उर्दू, फारसी और हिंदुस्तानी ज़ुबान में कोई जना ऐसा भी है क्या, जिसने हर्फ़ पढ़े हों और मिर्ज़ा ग़ालिब को न जानता हो. मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा में हुआ था. उन का पूरा नाम असदुल्ला खां ग़ालिब था. आगरा में सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में वह पले बढ़े. उनके चाचा ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में थे. उन्हीं की पेंशन से पूरे परिवार का गुजरबसर होता था. पर उस जमाने में पेंशन बेहद कम हुआ करती थी, सो बचपन किल्लत में शुरू क्या हुआ, ताउम्र बना ही रहा.
हर एक बात पे कहते हो तुम, कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है...
उन्होंने फारसी, उर्दू और अरबी भाषा की पढ़ाई की, और बेहद कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया. कभी-कभी वह उपनाम में 'ग़ालिब' की जगह 'असद' भी लिखते थे. 12 साल की उम्र तक आते-आते से उर्दू और फ़ारसी ग़ज़ल में उनका सिक्का चलना शुरू हो गया. शोहरत मिली तो जल्दी ही शादी हो गयी. छोटी उम्र में शादी से इश्क़-ए-हक़ीक़ी और इश्क़-ए-मिज़ाजी दोनों में महारथ हासिल हो गई.
ये इश्क नहीं आसां, इतना ही समझ लीजै,
इक आग का दरिया है, और डूबके जाना है...
पर उल्फत का यह दौर ज्यादा दिन नहीं चला. इश्क़-ए-मिज़ाजी पर इश्क़-ए-हक़ीक़ी भारी पड़ी. अभाव और दुःख इस नायाब शायर को मांज रहे थे. उनकी गज़लें समय और सीमा के पार जा रही थीं. एक से बढ़ कर एक. बानगी देखेः
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमां, लेकिन फिर भी कम निकले...
निकलना ख़ुल्द से आदम का, सुनते आए थे लेकिन,
बहुत बेआबरू हो कर, तेरे कूचे से हम निकले...
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़, जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं, जिस क़ाफ़िर पे दम निकले...
ग़ालिब से पहले और उनके बाद कौन लिख पाया ऐसा. कहा जाता है कि इसी दौर में उनके सात बच्चे हुए, लेकिन उनमें से कोई भी जिंदा नहीं रहा सका. इस गम से उबरने के लिए उन्होंने शराब, शायरी का दामन थाम लिया. हालांकि गम और अभाव के बीच भी मिर्ज़ा ग़ालिब, जो रचते उसका कोई जोड़ न होता. वह अपने बारे में खुद कहा करते थे -
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज-ए-बयां और...
इतिहास को देखें तो मिर्ज़ा ग़ालिब अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार के प्रमुख शायरों में से एक थे. पर मुग़लिया सल्तनत का वह अखिरी दौर था, खुद में इतना जर्ज़र और बेज़ार कि ग़ालिब को सहारा क्या मिलता? उनकी माली हालत में कोई बहुत इजाफा न हुआ.
मत पूछ कि क्या हाल है, मेरा तेरे पीछे,
तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे...
'एक दिन सब कुछ छोड़कर चला जाऊंगा' कह चले गए नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती
हालांकि बादशाह ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा और बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा का खिताब भी मिला. ग़ालिब ने इसी के बाद अपने नाम के साथ मिर्ज़ा जोड़ लिया, पर वह कहते थे –
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
मिर्ज़ा ग़ालिब को गोश्त, शराब और जुए का शौक था. शराब और जुआ जैसी बुरी आदतें जिंदगी भर उनका पीछा नहीं छोड़ पाईं. शायद यही वह वजह थी कि बेहतरीन शायरी करने के बावजूद अपने जीवन काल में शाही सम्मान के बावजूद उन्हें लोगों के बीच वह प्यार नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे.
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता...
बावजूद इसके कि बादशाह से मिले सम्मान की वजह से उनकी गिनती दिल्ली के मशहूर लोगों में होने लगी थी. ग़ालिब ने अपनी बुरी आदतों खासकर शराबखोरी का जिक्र कुछ इस अंदाज में किया-
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
मिर्ज़ा ग़ालिब पर एक किताब आयी तो उसमें दावा किया गया था कि मिर्ज़ा पीने के इतने शौकीन थे कि कोई रात ऐसी न थी, जिसमें उन्होंने पीया न हो. हालांकि बाद में नशाखोरी बढ़ी और लानत-मलानत हुई तो उन्होंने सोते समय पीने की कसम खाई और उसकी मात्रा भी तय कर दी. वे उससे ज्यादा फिर कभी नहीं लेते थे, पर क्वालिटी उम्दा हो गई. किताब का दावा था कि मिर्ज़ा कॉस्टेलीन और ओल्ड टॉम जैसी अंग्रेजी शराब पीने के शौकीन थे. और इस हालात में भी वह लिखते तो क्या उम्दा लिखते.
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक...
हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक...
मिर्ज़ा ग़ालिब ने अनगिनत गजलें लिखीं. उन्होंने ज़िंदगी को बेहद करीब से देखा और अलमस्ती में जिया. उनकी गज़लें गहरा अर्थ लिए होतीं.
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल,
जो आंख ही से न टपका, तो वो लहू क्या है...
फेक इतिहास का पर्दाफाश करने की कोशिश है ये किताब
ग़ालिब ने चिट्ठियां भी लिखीं, जिन्हें उर्दू लेखन का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है. हालांकि ये चिट्ठियां उनके जीवनकाल में कहीं भी छपी नहीं. हिंदुस्तानी जमीन पर जन्में इस नायाब शार की मौत 15 फरवरी, 1869 को हो गई. उनका मकबरा दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन इलाके में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास बना. पर ग़ालिब कहीं गए नहीं, वहीं से आज भी हमारी रगों में अपनी शायरी के साथ दौड़ते रहते हैं.