
साल 2006 में, जब मैं दस साल की थी और छठी क्लास में पढ़ती थी. तब दिल्ली के सबसे व्यस्त बाज़ारों में से एक सरोजिनी नगर के बीचों-बीच रहती थी. उस ज़माने में यह एक पारिवारिक बाज़ार था, जहां कपड़े और जूते से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स, फ़र्नीचर और स्टेशनरी तक, हर चीज़ की चहल-पहल रहती थी. मैं अक्सर दूध, ब्रेड, अंडे या सब्ज़ियां खरीदने के लिए तीन मंज़िल नीचे उतरती थी.
सामान लेने घर से बाहर जाने का मौका
जब भी मेहमान बिना बताए आ जाते, मां चुपचाप मुझे ज़रूरी सामान लाने के लिए 50 रुपये का नोट थमा देतीं. एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह, जिसे घर की चारदीवारी से बाहर इन छोटी-छोटी छुट्टियों में मज़ा आता था, क्योंकि तब फ़ोन पर चिपके रहने की ज़रूरत नहीं थी, मैं भीड़-भाड़ वाली गलियों से गुज़रती, दुकानों और दीवारों पर लटके 'सरोजिनी के कपड़े' पर ध्यान दिए बिना, संतोष डेयरी की तरफ़ भागती.
मेरे कुछ बोलने से पहले ही दुकानदार अंदाज़ा लगा लेता था कि मैं एक लीटर मदर डेयरी टोन्ड दूध और 250 ग्राम पनीर लेने आई हूं. दूसरे दिनों में, मैं पहले जाकर कहती, 'भैया, एक किलो टोन्ड', तो मुझे टोक दिया जाता कि दूध लीटर में नापा जाता है, किलो में नहीं. 'अरे हां, सॉरी भैया', मैं शर्म से मुस्कुराते हुए बुदबुदाती.
एक छोटी सी जीत का एहसास!
दूसरे कामों में टमाटर लाना भी शामिल था. पहचाने जाने की, पहचाने जाने की खुशी! कुछ शामों में, मैं तराजू के स्टील के बर्तन में ठीक एक किलो टमाटर भर लेती थी. एक बार जब विक्रेता एक किलो का वज़न दूसरी तरफ रख देता, तो कोई बदलाव करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, न टमाटर जोड़ने की, न हटाने की. ओह, यह कैसी जीत का एहसास था!

बाज़ार की इन छोटी-छोटी यात्राओं ने मुझे उस समय जितना सोचा था, उससे कहीं ज़्यादा सिखाया. तेज़ दिमागी गणित, अजनबियों से बातचीत, दुकान बंद होने पर बैकअप प्लानिंग, कितना कुछ अनजाने में सीखा!
यहां तक कि बातचीत का स्किल भी उस मुफ्त धनिया-मिर्ची से आया है!
दिल्ली-एनसीआर में कई घरों में घूमते हुए भी, किसी भी नई जगह को घर जैसा महसूस कराने वाली चीज़ थी, किसी स्थानीय किराना स्टोर को देखना और धीरे-धीरे वहां एक जाना-पहचाना चेहरा बन जाना. खासकर मेरी मां के लिए, जो संयुक्त परिवार से एकल परिवार में आ गई थीं. बाज़ार में होने वाली ये छोटी-मोटी बातचीत उनके लिए सिर्फ़ कामों से कहीं बढ़कर थी.
होम डिलीवरी सर्विस की एंट्री
फिर ब्लिंकिट, ज़ेप्टो, स्विगी, इंस्टामार्ट आए, 10 मिनट में डिलीवरी और एक क्लिक की सुविधा देने वाले. धीरे-धीरे और चुपचाप, उन्होंने इन छोटी-छोटी रस्मों की जगह लेना शुरू कर दिया. और जहां एक ओर उन्होंने चीज़ों को आसान बनाया, वहीं दूसरी ओर कई छिपी हुई चीजों को अपने साथ ले भी गए.
यह 2025 है. अब 9 से 5 वाली कोई बात नहीं रही. काम तो हर समय चलता रहता है, और ऑफिस के बाद भी, हममें से ज़्यादातर लोग अभी भी मैसेज और ईमेल का जवाब दे रहे होते हैं. सिर्फ़ एक ट्रे अंडे के लिए कौन नीचे जाना चाहेगा? खैर, मैं तो अभी भी जाती हूं.

मुझे काम के बाद डिनर रोल बनाने के लिए राइस पेपर और ताजी सब्ज़ियां लाना बहुत पसंद है. जब भी मौका मिलता है, मैं दूध, होली के रंग, या फिर शिवरात्रि की सामग्री भी स्थानीय दुकान से ले लेती हूं. लेकिन मेरी मां? वो तो पूरी तरह से बदल चुकी हैं. करवा चौथ पर भी, उन्होंने पहले से तैयार थाली मंगवाई, सिंदूर, चूड़ियां, बिंदी वगैरह, सब कुछ मिनटों में पहुंच गया. इसमें कोई शक नहीं कि ये कारगर है. लेकिन कभी-कभी मैं सोचती हूं कि पापा के साथ उन छोटे-छोटे सैर-सपाटे का क्या हुआ, जब वो हर चीज़ बड़ी सावधानी से चुनकर लाते थे?
अब उनका दिन ज़ेप्टो, ब्लिंकिट या इंस्टामार्ट पर कीमतों की तुलना करने से शुरू होता है. जो भी सबसे अच्छा सौदा देता है, उसे ऑर्डर मिल जाता है. शाम को, अगर घर की मेड किसी सामान के गुम होने का ज़िक्र करती है, तो वह ऑर्डर देने के लिए पहले से ही अपना फ़ोन उठा लेती हैं.
पहले, किराने का सामान लाने के लिए भागदौड़ छोटी-छोटी सैर में बदल जाती थीं. इससे उनका मूड अच्छा होता था, उन्हें कदम बढ़ाने में मदद मिलती थी (डॉक्टर के मुताबिक उन्हें बहुत ज़्यादा कदमों की ज़रूरत है) और वह आस-पड़ोस से जुड़ जाती थीं. वह गैस स्टोव ठीक करवाने, नया सूट ढूंढ़ने, या ताज़ा नमकीन खाने के लिए रुकती थीं. कोई कदम गिनने का टारगेट रखता है?
होम डिलीवरी पर निर्भरता की कीमत
सब्ज़ीवाला न सिर्फ़ उन्हें सबसे ताज़ा सब्ज़ियां चुनने में मदद करता था, बल्कि जब भी वह उनके लिए ख़ास तौर पर कटहल लाता था, तो उसे गर्व से बताता था. सर्दियों में, वह सरसों के साग के गुच्छे हाथ से चुनती और उन्हें वहीं कटवा देती. इसी दौरान, उनकी मुलाक़ात किसी बूढ़ी आंटी से भी हो जाती और वे सूट की सिलाई के बढ़े हुए दामों से लेकर, स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं और कॉलोनी के किसी नए कांड तक, हर तरह की बातें करतीं. ये छोटी-छोटी बातें दिन के शांत माहौल को भर देतीं. ये सुनिश्चित करतीं कि अकेलापन न आए.
लेकिन बात सिर्फ़ उनकी नहीं है. हममें से कई लोग इसी दिशा में बढ़ रहे हैं. ऐप्स पर ज़्यादा, लोगों पर कम. क्विक डिलीवरी पर हमारी बढ़ती निर्भरता, रोज़मर्रा की बातचीत के उन पलों को कम कर रही है, जो चुपचाप हमारी ज़िंदगी को एक सूत्र में पिरोते थे.

फ्री डिलीवरी के चक्कर में ज्यादा शॉपिंग
सिर्फ़ यही खर्च नहीं है, आर्थिक नुकसान भी है. जब आप बहुत थके हुए या बिजी होते हैं और किराने का सामान खरीदने की योजना नहीं बना पाते, तो आप टुकड़ों में ऑर्डर कर देते हैं, फ्री डिलीवरी की मिनिमम लिमिट पूरी करने के लिए उन चीज़ों को भी जोड़ देते हैं जिनकी आपको ज़रूरत नहीं थी. या फिर किसी भूली हुई चीज़ के लिए ज़्यादा पैसे देने पड़ते हैं. मंथनी प्लान का क्या हुआ!
फिर भावनात्मक समझौता है - तुरंत संतुष्टि. देर रात की तलब के आगे झुकना और रील देखने के बाद एक कटोरी रेमन ऑर्डर करना बहुत आसान है. इससे पहले कि आप सोचें कि आपको वाकई इसकी ज़रूरत है या नहीं, यह आपके रास्ते में आ चुका होता है. डोपामाइन का यह तेज़ झटका ज़्यादा देर तक नहीं रहता.
अत्यधिक निर्भरता का खतरा
बेशक, मुश्किल दिनों में ये ऐप्स वरदान साबित होते हैं. जब आप बीमार हों या आपके पास समय की कमी हो, तो ये आपके लिए लाइफ लाइन साबित हो सकते हैं. दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए, ये वास्तविक पहुंच देने का काम करते हैं. इसका मतलब सुविधा को कमतर आंकना नहीं है.
लेकिन हो सकता है, अगली बार जब आपका मन किसी किराना ऐप पर स्वाइप करने का करे, तो किसी स्थानीय दुकान पर जाएं. हो सकता है कि आप सिर्फ़ किराने का सामान ही नहीं, कुछ और भी लेकर लौटें. एक मुस्कान, एक बातचीत, एक जुड़ाव का एहसास और शायद तराजू पर एक छोटी सी जीत भी.
कभी-कभी, सुविधा की कीमत वह नहीं होती जो आप चुकाते हैं. बल्कि वह होती है जो आप खो देते हैं.