उत्तर प्रदेश की सियासत में मायावती भले ही राजनीतिक रूप से हाशिए पर खड़ी हों, लेकिन बसपा बैकग्राउंड वाले नेताओं का कांग्रेस से लेकर बीजेपी और सपा में दबदबा दिख रहा है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर बृजलाल खाबरी के साथ-साथ छह प्रांतीय अध्यक्ष की नियुक्त की गई है. यूपी संगठन के कायाकल्प के लिए कांग्रेस हाईकमान ने बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए नेताओं पर भरोसा जताया है. ऐसे में सवाल उठता है कि बसपा नेताओं को कांग्रेस, सपा और बीजेपी भी क्यों हाथों-हाथ ले रही हैं?
उत्तर प्रदेश कांग्रेस को छह महीने के बाद दोबारा से प्रदेश अध्यक्ष मिला है, लेकिन इस बार पार्टी ने साथ ही छह अन्य प्रांतीय अध्यक्ष बनाकर सियासी समीकरण साधने का दांव चला है. कांग्रेस ने बृजलाल खाबरी को उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष की कमान सौंपी है तो उनके साथ नसीमुद्दीन सिद्दीकी, नकुल दुबे, अजय राय, वीरेंद्र चौधरी, अनिल यादव और योगेश दीक्षित को प्रांतीय अध्यक्ष नियुक्त किया है. प्रांतीय अध्यक्ष के अलग-अलग क्षेत्रों की जिम्मेदारी सौंपी गई है.
बसपा नेताओं के जरिए कांग्रेस ने साधा समीकरण
कांग्रेस ने प्रदेश संगठन की कमान बसपा और दूसरे दलों से आए नेताओं को अहमियत दी है. प्रदेश अध्यक्ष बने पूर्व सांसद बृजलाल खाबरी और प्रांतीय अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त किए गए नसीमुद्दीन सिद्दीकी, नकुल दुबे, वीरेंद्र चौधरी और अनिल यादव कभी बसपा में हुआ करते थे. प्रांतीय अध्यक्ष बने अजय राय का सियासी बैकग्राउंड बीजेपी और सपा का रहा है जबकि योगेश दीक्षित ही खांटी कांग्रेसी हैं. बृजलाल खाबरी कांशीराम के करीबी नेता रहे हैं तो नसीमुद्दीन सिद्दीकी और नकुल दुबे को मायावती का राइटहैंड माना जाता था. इस तरह से कांग्रेस ने बसपा नेताओं के जरिए दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण-कुर्मी-यादव कैंबिनेशन बनाने की कवायद की है.
खाबरी ने कांशीराम के साथ काम किया
बृजलाल खबरी दलित मिशनरी से जुड़े रहे हैं. बसपा संस्थापक कांशीराम के साथ जुड़ने और पार्टी के कैडर के रूप में काम करने के लिए उन्होंने कम उम्र में घर छोड़ दिया था. 1999 में जालौन सीट से बसपा से सांसद चुने गए थे और कांशीराम के साथ उनके घनिष्ठ संबंधों के चलते राज्यसभा सदस्य भी रहे. बसपा के राष्ट्रीय महासचिव रहे, लेकिन पार्टी प्रमुख मायावती के साथ मतभेद हो जाने के चलते 2016 में बसपा छोड़ दी थी और 2017 के चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हो गए थे. ऐसे में दलित वोटों को साधने के लिए कांग्रेस ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी है.
नसीमुद्दीन- दुबे मायावती के करीबी रहे
नसीमुद्दीन सिद्दीकी कभी मायावती के सबसे करीबी और विश्वास पात्र नेता माने जाते थे. बसपा के मुस्लिम चेहरा हुआ करते थे और मायावती सरकार में नंबर दो की पोजिशन थी. बसपा संगठन में राष्ट्रीय महासचिव और कोऑर्डिनेटर जैसे अहम पदों पर रहे. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद बसपा का अलविदा कह दिया और कांग्रेस का दामन थाम लिया. प्रांतीय अध्यक्ष के तौर पर उन्हें पश्चिम यूपी की जिम्मेदारी सौंपी गई है.
नकुल दुबे भी मायावती के करीबी नेता और बसपा के ब्राह्मण चेहरा माने जाते थे. मायावती सरकार में कैबिनेट मंत्री थे और भारी-भरकम विभाग का जिम्मा था, लेकिन 2022 के चुनाव के बाद बसपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया. नकुल दुबे के अवध क्षेत्र का कांग्रेस ने प्रांतीय अध्यक्ष नियुक्त किया. इसके अलावा विधायक वीरेंद्र चौधरी साल 2012 में बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए थे. 2022 में विधायक बने और कांग्रेस ने पूर्वांचल क्षेत्र का अध्यक्ष बनाया है. अनिल यादव 1996 में इटावा के बसपा जिला अध्यक्ष हुआ करते थे, उसके बाद कांग्रेस का दामन थाम लिया और अब उन्हें बृज क्षेत्र का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है.
सपा में फ्रंटलाइनर बने बसपा से आए नेता
कांग्रेस ही नहीं सपा में भी बसपा बैकग्राउंड वाले नेताओं का खास दबदबा दिखता है. सपा में भले ही प्रदेश अध्यक्ष का पद नरेश उत्तम को सौंपा गया है, लेकिन पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान मंच पर बसपा से आए नेताओं को पहली पक्ति में जगह मिली थी जबकि खांटी सपा नेता दूसरी कतार में बैठे थे. मंच पर अखिलेश यादव के बगल में एक साइड रामगोपाल यादव थे दूसरी तरफ स्वामी प्रसाद मौर्य बैठे नजर आए थे. इसके अलावा लालजी वर्मा, रामअचल राजभर, इंद्रजीत सरोज और दारा सिंह चौहान जैसे नेताओं को सपा की पहली कतार में जगह मिली थी, जिससे साफ तौर पर बसपा से आए नेताओं का पार्टी में वर्चस्व झलक रहा है.
दिलचस्प बात यह है कि सपा में बसपा के जिन नेताओं को अहमियत दी जा रही है, उनमें स्वामी प्रसाद मौर्य, इंद्रजीत सरोज और रामअचल राजभर हैं. ये तीनों ही नेता बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं और कांशीराम-मायावती के करीबी नेताओं में गिना जाता था. ऐसे ही लालजी वर्मा की गिनती भी दिग्गज नेताओं में होती थी और बसपा के नेता सदन रह चुके हैं. बसपा को छोड़कर सपा में इनके आने से पार्टी को सियासी तौर पर फायदा भी मिला है. यही वजह कि अखिलेश यादव अब लोहिया के साथ-साथ अंबेडकरवादियों को भी जोड़ने के मिशन कर काम कर रहे हैं.
बसपा नेताओं का बीजेपी में भी दबदबा
उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज बीजेपी में भी बसपा से आए हुए नेताओं का दबदबा साफ जाहिर पढ़ता है. योगी सरकार में नंबर दो की पोजिशन रखने वाले डिप्टीसीएम बृजेश पाठक का सियासी बैकग्राउंड बसपा का रहा. कांग्रेस से अपनी सियासी सफर बृजेश पाठन ने शुरू किया था, लेकिन बसपा में एक लंबी राजनीतिक पारी खेली और मायावती के करीबी नेताओं में गिने जाते थे. बसपा के टिकट पर लोकसभा और राज्यसभा सदस्य रहे हैं, लेकिन 2017 के चुनाव से ठीक पहले बसपा छोड़ बीजेपी का दामन थाम लिया. ऐसे ही योगी सरकार में मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी, जयवीर सिंह, नंद गोपाल नंदी और दिनेश प्रताप सिंह भी बसपा में रह चुके हैं.
बसपा नेताओं को क्यों हाथों-हाथ ले रही पार्टियां
बसपा नेताओं को कांग्रेस से लेकर बीजेपी और सपा तक हाथों-हाथ ले रही है और उन्हें सियासी ओहदे से दे रही है. इसके पीछे एक बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि बसपा ये नेता जमीनी तौर पर जुड़े रहे हैं और अपने-अपने जातीय के दिग्गज नेता माने जाते हैं और समाज में उनकी अपनी पकड़ भी है. ऐसे में जब ये नेता बसपा का दामन छोड़कर दूसरे दल में जाते हैं तो उन्हें हाथों-हाथ लिया जा रहा है. कांग्रेस ने प्रदेश संगठन की जिम्मादारी ही बसपा से आए हुए नेताओं को सौंप दिया तो बीजेपी और सपा में भी फ्रंटलाइनर नेता बने हुए हैं.
मायावती भले ही सियासी तौर पर यूपी में हाशिए पर है, लेकिन उनका साथ छोड़कर दूसरे दलों में गए नेताओं का सियासी वर्चस्व कायम है. सपा को 2022 के चुनाव में जिन इलाकों में जीत मिली है, उसमें बसपा से आए नेताओं की अहम भूमिका रही है. प्रयागराज मंडल में 28 विधानसभा सीटें है, जिनमें से 11 सीटों पर सपा को जीत मिली है. इन सीटों की जीत दिलाने में इंद्रजीत सरोज की भूमिका अहम रही है. ऐसे ही अंबेडकर नगर जिले में सपा ने क्लीन स्वीप किया था, जिनमें से बसपा से आए नेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण थी. माना जा रहा है कि सपा संगठन में इस बार बसपा से आए नेताओं को खास तवज्जे मिलने की संभावना है.