scorecardresearch
 

पूर्णिमा के दिन धूमधाम से मनाई जाती है दत्तात्रेय जयंती

हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव यानी ब्रह्म, विष्णु और महेश का स्वरूप माना गया है. भगवान दत्तात्रेय महायोगी और महागुरु के रूप में भी पूजनीय हैं. क्योंकि शास्त्रों के मुताबिक भगवान दत्तात्रेय द्वारा चौबीस गुरुओं से शिक्षा ली गई. जिनमें मनुष्य, प्राणी, वनस्पति सभी शामिल थे. इसलिए दत्तात्रेय की उपासना में अहं को छोड़ने और ज्ञान द्वारा जीवन को सफल बनाने का संदेश है.भगवान दत्तात्रेय का जन्म मार्गशीर्ष पूर्णिमा तिथि में प्रदोष काल यानी शाम के वक्त माना गया है.

Advertisement
X
भगवान दत्तात्रेय
भगवान दत्तात्रेय

मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्र पर सायंकाल में भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ. महाराष्ट्र में औदुंबर में दत्तात्रेय उत्सव को विशेष महत्त्व है. शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों ही संप्रदायों को एकजुट करने वाले श्री दत्तात्रेय का प्रभाव देश के अन्य राज्यों के मुकाबले महाराष्ट्र में ज्यादा है. दत्त संप्रदाय में हिन्दुओं के ही बराबर मुसलमान भक्त भी बड़ी संख्या में शामिल होते हैं. तमिलनाडु में भी दत्तजयंती की प्रथा है. कुछ ब्राह्मण परिवारों में इस उत्सव के निमित्त दत्त नवरात्र का पालन किया जाता है तथा उसका प्रारंभ मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी से होता है. इसके अलावा उत्तरांचल में भी दत्तात्रेय जयंती को धूमधाम से मनाया जाता है. दत्तात्रेय उत्सव से सात दिन पहले गुरुचरित्र का पारायण करने का विधान है. इसे गुरुचरित्र सप्ताह कहते हैं.

धूमधाम से मनाई जाती है दत्तात्रेय जयंती
शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों ही संप्रदायों को एकजुट करने वाले श्री दत्तात्रेय का प्रभाव महाराष्ट्र में ही नहीं, वरन विश्वभर में फैला हुआ है. गुरुदेव दत्तात्रेय में नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय और समर्थ संप्रदाय की अगाध श्रद्धा है. दत्त संप्रदाय में हिन्दुओं के ही बराबर मुसलमान भक्त भी बड़ी संख्या में शामिल हैं, जो कि हमारी धर्मनिरपेक्ष संस्कृति का परिचायक है.

दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं, इसीलिए उन्हें श्री गुरुदेवदत्त के नाम से भी पुकारा जाता है. इं‍दौर स्थित भगवान दत्तात्रेय का मंदिर करीब सात सौ साल पुराना है. इंदौर होलकर राजवंश की राजधानी रहा है. होलकर राजवंश के संस्थापक सूबेदार मल्हारराव होलकर के आगमन के भी कई साल पहले से दत्तात्रेय मंदिर की स्थापना हो चुकी थी. भक्तों की अचानक मदद मांगने पर मनोकामना पूर्ण करने के रूप में दत्तात्रेय की पूजा जाता है. मार्गशीर्ष की पूर्णिमा पर दत्त जयंती का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है.

Advertisement

उत्तराखंड के चमोली जिले में ऊंचे पहाड़ों पर स्थित प्रसिद्ध अनुसूया मंदिर में भी दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है. इस जयंती में पूरे राज्य से हजारों की संख्या में लोग शामिल होते हैं. इस जयंती समारोह के अवसर पर नौदी मेले का भी आयोजन किया जाता है जिसमें भारी संख्या में लोग अपने-अपने गांवों से देव डोलियों को लेकर पहुंचते हैं. देव डोलियां माता अनुसूया और अत्रि मुनि के आश्रम का भ्रमण करती हैं और माता अनुसूया के प्राचीन मंदिर में संतान प्राप्ति के लिए एक बड़ा यज्ञ भी कराया जाता है. सूत्रों ने बताया कि मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर में जप और यज्ञ करने वालों को संतान की प्राप्ति होती है. भगवान दत्तात्रेय से जुडे़ होने के कारण इस मेले में महाराष्ट्र और कर्नाटक से भारी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं.

कब होती है दत्तात्रेय की पूजा
हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव यानी ब्रह्म, विष्णु और महेश का स्वरूप माना गया है. भगवान दत्तात्रेय महायोगी और महागुरु के रूप में भी पूजनीय हैं. क्योंकि शास्त्रों के मुताबिक भगवान दत्तात्रेय द्वारा चौबीस गुरुओं से शिक्षा ली गई. जिनमें मनुष्य, प्राणी, वनस्पति सभी शामिल थे. इसलिए दत्तात्रेय की उपासना में अहं को छोड़ने और ज्ञान द्वारा जीवन को सफल बनाने का संदेश है. वही धार्मिक दृष्टि से उनकी उपासना मोक्षदायी मानी गई है.

Advertisement

भगवान दत्तात्रेय का जन्म मार्गशीर्ष पूर्णिमा तिथि में प्रदोष काल यानी शाम के वक्त माना गया है. यही कारण है हर पूर्णिमा तिथि पर भी दत्तात्रेय की उपासना ज्ञान, बुद्धि, बल प्रदान करने के साथ शत्रु बाधा दूर कर कार्य में सफलता और मनचाहे परिणामों को देने वाली मानी गई है. धार्मिक मान्यता है कि भगवान दत्तात्रेय भक्त की पुकार पर शीघ्र प्रसन्न होकर किसी भी रूप में उसकी कामना पूर्ति और संकटनाश करते हैं. त्रिदेवों के प्रतिरूपः- भगवान दत्तात्रेय

श्री दतात्रेय भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं. मुनि अत्रि और महान योगिनी अनसूया माता के पुत्र दत्त के त्रिमूर्ति रूप देख साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश के दर्शन होते हैं. त्रिदेवी अर्थात सावित्री, लक्ष्मी और पार्वती के त्रिदेवों यानी बह्रा, विष्णु और शिव के इच्छा भोजन के लिए श्री दत्त का अवतार हुआ है.

देवी अनसूया महान तपस्विनी थीं. एक बार त्रिदेव उनके कुटिया पर पधारे और विकार-वासना रहित भोजन के इच्छा प्रकट की. यह बात सुनकर अचंभित अनसूया ने अपनी आंख मूंदकर ध्यान किया. त्रिदेव अतिथियों को अनसूया ने अपने तपोबल से शिशु बनाया और मातृत्व का अमृत पिलाया. त्रिदेव इच्छा भोजन से तृप्त हो गए और उन्हीं की कृपा से अनसूया को चंद्रमा, दत्त एवं दुर्वासा पुत्र रत्न प्राप्त हुआ.

Advertisement

पृथ्वीतल पर शांति स्थापित करने के लिए भगवान श्री दत्तात्रेय ने सर्वत्र भ्रमण किया. एकांत प्रेमी श्री दत्त औदुम्बर वृक्ष के नीचे बैठकर सृष्टि नियमों की चिंतन करते थे. परोपकार और ईमानदारी इन दो गुणों के रूप में उनका साथ गाय और श्वान होते थे. युवावस्था में ही परम विरागी, अगाध ज्ञानी होते हुए भी संयमी और विश्वशांति के प्रवर्तक श्री दत्त शांत और संयमी युवावस्था के महान आदर्श हैं.

श्री दत्तात्रेय की उपासना विधि
श्री दत्तात्रेय जी की प्रतिमा को लाल कपड़े पर स्थापित करने के बाद चन्दन लगाकर, फ़ूल चढाकर, धूप, नैवेद्य चढ़ाकर दीपक से आरती उतारकर पूजा की जाती है. इनकी उपासना तुरत प्रभावी हो जाती है और शीघ्र ही साधक को उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है. साधकों को उनकी उपस्थिति का आभास सुगन्ध के द्वारा, दिव्य प्रकाश के द्वारा या साक्षात उनके दर्शन से होता है. विश्वास किया जाता है भगवान दत्तात्रेय बड़े दयालु हैं.

रोचक जानकारी
कोल्हापुर जिले में कृष्णा-पंचगंगा के संगम पर स्थित छोटे से गांव नृसिंहवाड़ी में भगवान दत्तात्रेय का चेतन्य देवस्थान श्रीक्षेत्र नरसोबावाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है. यहां स्थित दत्तात्रेय मंदिर की खास विशेषता यह है कि इसका आकार मस्जिदनुमा है, साथ ही यहां पादुका पर चढ़ाए जाने वाले वस्त्र भी मुस्लिम रिवाज के अनुरूप होते हैं. इस विशेषता का उल्लेख गुरुचरित्र में किया गया है. यही वजह है कि इस स्थान से सभी धर्म के लोगों की आस्था जुड़ी हुई है. इस मंदिर की एक और विशेषता यह है कि यहां केवल सुबह की पूजा के समय ही घंटा बजाया जाता है. बाकी किसी भी समय घंटा न बजाने के सख्त नियम हैं.

Advertisement

पूर्णिमा के दिन हजारों की संख्या में यहां श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं. शनिवार को भगवान दत्तात्रेय का जन्मदिन होने की वजह से प्रत्येक शनिवार भी यहां श्रद्धालुओं का भीड़ लगी रहती है. दत्त जयंती पर तो लाखों की संख्या में यहां भक्त मौजूद रहते हैं. दत्त स्थान होने की वजह से यहां मंदिर परिसर में कुत्ते के आने पर कोई रोक-टोक नहीं होती. यहां तक कि भक्तजन श्वान यानी कुत्ते को दत्त स्वरूप जानकर उन्हें भोजन भी कराते हैं.

कृष्णा नदी के तट के बीच में महाराष्ट्र के औदुम्बर की ठंडी छांव के नीचे श्रीदत्त महाराज का मंदिर स्थापित है. माना जाता है कि यहां श्रीदत्तात्रेय भगवान की स्वयंभू मनोहर पादुका के दर्शन करने का पुण्य मिलता है. मान्यता है कि नृसिंहवाड़ी में भगवान दत्तात्रेय ने इस स्थान पर बारह साल तक तपस्या की थी, इसी कारण इस स्थान को भगवान दत्तात्रेय की तपोभूमि माना जाता है. यह जानने वाली बात है कि यहां भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति की जगह पर उनकी चरण पादुका की पूजा की जाती है. यहां तपस्या करने के बाद दत्त भगवान गाणगापुर होते हुए कर्दलीवन पहुंचे और वहीं पर उन्होंने अपना अवतार समाप्त किया. आज भी हर रोज हजारों श्रद्धालु महाराज की पादुका के दर्शन करने यहां आते हैं.

Advertisement

भगवान शंकर का साक्षात रूप महाराज दत्तात्रेय में मिलता है. तीनों ईश्वरीय शक्तियों से समाहित महाराज दत्तात्रेय की आराधना बहुत ही सफ़ल और जल्दी से फ़ल देने वाली होती है. महाराज दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी, अवधूत और दिगम्बर रहे थे. माना जाता है कि वे सर्वव्यापी है और किसी प्रकार के संकट में बहुत जल्दी से भक्त की सुध लेने वाले है.

Advertisement
Advertisement