चीन से फैले कोरोना वायरस ने धीरे-धीरे पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया है. चीन, इटली व ईरान में कोरोना से तबाही मची है व विश्व के तमाम देशों के साथ अमेरिका जैसा बेहतरीन चिकित्सकीय संसाधनों वाला देश भी अब इसकी गिरफ्त में है. लोग दम तोड़ रहे हैं. इस वायरस से संक्रमित होने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है और इसी रफ्तार से मौतों का भी आंकड़ा निरंतर बढ़ रहा है.
भारत में भी कोरोनाग्रस्त लोगों की संख्या सात सौ से ज्यादा हो चुकी है. पूरे देश में लॉक डाउन है. लोगों के काम धंधे छूट गए हैं. कल-कारखाने बंद हैं. आवश्यक वस्तुओं के अलावा सारे प्रतिष्ठानों में बंदी है. काम के अभाव में मजदूर दूर-दूर से भूखे-प्यासे अपने घरों को लौट रहे हैं. दुनिया भर में मंदी की यह जबर्दस्त मार है जिससे उबरना आसान नहीं.
विकास, आवागमन, कामकाज की सारी गति अवरुद्ध है. आधुनिक मानव इतिहास की सबसे बड़ी विभिषिकाओं में से एक इस 'कोरोना युग' पर जाने-माने आलोचक व कवि डॉ ओम निश्चल ने कई गीत, गजल और अवधी गीत भेजे हैं. साहित्य आजतक पर पढ़िए और साहित्य की संवेदनाभरी निगाहों व भावों से देखिए, समझिए इस आपदा को.
कोरोना गीत: 1 कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के
घुटने टूटे सुपरशक्ति की तानाशाही के कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.
फंसी हुई दुनिया कैसे अपने ही पांसों में एक वायरस टहल रहा आदम की सांसों में अवरोधक लग गए पांव में आवाजाही के. कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.
सुनते हैं यमराज कहां कब कोई भी बिनती रोज यहां गिरती लाशों की कौन करे गिनती दिखते हैं ताबूत अनगिनत यहां उगाही के कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.
कहां गया ईश्वर बहुव्यापी जग का विषपायी एक वायरस ने दुनिया को किया धराशायी कुछ दिन में तो लोग मिलेंगे नहीं गवाही के. कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.
वल्गाएं थम गयीं प्रगति की संध्या वेला है यह दुनिया लगती जैसे दो दिन का मेला है कहां गए वे दिन पहले-से सरितप्रवाही के. कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.
रेलें ठप, ठप हुई हवाई सारी यात्राएं घर में कैद सुनाएं कैसे अपनी पीड़ाएं तेल कान में डाल सो रही नौकरशाही के. कितने खौफ़नाक मंज़र हैं यहां तबाही के.
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कोरोना गीत: 2 पहले सी अब दिखती नहीं वे रौनकें बाजार की
पहले सी अब दिखती नहीं हैं रौनकें बाजार की.
हर ओर सन्नाटा यहां हर रोज बढ़ते फासले हर रोज मौतें बढ़ रहीं हर ओर दुख के काफिले
कैसी महामारी चली धुन थम गयी संसार की.
वे वक्त के मजदूर हैं पर वक्त से मजबूर हैं ताले लगे, रस्ते रुके जाएं कहां वे दूर हैं
सुनता कहां मालिक भला चीखें यहां लाचार की.
है पीठ पर गठरी लदी औ कांध पर बच्चे लदे जाना है मीलों दूर तक पर प्राण फंदों में फँदे
है जान सांसत में पड़ी खुद ही यहां सरकार की.
कैसा भयंकर वायरस ! जीवन हुआ इससे विरस हर शख़्स संक्रामक हुआ वर्जित हुआ उसका परस
बस मास्क में महफूज है सांसें सकल संसार की.
संदिग्ध है हर छींक तक संगीन है वातावरण अस्पृश्यता ने हर लिया है सभ्यता का आवरण
चूलें एकाएक हिल उठीं अस्तित्व के दीवार की .
है चीन से फैला जहर ईरान पर बरपा कहर इटली बना शमशान है बज उठा यू.एस में बजर
संभावनाएं क्षीण हैं इस व्याधि के उपचार की.
ठप हुए उत्पादन सभी चुक रहे संसाधन सभी शेयर सभी लुढ़के पड़े बेअसर आवाहन सभी
मंदी ने तोड़ी है कमर दुनिया के कारोबार की. ***
कोरोना गीत: 3 चारो ओर महामारी है
किसका है यह पाप अधम जीवन ज्यों हुआ अशुभकारी है. चारो ओर महामारी है.
देखो सब पैगंबर चुप हैं एक वायरस घूम रहा है फैल रहा है महासंक्रमण जिस जिसको यह चूम रहा है अभी पराजित नहीं समर में युद्ध अभी इससे जारी है. चारो ओर महामारी है.
कैसा खौफ़नाक मंजर है गलियां सूनी सड़कें सूनी रमे हुए हैं अपने ही घर खुद ही खुद सब लगाके धूनी दूकानों पर माल नदारद कैसी तो यह लाचारी है . चारो ओर महामारी है.
किस प्रयोगशाला से निकले ये कद्दावर जैव वायरस चूस रहे हैं इंसानों का अब तक का संचित जीवनरस मास्क पहन कर घूम रहे यम देखो किस-किस की बारी है. चारो ओर महामारी है.
अस्त्र शस्त्र के बिना निरंतर जारी अब यह विश्वयुद्ध है जो वरदान हुआ करता था अब वह ही विज्ञान क्रुद्ध है
कर लो जो बचाव संभव है इसकी मुद्रा संहारी है . चारो ओर महामारी है. ***
कोरोना गीत: 4 दुनिया न बन जाए कहीं बस आज की ताज़ा खबर
कैसा जिरहबख्तर पहन फैला कोरोना का कहर डर है बहुत आठो पहर.
खामोशियां हर ओर हैं बीमारियों का शोर है चेहरे यहां दिखते नहीं यों मास्कमय यह भोर है
किसने यहां घोला जहर डर है बहुत आठो पहर.
इसका न कोई रूप है इसका न कुछ आकार है यह है विकारों से भरा यह विषों का आगार है
सॉंसें हैं जैसे लीज पर जीवन है जैसे दर-ब-दर.
रेलें नहीं मेले नहीं रिक्शे नहीं ठेले नहीं जीवन की रेलपमेल में ऐसे तो पल झेले नहीं
जीवन की गति अवरुद्ध है गतिरुद्ध है सारा शहर.
कस्बे सभी सूबे सभी डूबे हैं मंसूबे सभी कैसी लहर यह बेरहम सपने मगर ऊबे नहीं
है ग़ज़ल-सी यह ज़िन्दगी खो गयी है जिसकी बहर.
कैसा समय कैसी सदी ! हर पल यहां पर त्रासदी इक वायरस के कोप से थम-सी गयी जीवन-नदी दुनिया न बन जाए कहीं बस आज की ताज़ा खबर .
फैला कोरोना का कहर डर है बहुत आठो पहर. ***
कोरोना गीत: 5 इंसानों की दुनिया कितनी नश्वर है!!
मृत्यु उपत्यका कहीं न बन जाए यह देश. घूम रहा है महासंक्रमण बदले भेष.
इसके पाँव हजारों, लाखों बाहें हैं इसकी मंजिल एक, हजारों राहें हैं इसके मंसूबे हिंसक मन में विद्वेष.
हाथ मिला ले किसे पकड़ ले नहीं पता किसे बुखार जुकाम जकड़ ले नहीं पता इसके लिए संत आखिर क्या औ दरवेश!
महासंक्रमण की गति कितनी सत्वर है इंसानों की दुनिया कितनी नश्वर है नही मानता यह हिटलर का भी आदेश.
रहो अकेले घर में अपनी मस्ती से दूर रहो पर भीड़ भाड़ की बस्ती से अगर बचोगे तभी बचेगा अपना देश. घूम रहा है महा संक्रमण बदले भेष. ***
कोरोना गीत: 6 सन्नाटे का यह छंद नया-नया सा है
यह महानगर की सुबह तनिक अलसाई सी खाली सड़कों पर डोल रही तनहाई सी फिर पेड़ों की शाखों पर कोयल कुहुक उठी कुदरत भी जैसे इठलाकर खुद चहक उठी.
कोलाहल जीवन का कुछ थमा-थमा सा है सन्नाटे का यह छंद नया-नया सा है सुन पड़ती ऐसे में आवाजें साफ साफ वह शोरीलापन दिन का थमा-थमा सा है यह कोविद से लड़ने की इकजुट तैयारी यह महासंक्रमण से बचने की हुशियारी सांसें ये यम की भेंट कहीं न चढ़ जाएं जीवन की टहनी पर उम्मीदें पुलक उठीं.
यह कुदरत जिस पर नित प्रहार होते आए नदियों तालों पर्वत पर पूँजी के साए ये वन्य जन्तु हैं भक्ष्य बने जब से, तब से दुनिया पर महा संक्रमण के बादल छाए है महाप्रलय की वेला जैसै घिर आई उच्छल सागर में डूब रहा ज्यों नौकाई फरियाद सतत् जीने की कातर ख्वाहिश की आंखों से टप-टप आंसू जैसी ढुलक उठी. ***
कोरोना ग़ज़ल: 7 यही संकट रहा तो
यही संकट रहा तो ज़िन्दगी के दुख कौन बांटेगा अकेलेपन से लड़ते आदमी के दुख कौन बांटेगा.
जहां पर दूरियां दिल में बहुत पहले से हों कायम वहां पर पास रह कर आदमी के दुख कौन बांटेगा.
अभी तो हैं हवाओं की नमी में वायरस जिन्दा अभी तो गले मिल कर भाइयों के दुख कौन बांटेगा.
यहां पर बंद सब कुछ काम हाथों में नहीं कोई यहां भूखे औ प्यासे आदमी के दुख कौन बांटेगा.
अभी सब 'अपने अपने अजनबी' से नजर आते हैं अभी अपनाइय्यत के साथ सुख-दुख कौन बांटेगा.
अकेला लड़ रहा है वायरस से वह अकेले में कि इस तनहाई में बीमार का दुख कौन बांटेगा .
के जिस दुनिया में होंगी वायरस की खेतियां उसमें तड़प कर मरने वालों के भला दुख कौन बांटेगा.
ये दुनिया क्या इसी दिन के लिए हमने बनाई है न होगा आदमी तो आदमी के दुख कौन बांटेगा. ***
कोरोना अवधी गीतः 8 भवा लॉकडाउन भवा लॉकडाउन
कोरोना के डर से भवा लॉकडाउन
पता लाग कौनौ बीमारी है संचरी दवा जेकै अब्बौ कतौं नाय निकरी ई मनइन से मनइन के बीचे मा फैले कोरोना से दुनिया है बेहाल भइले कैसे निकरिबै मजूरी के खातिर. भवा लॉक डाउन भवा लॉक डाउन.
कल कारखानन का सबका है मारिस गरीबन के किस्मत पै डाका है डारिस ई सलकन्ते केहुका रहय नाही देये नवा साल मा इहै तोहफा ई देये छुआछूत फिरि से है सबका नचाइस भवा लॉक डाउन भवा लॉकडाउन.
जेनके रहा पइसा ओनहीं के राशन मगर खाली पेटे चले नाही भाषण बिना कामधंधा के नाही गुजारा नही रोजमजुरिया कै कौनौ सहारा केतनौ कै ई चूल्हा चौका बुझाइस. भवा लॉक डाउन भवा लॉक डाउन.
सड़की पै निकरी तौ बरसावैं लाठी मगर का करैं जेकेरे लोटा न टाठी पोटली उठायेन गदेलन का लइके सबेरे चलेन गोड़ देउतन का धइके उबारैं प्रभू औ हरैं सबकै पीरा. भवा लॉक डाउन भवा लॉक डाउन.
इहै अब अरज बा पहुंच जाई घर मा गुजारा न होए हियां भइया डर मा ई परदेस मा केहू तोहका न बूझे बिमरिया हंकरिया मा केहू न पूछे बचब जौ कोरोना से भुखिया से मरबै. भवा लॉक डाउन भवा लॉक डाउन. ***
जड़िया से उजड़े जमिनिया से उजड़े सगरा सहरवा नगरिया से उजड़े गरीबी कै मार भइया कब्बौ न भूले कोरोना कै मार भइया कब्बौ न भूले.
कतहुं काम धंधा न रोटी औ पानी मिली माटी मा भइया सारी जवानी बिना काम के केसे पइसा जुहाई ई चूल्हा जले कइसे केका बताई बिना घर केरावा कहॉं से जुटौबै ई राशन औ पानी कहॉं से जुहौबै कही का ? मुसीबत ई कब्बौ न भूले कोरोना कै मार भइया कब्बौ न भूले.
मजूरी धतूरी इहै हम करी थै रोजाना कमाई से खर्चा भरी थै मगर जब से बंदी भइस है सहर मा न पइसा न कौड़ी मजूरी सहर मा कहॉं से भला पेट बच्चन कै भरबै कहॉं से उधारी दुकानी कै भरबै ई धिक्कार दुत्कार कब्बौ न भूले कोरोना कै मार भइया कब्बौ न भूले.
बतावा तूहीं अब कहां भागि जाई भला कौनी बिल मा कहां हम लुकाई गउना मा एकै खबर से जब से पाईं चिंता मा बाटी अमेठी मा माई इहै सोचि के हम चले बिन सवारी कबौ तौ पहुंच जाबै घर औ दुवारी लचारी कै ई मार कब्बौ न भूले कोरोना कै मार भइया कब्बौ न भूले.
बहुत जोर के भइया झटका लगा बा न टेंटे मा पइसा न रोकड़ जमा बा कहां जाइ लंगर सहर मा टटोली सबै ठांव देखित है ठेला और ठेली कइसै रही भवा देसवा बिराना अकेलै मा लागइ सहर जेलखाना अकेलै कै ई मार कब्बौ न भूले कोरोना कै मार भइया कब्बौ न भूले.
#हिंदी के सुपरिचित कवि-आलोचक और भाषाविद् डॉ ओम निश्चल विभिन्न विधाओं- कविता, आलोचना, संस्मरण, निबंध, कोश व भाषा-चिंतन में तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं. वे कई सम्मानों और पुरस्कारों से विभूषित हैं तथा विश्व हिंदी सम्मेलन, मारीशस एवं साहित्य अकादेमी की ओर से दक्षिण अफ्रीका के कई शहरों में आयोजित साहित्यिक कार्यक्रमों में सहभागिता कर चुके हैं. संपर्क: डॉ ओम निश्चल, जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059. फोनः 9810042770