वह कौन है जो आपके घर बनाता है? गर्मी, ठंड, चौमास, बरसात; हर मौसम की तपिश झेलता. प्रकृति के हर ताप को धता बताता, वह श्रमिक ही तो है. मजदूर शब्द सुनकर जो छवि उभरती है वह पीड़ा और पसीने की छवि है.
1 मई को मजदूर दिवस के बहाने यह विचारने की फुरसत भी निकालिए कि जो आपके घर बना रहे हैं, उनके घर कैसे हैं? जीडीपी के आंकड़े और इमारतों की ऊंचाई के साथ उनका जीवन-स्तर ऊपर क्यों नहीं जा रहा? मजदूर होने का दर्द मजबूर होने की बेबसी से किस तरह अलग है? निराला की एक कविता और फैज़ की ये ग़ज़ल पढ़िए और विचारिए.
1. वह तोड़ती पत्थर (सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला')
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
'मैं तोड़ती पत्थर।'
2. हम मेहनतकश जब अपना हिस्सा मांगेंगे (फैज अहमद फैज)
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे.
वो सेठ व्यापारी रजवाड़े, दस लाख तो हम हैं दस करोड
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे.
जो खून बहे जो बाग उजड़े जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे.
जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जाएंगे,
हम मेहनत से उपजाएंगे, बस बांट बराबर खाएंगे.
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.