष्ठ पुस्तकें हैं ये-
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*  उम्मीदों के गीतकार: शैलेन्द्र | यूनुस ख़ान
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है.
माना अपनी जेब से फ़कीर हैं
फिर भी यारों दिल के हम अमीर हैं
मिटे जो प्यार के लिये वो ज़िन्दगी
जले बहार के लिये वो ज़िन्दगी
किसी को हो न हो हमें तो ऐतबार
जीना इसी का नाम है.... 
बताने की ज़रूरत नहीं है ये गीत किसका है. सिनेमा में रचे, ज़िंदगी में बसे गानों के लिए अगर हम कोई एक नाम लें तो गीतकार सिर्फ एक ही होंगे- शैलेन्द्र. यह पुस्तक शैलेन्द्र के जीवन, गीतों और प्रतिभा के साथ-साथ  फ़िल्मों की संरचना, सिनेमा की दुनिया में रचनात्मकता; और गीतों की निगाह से फ़िल्म और उसकी कथा को देखती और दिखाती है. कवि शैलेन्द्र को गीत विधा का मास्टर बताते हुए लेखक का दावा है कि वे अपने समय तथा समाज को ज़मीन पर उतरकर देखने-समझने वाले ऐसे गीतकार थे, जिन्होंने अपने छोटे-से फ़िल्मी जीवन में भारतीय जन-गण को वह दिया, जो सदियों तक उनके दुःख-सुख के साथ रहने वाला है. शैलेन्द्र के कई गीत और पंक्तियां मुहावरे की तरह हमारी ज़िंदगी में शामिल हैं. लेकिन ये गीत बने कैसे? वजूद में कैसे आए, उनके गायक, कलाकार, संगीतकार कैसे तय हुए, उन्हें पर्दे पर कैसे उतारा गया; और पर्दे के पीछे की कहानियां क्या थीं? उस दौर के सिनेमा का माहौल क्या था; यह किताब एक साथी की तरह पास बैठकर इन सबके बारे में हमें बताती है. 
- प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
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* ज़िंदगी का सफ़र जावेद अख़्तर | नसरीन मुन्नी कबीर 

जीना मुश्किल है कि आसान ज़रा देख तो लो
लोग लगते हैं परेशान ज़रा देख तो लो
ये नया शहर तो है ख़ूब बसाया तुम ने
क्यूँ पुराना हुआ वीरान ज़रा देख तो लो....  लेखक, शायर और गीतकार जावेद अख़्तर के पास केवल शब्दों का ही नहीं जिंदगी का भी जादू है. कबीर से बातचीत में अख़्तर बला की ईमानदारी से अपनी ज़िंदगी के उन उतार-चढ़ावों का ज़िक्र करते हैं जो 'शहर-ए-लखनऊ' में उनके बचपन का हिस्सा रहे हैं. इसके बाद अख़्तर 1960 के उस दौर में जाते हैं, जब वो लेखक बनने की ओर अग्रसर थे और फ़िल्म उद्योग में अपना क़दम बढ़ा रहे थे. आगे एक कामयाब पटकथा लेखक के रूप में उनके अनुभव हैं. इस किताब में अख़्तर अपना दिल टूटने के साथ ही  अपने पति होने, पिता होने और अपनी पारिवारिक ज़िंदगी के साथ उन दोस्तों और सहकर्मियों के बारे में भी बताते हैं जो उनकी निजी और पेशेवर ज़िंदगी का हिस्सा रहे हैं. वे लेखकों और संगीतकारों के लिए संसद में आवाज़ बुलंद करने के साथ  अपने अंतर्मन की उन चुनौतियों-संघर्षों पर भी विचार रखे हैं जो मक़बूलियत और रईसी के साथ आते हैं और जिन पर विजय पाना आसान नहीं होता. मूल रूप से अंग्रेज़ी में Talking Life : Javed Akthar नाम से प्रकाशित इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद आमिर मलिक ने किया है.
- प्रकाशकः मंजुल प्रकाशन
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* हिन्दुस्तानी साइलेंट सिनेमा | धर्मेन्द्र नाथ ओझा

- सिने-जगत में आज हम जहां खड़े हैं, वहां पहुंचने की ढेरों चुनौतियां थीं. सिनेमा जब पहली बार फ्रांस से हिंदुस्तान आया तो हिंदुस्तानी संस्कृति और समाज इसके लिए तैयार नहीं था. फिल्म निर्माण की अपनी चुनौतियां थीं. एक तरफ फिल्मों में स्त्री किरदार निभाने के लिए भारतीय महिलाएं राज़ी नहीं थीं, तो दूसरी तरफ कोई मां अपने बच्चे को फिल्मी पर्दे पर मरते हुए नहीं देख सकती थी. सिनेमा सीखने का कोई स्कूल नहीं था. एक बेहद महंगे और चुनौतीपूर्ण व्यवसाय की बागडोर शुरुआत में अप्रशिक्षित लोगों ने संभाली. नतीजतन फिल्म 'सती सावित्री' की शूटिंग पूरी होने के बाद, जब उसकी रील लन्दन धुलाई के लिए भेजी गयी तो वह पूरी तरह कोरी निकली. उसमें कोई छवि अंकित ही नहीं थी. इसलिए हज़ारों रुपया बर्बाद हो गया. ऐसी तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी कैसे स्वदेशी फिल्मकारों ने सिलसिलेवार जोखिम उठाये और हिंदुस्तानी मिट्टी में भारतीय सिनेमा का बीज बोया, यह पुस्तक उसका एक दस्तावेज है. भारतीय मूक सिनेमा के बहाने यह पुस्तक  हिंदुस्तानी सिनेमा की उस यात्रा को भी बताती है, जिसमें सिनेमा के पहले दिन से एक व्यवसाय के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने की पूरी कहानी शामिल है.
- प्रकाशकः वाणी प्रकाशन
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* एक प्यार का नगमा है लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की संगीत यात्रा | अजय पौंडरिक

एक प्यार का नग़मा है
मौजों की रवानी है
ज़िंदगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है... कुछ गीत से होते हैं, जिनका संगीत दिल दिमाग में गूंजता ही रहता है. संतोष आनंद के लिखे इस गीत को संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने अपनी धुन देकर अमर कर दिया. वर्ष 1955 के आसपास नजर डालें तो वादकों के समूह में दो बालक ऊंचे-ऊंचे स्टूलों पर बैठे तब के नामचीन संगीतकारों के लिए अपने मेंडोलिन और वायलिन बजाते मिलेंगे. इन्हीं बालकोंकी बेजोड़ प्रतिभा और अथक मेहनत ने जल्द ही उन्हें अगली पंक्ति का बेहतरीन संगीतकार बना दिया. पहली ही फ़िल्म से लता, रफी और मुकेश जैसे दिग्गज गायकों का साथ और आशीष पाकर इस जोड़ी ने सफलता की नई परिभाषा गढ़ दी, और अपने वक्त की अनिवार्य मांग बन गई. हिंदी सिनेमा की अब तक की सबसे सुपरहिट जोड़ी 'लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' का उदय स्वतंत्र भारत की सुखद, आश्चर्जनक घटनाओं में से एक है. एक के बाद एक आती ढेरों फ़िल्मों में गुंथे इनके बेशुमार हिट गीतों ने लोकप्रियता का सातवां आसमान ही छू लिया. क्वांटिटी में क्वालिटी बनाए रखकर इन्होंने यह मिथक तोड़ दिया कि क्वालिटी और क्वान्टिटी कभी एक साथ नहीं रह सकते.
- प्रकाशक: ब्लूरोज़ वन प्रकाशन
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* समीर: लफ़्ज़ों के साथ एक सफ़रनामा | डेरेक बोस

मोरा पिया मोसे बोलत नाहिं
द्वार जिया के के खोलत नाहिं
मोरा पिया मोसे बोलत नाहिं..
दर्पण देखूं, रूप निहारूं
और सोलह शृंगार करूँ
फेर नजरिया बैठा बैरी
कैसे अँखियाँ चार करूं
कोई जतन अब, काम ना आवे
उसे कछु सोहत नाहिं
मोरा पिया मोसे...  प्यार भरे गीतों के नगमा-निगार समीर ने लगभग 650 फिल्मों के लिए 4000 से अधिक गाने लिखे हैं. गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज कराने वाले वे दुनिया के पहले गीतकार हैं. सुर साम्रागी, भारत रत्न लता मंगेशकर ने समीर की इस जीवनी के बारे में कहा था, "यह एक ऐसे आदमी का खूबसूरत ज़िंदगीनामा है, जिसने अपने सफ़र की शुरुआत ज़िंदगी की सबसे नीचे की सीढ़ी से की और अपनी मेहनत की बदौलत कामयाबी की बुलंदियों को छुआ...यह एक मुकम्मल ज़िंदगी का सच्चा गीत है." इसी तरह दादा साहब फाल्के पुरस्कार और पद्म विभूषण से सम्मानित आशा भोसले कहती हैं, "मैंने समीर के लिखे अनेक गीतों को अपनी आवाज़ दी है और इस नतीजे पर पहुंची हूं कि वे अपने पिता मशहूर गीतकार स्वर्गीय 'अनजान' के गीतों की विरासत के सबसे योग्य उत्तराधिकारी हैं. मैं उनके लिए प्रार्थनाओं और शुभकामनाओं से भरी हुई हूं." गहरी अन्तर्दृष्टि और महत्त्वपूर्ण जानकारियों से समृद्ध यह किताब शुरू से लेकर आख़िर तक पढ़ी जाने लायक़ है. अंग्रेजी में प्रकाशित इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद प्रभात मिलिंद ने किया है.
- प्रकाशकः वाणी प्रकाशन
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* सजनवा बैरी हो गए हमार | जयसिंह

चिठिया हो तो हर कोई बाँचे
भाग ना बाँचे कोय
करमवा बैरी हो गये हमार
सजनवा बैरी हो गए हमार.
जाए बसे परदेस बलमवा सौतन के भरमाए
ना सन्देस ना कोई खबरिया, रुत आए रुत जाए
ना कोई इस पार हमारा - २
ना कोई उस पार
सजनवा बैरी हो गये हमार!... यह किताब हिंदी सिने जगत के अनूठे गीतकार शैलेंद्र की जिंदगी को एक अलग ढंग से अपने पाठकों के सामने रखती है. इस किताब की भूमिका आज के दौर के बेहतरीन गीतकार इरशाद कामिल ने लिखी है. पुस्तक के बारे में वे लिखते हैं- शैलेंद्र मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू का गीतकार था या ख़ुद सोंधी ख़ुशबू था? वह किसान-मज़दूर का गीतकार था या ख़ुद गीतों का किसान-मज़दूर था? शैलेंद्र के गीतों में आम आदमी की आवाज़ थी या वो ख़ुद आम आदमी था? शैलेंद्र शब्दों में सपने बेचता था या सपनों ने उसे बेच दिया था? इन सवालों का जवाब जो भी हो, हर जवाब यही तय करेगा कि शैलेंद्र शब्दों का शिल्प जानता था, कविता की कला जानता था, भावनाओं के सागर की गहराई जानता था और लोगों के दिलों तक पहुंचने का रास्ता जानता था. ऐसे गीतकार को सिर्फ़ मन से नमन ही किया जा सकता है. इस पुस्तक के लेखक ने शैलेंद्र नाम के व्यक्ति और गीतकार, दोनों तक पहुंचने की कोशिश की है. अखिर गीतकारों की ज़िन्दगी भी मनोरंजक होती है, यक़ीन नहीं तो शैलेंद्र के बारे में पढ़कर देखिए.
- प्रकाशक: वाम प्रकाशन
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* हिन्दी सिनेमा में राम | डॉ सुधीर आज़ाद

- हे रोम रोम मे बसने वाले राम,
जगत के स्वामी, हे अन्तर्यामी,
मैं तुझ से क्या माँगू?
आप का बंधन तोड़ चुकी हूँ ,
तुझ पर सब कुछ छोड़ चुकी हूँ .
नाथ मेरे मैं, क्यूं कुछ सोचूं,
तू जाने तेरा काम.
जगत के स्वामी, हे अन्तर्यामी,
मैं  तुझ से क्या माँगू... राम भारत के आराध्य भर नहीं, बल्कि आदर्श के रूप में जन-जन में व्याप्त हैं. भारत के कोने-कोने में रामायण गाई, पढ़ी, देखी और पूजी जाती है. पर हर जगह यह किसी न किसी रूप में अलग है. सिनेमा ने भी इस विविधता की नदी में खूब हाथ धोए हैं. रामकथा न केवल एक धार्मिक आख्यान है, बल्कि यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक, नैतिक और राष्ट्रीय पहचान का अभिन्न हिस्सा है. आज़ाद की पुस्तक रामकथा के सिनेमाई चित्रण का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है. लेखक ने इस पुस्तक में राम के जीवन और उनके आदर्शों को सिनेमा में निरंतर बदलते रूपों और प्रभावों के माध्यम से उजागर किया है. हिन्दी सिनेमा के प्रारंभ से लेकर अब तक रामकथा की प्रासंगिकता बनी है. मूक फिल्म 'लंका दहन' से लेकर आधुनिक तकनीकों द्वारा बनी 'आदि पुरुष' तक, रामकथा ने भारतीय सिनेमा में अपनी उपस्थिति बनाए रखी है. आज के वैश्वीकरण के दौर में जब भारतीय सिनेमा ने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है, तब रामकथा पर आधारित फिल्में न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करती हैं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना को भी जागृत करती हैं.
- प्रकाशक: श्रीसाहित्य प्रकाशन
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* Romancing The 80s: Snapshots From A Cherished Decade | Seema Sethi

- 1980 का दशक याद करने बैठें तो अधिकतर लोगों के दिमाग़ में जो पहला चित्र आता है वो रामानंद सागर कृत रामायण से ज़रूर जुड़ा होता है. जो लोग इस दशक में बड़े हुए उनके लिए रामायण हमेशा ही एक भावनात्मक पहचान रही है. 80 का दशक भारत के सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में एक विशेष स्थान रखता है. चाहे वह एशियाई खेलों की मेजबानी हो, भारत की विश्व कप क्रिकेट जीत, इंदिरा गांधी की हत्या, या बाबरी मस्जिद/राम जन्मभूमि और मंडल आंदोलन यह दशक लेखिका की सामूहिक चेतना में अंकित है. लेखिका 80 के दशक के उन पहलुओं की पड़ताल करती हैं जो उस युग का एक अमिट हिस्सा थे और शायद अब हमेशा के लिए खो गए हैं. यह चित्रों से भरी एक अनोखी कॉफी टेबल बुक है, तो आपको उस दौर में ले जाती है, जब जिंदगियां श्वेत-श्याम से अचानक रंगीन होने लगी थीं.
- प्रकाशक: Om Books International
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* अमानत एक स्मृति कोष | अमोल पालेकर

- कुछ लोगों का जीवन किसी रोमांचक गाथा सरीखा होता है. उसमें भी व्यक्ति स्टार हो, जीवन के बहुविध क्षेत्र में उसकी पैठ हो, तो उसके जीवन की अबूझ परतें तब तक नहीं खुलतीं, जब तक वह खुद उन्हें बयान न कर दे. जानेमाने रंगकर्मी, अभिनेता, कलाकार, निर्देशक अमोल पालेकर का संस्मरण मराठी में 'एवज: एक स्मृतिबंध', अंग्रेजी में 'Viewfinder: A Memoir' और हिंदी में 'अमानत: एक स्मृतिकोष' नाम से प्रकाशित हुआ है. पालेकर खुद को संयोग से अभिनेता, पसंद से निर्देशक और स्वभाव से चित्रकार कहते हैं. यह पुस्तक हमारे दौर के अलहदा कलाकार और अनूठे इनसान पालेकर का बेबाक संस्मरण है, जिसमें रंगमंच, अभिनय, निर्देशन और निर्माण, हिंदी, मराठी और बंगाली सिनेमा में अभिनय का उनका करियर और फिल्मों के निर्देशक के रूप में उनका काम विस्तार से शामिल है. परदे पर आम आदमी के प्रतिनिधि के रूप में व्यापक सराहना और राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित पालेकर अपनी जीवन कहानी के माध्यम से यह भी बताते हैं कि सत्तर के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक सिनेमा और थिएटर कैसे विकसित हुए और इसी अवधि में टेलीविजन ने कैसे बड़ी छलांग लगाई.
- प्रकाशक: वेस्टलैंड बुक्स
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* शैलेन्द्र: हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में | ज़ाहिद ख़ान

हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है!
तुमने मांगें ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा,
छीना हमसे सस्ता अनाज, तुम छंटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है,
हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है!... एक दौर था जब शैलेंद्र की लिखी यह कविता मजदूरों, किसानों के अधिकार का सामूहिक गान बन गयी थी. पर नारे के रूप में 'हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है' इतना चला कि लोग यह भूल ही गए कि शैलेन्द्र की कलम से निकले गीत में मूल रूप में 'हड़ताल' शब्द है ना कि 'संघर्ष'. पर जो चल गया सो चल गया. यह और बात है कि इस एक शब्द के बदलने से इसके भावों में बहुत कुछ नहीं बदला. इश्क़, इंक़लाब और इंसानियत के कवि शैलेन्द्र के जीवन और रचनाओं पर आधारित ख़ान की यह पुस्तक बताती है कि हिंदी सिनेमा के इस महान गीतकार ने अपनी कई कविताओं में नारे भी लिखे और एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कवि के रूप में अपनी स्थिति से कभी समझौता नहीं किया. शैलेन्द्र ने आम-आदमी की ज़बान में प्रेम, प्रकृति और मनुष्यता के गीत तो लिखे ही, यह उनके शब्दों की ही ताकत है कि अपनी मृत्यु के अरसे बाद भी वे भारतीयों के मानस में जिंदा हैं, और युवा कवियों, लेखकों और आलोचकों ने मनुष्यता की रक्षा के गीत रचने वाले इस गीतकार को नए सिरे से याद करना शुरू किया है.
- प्रकाशकः उद्भावना प्रकाशन
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'साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10' के वर्ष 2025 की 'सिनेमा' सूची में शामिल सभी रचनाकारों, लेखकों, अनुवादकों प्रकाशकों को हार्दिक बधाई! साहित्य और पुस्तक संस्कृति के विकास की यह यात्रा आने वाले वर्षों में भी आपके संग-साथ बनी रहे. 2026 शुभ हो. पाठकों का प्यार बना रहे.

 

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