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इंडिया टुडे से: बुंदेलखंड, जहां चरागों की मोहताज नहीं दिवाली

‘आवत देखे बालमा, सो ठांड़ी पटकी खेप रे.’ एक हाथ कान पर और दूसरा हाथ अनहद की ओर उठा हुआ. मैला-कुचला कुर्ता पायजामा पहने आदमी ने टेर सी लगाई. सिर्फ एक पंक्ति का गाना और गाना बंद होते ही कमर में फेंटा कसे ढोलकची ने द्रुत लय में ढोलक बजाना शुरू कर किया. ये बुंदेलखंड की दिवाली है.

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‘आवत देखे बालमा, सो ठांड़ी पटकी खेप रे.’ एक हाथ कान पर और दूसरा हाथ अनहद की ओर उठा हुआ. मैला-कुचला कुर्ता पायजामा पहने आदमी ने टेर सी लगाई. सिर्फ एक पंक्ति का गाना और गाना बंद होते ही कमर में फेंटा कसे ढोलकची ने द्रुत लय में ढोलक बजाना शुरू कर किया. साथ खड़े आठ-दस नर्तक तेज गति से घेरा बनाकर नाचने लगे. उनमें से ज्यादातर ने जांघिया और बनियान पहनी है. यह नजारा बुंदेलखंड की दिवाली का है.

नर्तकों की कमर से बेलबूटों की लड़ि‍यां लटक रही हैं. बहुत कुछ वैसी जैसी हिंदी फिल्मों में आदिवासी नाच को दिखाने के लिए बांध दी जाती हैं. नृत्य तेज से तेज होता जा रहा है. फिर रुक जाता है. लाठियां निकलती हैं. अब ताल पर तड़ातड़ टकराती लाठियां और ढोलक की थाप और मजीरे की झंकार पर नाचते लाठीधर, एक उद्दाम नर्तन या शक्ति के सौंदर्य का लोमहर्षक प्रदर्शन. करीब 3 से 5 मिनट में नृत्य चरम पर पहुंचने के बाद सब कुछ स्तब्ध. घेरे के किनारे से एक मोरपंखधारी बाहर आता है और भीड़ का अभिवादन करता है. नृत्य का एक अंग पूर्ण.

यह एक पंक्ति का शृंगार गीत दरअसल बुंदेलखंड में दिवाली गाने की विधा का एक छोटा सा हिस्सा है. दिवाली की रात जब सब लोग लक्ष्मी का आह्वान कर चुके होते हैं तो अगले दिन गोवर्धन पूजा के त्योहार पर ये टोलियां निकलती हैं. ये ग्वालवाल हैं जो गोवर्धनधारी कृष्ण की भक्ति में गोवर्धन पूजा पर नाच रहे हैं. इन्हें मौनिया भी कहते हैं. कई दिन के उपवास और मौन के कारण इन्हें यह नाम मिला. ये ग्वालवाल हैं कि लेकिन वे कृष्ण के अलावा भी अपनी मन्नत वाले किसी भी मंदिर में जाकर अपने आराध्य के सामने नृत्य कर सकते हैं.

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जरूरी नहीं गीत के बोल भक्तिमय हों
हां, इतना तय है कि अपने गांव से उस मंदिर के रास्ते में भी वे जगह-जगह नाचते जाएंगे. वे लोगों को मोरपंख देते हैं और लोग उन्हें दिवाली का प्रसाद या दूसरी कोई सौजन्य भेंट दे देते हैं. वे नाच तो ईश्वर के लिए रहे हैं, लेकिन उनके गाने के बोल अनिवार्य रूप से भक्तिमय नहीं होते. जैसे यह ऊपर वाली पहली पंक्ति पूरी तरह से शृंगार रस की है. जहां कुएं से पानी भर कर आ रही नायिका अपने पति को देखकर कुछ ऐसी लजा जाती है कि पानी से भरे घड़े को एकतरफ पटकर भाग जाती है.

यही पंक्तियां कभी तुलसी की चौपाई या रहीम के दोहे की शक्ल में भी सामने आ जाएंगी. कभी कोई बुंदेली लोकपंक्ति यहां मुखरित होगी. लेकिन संगीत में इतना तय है कि पहले गाना होगा, फिर वादन होगा और फिर वादन और नृत्य एक साथ होगा. यहां एक साथ नाचने और गाने की छूट नहीं है. हां भक्ति को भगवान से परे ले जाने की छूट जरूर है. लेकिन क्या आदिवासियों सी वेशभूषा पहने ये लोग आदिवासी हैं. नहीं, कम से कम वर्तमान सामाजिक तानेबाने में तो ऐसा नहीं है. इनमें से ज्यादातर लोग उन जातियों के हैं जिन्हें आजकल पिछड़ा कहा जाता है. ये लोग इसी हिंदू धर्म का हिस्सा हैं.

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नृत्य की आदिवासी शैली
साल भर वे उसी तरह काम धंधों में लगे रहते हैं, जैसे उनके बाकी साथी. तो फिर ये आदिवासी समाज से मिलता नृत्य क्यों? कहीं इसलिए तो नहीं कि गणराज्यों से भी पहले के जमाने में यह इलाका गौंड, कोल और भील आदिवासियों का घर था. समय की धार में आदिवासी और बाहर से आए दूसरे नागरिकों ने यहां रहने की एक नई व्यवस्था बना ली. शायद उसी व्यवस्था में मौनिया जैसा संयुक्त नृत्य पैदा हुआ हो. जहां पूजा हिंदू देवता की हो रही है, लेकिन नृत्य की शैली आदिवासी है. आदिवासी और कथित मुख्य समाज के आपस में हिलने-मिलने की ये परंपरा अब भी जारी है. घोषित रूप से यहां अब सहरिया आदिवासी ही बचे हैं, लेकिन इनके तौर-तरीकों और नामों को बाकी हिंदू नामों और रीति रिवाजों से अलग करना कठिन है. हालांकि उनकी खास परंपराएं आज भी सबसे अलग दिख जाती हैं. शायद इसीलिए यहां आज भी भूले भटके किसी महिषासुर का मंदिर दिख जाता है जो वैसे तो दुर्गा के लिए बध्य ही है.

बहरहाल परंपराओं का द्वंद्व तो चलता ही रहेगा. कार्तिक अमावस्या के बाद की गुनगुनी धूप में गाई जाती यह दिवाली उस दिवाली से कुछ अलग असर पैदा कर रही है जो रात में मनाई गई थी. उस दिवाली में मैं था, मेरा परिवार था और मेरी बहुत सी लालसाएं पूरी करने के लिए देवी की अर्चना थी. कहने को झरोखे खुले थे और हम ने हर कोने में दीप जलाए थे, लेकिन सबकुछ अंतत: मेरे मैं के लिए था. ये सुबह की दीवाली अलग है. यहां आतिशबाजी की जगह हृदय से उठती भक्ति है. मैं की जगह समाज है और लक्ष्मी की याचना की जगह गरीबों का धन्नासेठों को धता बताता उल्लास का नृत्य है. यहां वह जीवन है जो दीवाली को सहेजता नहीं गा-गाकर उलीचता है. गाओ दिवाली.

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