देश के विभिन्न हाईकोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के तीन शीर्षस्थ जजों के कॉलेजियम की सिफारिश के बावजूद जजों की नियुक्ति किस्तों में करने से सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम खुश नहीं है. कॉलेजियम से जुड़े सूत्रों के मुताबिक सरकार के कामकाज के इस तरीके को जजों की नियुक्ति के लिए बनाए गए ज्ञापन यानी एमओपी की भावना के अनुरूप नहीं माना जा रहा है.
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के कॉलेजियम ने पिछले पांच महीने के दौरान यानी मई से अब तक कई हाईकोर्ट में नियुक्ति के लिए वकीलों और न्यायिक अधिकारियों में से सबसे उपयुक्त 106 नाम की सिफारिश की है. केंद्र सरकार ने उनकी सिफारिश को कई किस्तों में मंजूर किया है, जबकि दर्जनभर नाम अभी तक लंबित सूची में हैं. कॉलेजियम से जुड़े सूत्र यह भी बताते हैं कि जब देश के उच्च न्यायालयों में 30 से 47 फीसदी तक जजों की कमी है यानी जजों की स्वीकृत संख्या के मुकाबले काफी कम जज नियुक्त हैं. लंबित मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ रही है.
रिकॉर्ड बताते हैं कॉलेजियम की सिफारिश को 2014 से पहले यानी पिछली यूपीए सरकार एक साथ ही मंजूरी देती थी लेकिन अब पिछले सात साल में एनडीए सरकार किस्तों में मंजूरी दे रही है. इसकी शुरुआत 2014 में तब हुई थी जब कॉलेजियम ने तीन नाम की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर की थी. इनमें से पूर्व सॉलिसिटर जनरल सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम के नाम को अलग करके बाकी अन्य नामों की सिफारिश केंद्र सरकार ने मंजूर कर ली थी. उस समय देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएम लोढ़ा थे. जस्टिस लोढ़ा ने कानून मंत्री को चिट्ठी लिखकर सरकार की इस प्रवृत्ति पर अपना विरोध भी जताया था. तब कॉलेजियम की ओर से कहा गया था कि सरकार बिना कॉलेजियम की जानकारी में दिए सिफारिशों में बट्टा नहीं लगा सकती यानी किसी नाम को नहीं हटा सकती.
रिकॉर्ड देखें तो चीफ जस्टिस एनवी रमणा की अगुवाई वाले कॉलेजियम ने जून से लेकर अब तक भेजे 106 नामों में कोलकाता हाईकोर्ट में नियुक्ति के लिए 8 नाम भेजे थे. इनमें से केंद्र सरकार ने पांच को मंजूरी दी और तीन को लंबित सूची में डाल दिया. पटना, केरल और इलाहाबाद हाईकोर्ट के लिए भी सिफारिश किए गए नामों में से कुछ को बिना कारण बताए रोक लिया गया. इनकी फाइल भी नाम रोकने के कारण बताते हुए कॉलेजियम को वापस नहीं भेजी गई. सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम से जुड़े तार बताते हैं कि राजस्थान हाईकोर्ट के लिए पांच नाम की सिफारिश की गई थी. इनमें से केंद्र सरकार ने तीन को मंजूरी दी और दो नाम रोक लिए.
क्या कहते हैं कानून मंत्रालय के अधिकारी
इस बारे में जब हमने कानून मंत्रालय के आला अधिकारियों से बात की तो उनका जवाब यही था कि नाम को रोकने के पीछे उन महानुभाव की खुफिया जांच रिपोर्ट में खामियों या खानापूरियों की दुरुस्तगी और अन्य कई तरह की जांच और मंजूरियों का इंतजार होता है. इसीलिए सरकार उन लंबित प्रक्रिया को बाद में पूरा होने की उम्मीद से अन्य नामों को रोककर नहीं रखती. उनकी नियुक्ति की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज देती है. सूत्रों ने ये भी कहा कि ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि एक दो की वजह से बाकी सारे नाम रोकने का कोई मतलब नहीं. सरकार की निगाह में यह एमओपी का उल्लंघन भी नहीं है.
क्या हैं नियम
तय कायदे के मुताबिक हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस की अगुवाई वाला कॉलेजियम न्यायिक अधिकारियों और वकीलों में से सभी मानदंडों पर खरे उतर रहे योग्य लोगों की सूची बनाकर सरकार को भेजता है. सरकार खुफिया एजेंसियों के जरिए उनके बारे में सब कुछ पता लगाकर रिपोर्ट नत्थी कर भेजती है. फिर पूरी फाइल सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम में विचार के लिए आती है. सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के अनुमोदन के बाद फाइलें न्याय मंत्रालय को भेजी जाती हैं ताकि वो उन्हें प्रधानमंत्री तक पहुंचाएं. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को सलाह देते हैं कि इनकी नियुक्ति जज के तौर पर कर दी जाए. इसके बाद राष्ट्रपति नियुक्ति का वारंट जारी करते हैं और जज के रूप में शपथ ग्रहण हो जाता है. सरकार की भूमिका पहले उनके बारे में जांच पड़ताल की खुफिया रिपोर्ट देने और फिर वारंट का अनुपालन करने की होती है.