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Exclusive: पटाखे बनाने वाली 'मौत की फैक्ट्रियां', बाल मजदूरी से बदरंग आतिशबाजी

विस्फोटक धूल से लिपटे बच्चे और उनके अभिभावक अपने घरों और आसपास की जगहों के लिए संभावित तबाही को न्योता दे रहे हैं. दिल्ली के पास स्थित इलाकों में ये उस आतिशबाजी को बनाने में दिन-रात लगे हैं जो दीवाली पर आसमान को रंगबिरंगी रोशनियों से सराबोर करेगी.

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रंगबिरंगी पटाखों के पीछे की बदरंग तस्वीर
रंगबिरंगी पटाखों के पीछे की बदरंग तस्वीर

विस्फोटक धूल से लिपटे बच्चे और उनके अभिभावक अपने घरों और आसपास की जगहों के लिए संभावित तबाही को न्योता दे रहे हैं. दिल्ली के पास स्थित इलाकों में ये उस आतिशबाजी को बनाने में दिन-रात लगे हैं जो दीवाली पर आसमान को रंगबिरंगी रोशनियों से सराबोर करेगी. उनके पास किसी तरह की विधिवत ट्रेनिंग नहीं है. ना ही मशीनें और सुरक्षा के उपकरण मौजूद है. वो नंगे हाथों से ही मिट्टी के ढाचों, रॉकेट ट्यूबों और कागज के खोलों में बारूद भरने में लगे हैं.

यही है वो तरीका जिससे देश में दीवाली, दशहरे और अन्य जश्न के मौकों के लिए पटाखों और आतिशबाजी को असंगठित क्षेत्र के बड़े हिस्से की ओर से बनाया जाता है. आजतक/इंडिया टुडे की स्पेशल इंवेस्टीगेशन टीम (एसआईटी) ने पटाखे बनाने के खतरनाक धंधे से जुड़े सभी पहलुओं तक पहुंचने की कोशिश की.

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दिल्ली से करीब 45 मिनट के ड्राइव की दूरी पर गाजियाबाद का इलाका है फारूख नगर. यहां हर दूसरा घर इन दिनों पटाखे बनाने की फैक्ट्री में तब्दील हो रखा है. त्योहारी मौसम में पटाखों की मांग ज्यादा है, इसलिए यहां तेजी से काम चल रहा है. पटाखे और आतिशबाजी बनाने के काम में अधिकतर बच्चे, किशोर और महिलाओं को लगे हुए देखा जा सकता है.

पटाखे बनाने के लिए बिना किसी सुरक्षा और खतरनाक ढंग से विस्फोटकों का जिस तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, वो किसी को भी हैरान कर सकता है. इन लोगों के लिए पटाखा फटते वक्त जितनी ज्यादा आवाज करेगा उतना ही वो बेहतर होगा. साफ है कि उन्हें पटाखों के लिए बारूद की सही मात्रा का कोई अंदाज नहीं है. तकनीकी दक्षता की जगह ये पटाखे बनाने वाले बस अपने अनुमान पर भरोसा करते हैं.

एक कारीगर ने बताया कि हम एक खास तरीके से बारूद को भर कर नीचे दबाते हैं. नहीं तो इसके फटने का खतरा रहता है. एसआईटी के अंडरकवर रिपोर्टर ने जब उससे पूछा कि अगर इसे पूरा भर लिया जाए तो क्या ये फट जाएगा. इस पर उसका जवाब था कि हां और उसका असर भी बहुत ज्यादा होगा.

भारत में विस्फोटकों के डिस्पले, भंडारण और उत्पादन को लेकर व्यापक नियम-कानून हैं. 'एक्सप्लोसिव रूल्स ऑफ 2008' में स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि पटाखों का रासायनिक संघठन क्या होना चाहिए. इन रूल्स में सुरक्षा मानकों को लेकर भी साफ किया गया है पटाखों को हैंडल करते वक्त क्या-क्या किया जाना चाहिए और क्या-क्या नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन रूल्स का सही तरीके से अमल नहीं होने की वजह से धड़ल्ले से इनकी धज्जियां उड़ती देखी जा सकती हैं.

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बता दें कि दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले साल नवंबर में पटाखों की तुलना आग्नेयस्त्रों (फायरआर्म्स) से की थी. हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी- "ऐसा नहीं है कि आर्म्स एक्ट के मायने के अनुसार हथियारों की तुलना में पटाखे कम नुकसान पहुंचाने वाले हैं. पटाखों के इस्तेमाल पर सख्त नियंत्रण नहीं होने की वजह से ये हथियारों की तुलना में बड़ी आसान से उपलब्ध हैं. इनका खूब इस्तेमाल होता है और बरसों से ये आग लगने और लोगों के जलने की घटनाओं का कारण बने हुए हैं. दीवाली पर ऐसी घटनाएं आम हो गया है और हर साल ऐसी घटनाएं सामने आती हैं."

आजतक/इंडिया टुडे की विशेष जांच टीम जब गाजियाबाद के फारूख नगर पहुंची तो पटाखे बनाने के खतरनाक काम को लेकर पुलिस पूरी तरह अनदेखी करती दिखाई दी. यहां सिर्फ पटाखे और आतिशबाजी बनाने के लिए सिर्फ 60 ऑपरेटर्स को लाइसेंस मिले हुए हैं. लेकिन फारूख नगर में कम से 300 यूनिट में धड़ल्ले से पटाखे बनाए जा रहे हैं. पटाखे बनाने वाले लाइसेंस की शर्तों को लेकर भी बेपरवाह दिखाई दिए.

अंडर कवर रिपोर्टर ने पटाखे बनाने की यूनिट के मालिक मुस्तफा अली से सवाल किया- "यहां कितने किलो (विस्फोटक) की इजाजत है?"

इस पर मुस्तफा अली का जवाब था- वो फैक्टरी के लाइसेंस में लिखा हुआ है.

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रिपोर्टर- "तो आप कितने किलो (विस्फोटक) का इस्तेमाल कर सकते है?"

मुस्तफा अली- "लाइसेंस घर पर है. ये उसमें लिखा है."

दीवाली की रौनक बढाने वाली आतिशबाजी की लाल, पीली और हरी चमक के पीछे बाल मजदूरी का कड़वा सच भी छिपा है.

दुनिया भर में ताजनगरी के तौर पर मशहूर आगरा की दिल्ली से तीन घंटे की ड्राइव की दूरी है. एसआईटी यहां के धौर्रा गांव पहुंची तो वहां अवैध और अस्थायी फैक्ट्रियों में लड़कों और लड़कियों को पटाखे और आतिशबाजी का सामान बनाते देखा. ये बच्चे अपनी माताओं के साथ अनार, आतिशबाजी के चक्रों में विस्फोटक भरते देखे गए. ये सब रिहाइशी इलाके से दूर खुले मैदान में हो रहा था.

अंडर कवर रिपोर्टर को बताया गया कि यहां ग्राहक एक-दूसरे से सुनने के बाद आते हैं. ज्यादातर ग्राहक दिल्ली और आसपास के इलाकों से आने वाले रिटेलर्स होते हैं. गांव में अवैध फैक्ट्री चलाने वाले सोनू सिंह ने बताया कि यहां से अपने माल को कैसे ले जाना है ये ग्राहक की अपनी जिम्मेदारी होती है.

अंडर कवर रिपोर्टर ने पूछा- "क्या आपको आर्डर मिलते रहते हैं."

सोनू सिंह- "अभी हाल में फरीदाबाद से 10,000 पटाखों का ऑर्डर मिला था. वो खुद ही यहां डिलिवरी लेने के लिए आए." अंडर कवर रिपोटर्स ने गोपनीय ढंग से सोनू सिंह की बिना छत की फैक्ट्री को अपने कैमरे में कैद कर लिया.

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यहां बच्चे हो या वयस्क, पटाखे बनाते वक्त हर कोई खतरनाक विस्फोटकों और सामग्री के सीधे संपर्क में रहता है. ना वो अपने हाथों को कवर रखते हैं और ना ही सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला कोई सूट पहनते हैं. जरा सी भी चिंगारी यहां किसी भी वक्त बड़े हादसे को अंजाम दे सकती है.

तमिलनाडु के सिवाकासी को पटाखों का केंद्र माना जाता है. बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली राष्ट्रीय संस्था NCPCR ने अपनी रिपोर्ट में पाया है कि किस तरह बच्चों को जान को खतरे में डालने वाले हालात में काम करना पड़ता है. साथ ही उन्हें किस तरह की बीमारियों का जोखिम मोल लेना पड़ता है. रिपोर्ट के निष्कर्ष के मुताबिक पटाखे बनाने के काम में लगे करीब 90 फीसदी बच्चों को दमा, आंखों की बीमारी या टीबी से पीड़ित पाया गया.NCPCR ने पाया कि कई बच्चों को मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और शाब्दिक उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है.

आगरा के धौर्रा गांव में भी पटाखा बनाने वाली अवैध यूनिटों में बच्चों और अन्य श्रमिकों का किस तरह उत्पीड़न हो रहा है, ये इसी से पता चलता है कि उन्हें एक पटाखा बनाने के लिए 10 पैसे के हिसाब से भुगतान किया जाता है.

आजतक/इंडिया टुडे की एसआईटी को प्रवीण नाम के दलाल ने बताया कि पुलिस रिश्वत वसूल कर पटाखे बनाने के अवैध धंधे से आंखें मूंदे रखती है. प्रवीण ने दावा किया- "अधिकतर पुलिसवाले लालची हैं. वे अपना हिस्सा (रिश्वत का) लेते हैं और फिर यहां का रुख नहीं करते." प्रवीण ने बताया कि इस गांव में पटाखे बनाने से जुड़े हादसों में अतीत में 20 से 25 लोगों की मौत हो चुकी है.

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