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संदेश भी, चेतावनी भी... पंजाब में खालिस्तान समर्थकों की जीत के क्या मायने हैं?

2024 में चुनाव जीतने वाले कट्टरपंथियों ने पहले भी भारतीय संविधान में उसकी कोई आस्था नहीं होने की बात कही है. लेकिन, अब उसे संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखने की शपथ लेनी होगी.

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'वारिस पंजाब दे' प्रमुख अमृतपाल सिंह (बाएं) और सरबजीत सिंह खालसा (दाएं)। [फ़ाइल फ़ोटो]
'वारिस पंजाब दे' प्रमुख अमृतपाल सिंह (बाएं) और सरबजीत सिंह खालसा (दाएं)। [फ़ाइल फ़ोटो]

पंजाब में चरमपंथी तत्वों की बढ़ती राजनीतिक मौजूदगी ने मुख्यधारा की पार्टियों और सुरक्षा एजेंसियों को चिंता में डाल दिया है. भले ही लोकसभा चुनाव लड़ने वाले 12 खालिस्तान समर्थकों में से केवल दो ने ही लोगों का भरोसा जीता. लेकिन, यह जीत कुछ हद तक अलगाववादी समूहों को एकजुट कर सकती है.

'वारिस पंजाब दे' के प्रमुख अमृतपाल सिंह ने खडूर साहिब से 1,97,120 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की. यह राज्य में सबसे बड़ी जीत तो है ही. इसके अलावा इस बड़ी जीत ने अमृतपाल सिंह को फिर से चर्चा में ला खड़ा किया. दूसरी ओर, सरबजीत सिंह ने फरीदकोट से 70,053 वोटों से जीत दर्ज की. गुरुवार को ऑपरेशन ब्लू स्टार की 40वीं बरसी की पूर्व संध्या पर अमृतसर में एकत्र हुए कट्टरपंथी खालिस्तान समर्थक नारे लगाते हुए अमृतपाल की तस्वीरों के साथ नजर आए.

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उनकी जीत का असर सिर्फ दो लोकसभा क्षेत्रों तक सीमित नहीं रहेगा. इससे पंजाब में बेचैनी पैदा हो सकती है जिसने दशकों से चले आ रहे उग्रवाद के बाद शांति बहाली के लिए भारी कीमत चुकाई है. कट्टरपंथी आने वाले दिनों में पांच विधानसभा उपचुनाव भी लड़ सकते हैं. दिलचस्प बात यह है कि जहां अमृतपाल और सरबजीत सिंह खालसा चुनाव जीतने में सफल रहा, वहीं खालिस्तान के एक अन्य समर्थक सिमरनजीत सिंह मान को आप उम्मीदवार गुरमीत सिंह मीत ने 1.73 लाख वोटों के अंतर से हरा दिया.

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सिमरनजीत ने खडूर साहिब सीट से अपने उम्मीदवार का नाम वापस लेकर अमृतपाल से हाथ मिला लिया है. वहीं, आतंकवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू, जिसने अमृतपाल को आर्थिक मदद करने का दावा किया है, ने हाल ही में देश की संसद पर हमला करने की धमकी दी थी. चुनाव में शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) द्वारा टिकट दिए गए नौ अन्य कट्टरपंथियों की जमानत जब्त हो गई. उनका वोट शेयर 1.95 प्रतिशत से लेकर 7.36 प्रतिशत के बीच रहा, जिसका मतलब है कि चुनाव लड़ने वाले दर्जन भर कट्टरपंथियों में से केवल कुछ ही जीत का स्वाद चख सके.

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लोकसभा चुनाव ने पंजाब में कट्टरपंथियों की बढ़ती पैठ की ओर सबका ध्यान खींचा है. जेल में रहने के बावजूद और कथित विदेशी फंडिंग के अलावा स्थानीय लोगों के समर्थन से अमृतपाल चुनाव जीतने में कामयाब रहा. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत असम के डिब्रूगढ़ की जेल में बंद अमृतपाल अक्सर कहता था, 'उनकी लड़ाई भारत सरकार से है, किसी समुदाय से नहीं.' उनके विवादित बयानों को उनके समर्थकों ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान खुलेआम प्रचारित किया. जिसे प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन ‘सिख फॉर जस्टिस’ ने कथित तौर पर वित्तीय सहायता मुहैया कराई.

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सोशल मीडिया पर वायरल हुए अमृतपाल के विवादित चुनावी घोषणापत्र में मीट, शराब और तंबाकू की दुकानों के अलावा सभी नाई की दुकानें और ब्यूटी पार्लर बंद करने का वादा किया गया था. इसमें यह भी कहा गया था कि डेरा, राधा स्वामी सत्संग, निरंकारी मिशन जैसे संप्रदाय, चर्च और मस्जिदों को भी काम नहीं करने दिया जाएगा. इसमें सिख युवकों को आधुनिक हथियारों की ट्रेनिंग देने की भी बात कही गई थी. हालांकि, अमृतपाल के पिता तरसेम सिंह ने इस बात से इनकार किया है कि अमृतपाल ने ऐसा कोई घोषणापत्र जारी किया है. अमृतपाल के परिवार ने कहा था कि वे 6 जून तक उनकी जीत का जश्न नहीं मनाएंगे. अमृतपाल की मां ने कहा कि लोकसभा चुनाव में उनकी सफलता मारे गए खालिस्तानी आतंकवादियों को समर्पित है. 

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अमृतपाल और सरबजीत सिंह खालसा ने चुनाव क्यों जीता? 

अमृतपाल सिंह अपने समर्थकों द्वारा बनाए गए इस नैरेटिव के आधार पर चुनाव जीतने में सफल रहा कि वे लोगों को नशे से छुटकारा दिलाने के अलावा 'सिख धर्म और सिख पहचान को बढ़ावा दे रहा था.' उनके समर्थकों का मानना ​​था कि उन पर एनएसए के तहत मामला दर्ज करना गलत था. चुनाव विश्लेषकों ने यह भी कहा कि अगर उन पर आईपीसी के तहत मामला दर्ज होता तो उन्हें जमानत मिल जाती और उसे सहानुभूति पाने का मौका नहीं मिलता, जो उसके जीत का कारण बनी. 

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दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे के बेटे सरबजीत सिंह खालसा ने भी फरीदकोट चुनाव में पूर्व खालिस्तानी आतंकियों की रिहाई और बेअदबी के मामलों के अलावा बहबल कलां फायरिंग मामले के मुद्दे पर जीत हासिल की. ​​दिलचस्प बात यह है कि पंजाबी गायक सिद्धू मूसे वाला की हत्या के बाद भगवंत सरकार के खिलाफ जन्मे गुस्से को भुनाकर ही सिमरनजीत सिंह मान 2022 का उपचुनाव जीत पाए थे. लेकिन इस बार मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया.

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यह स्पष्ट है कि खडूर साहिब और फरीदकोट में चुनाव जीतने वाले कट्टरपंथी सिख धर्म के खतरे में होने के झूठे प्रचार के अलावा बढ़ते ड्रग्स व्यापार, नशे की लत और अनसुलझे बेअदबी मामलों के मुद्दों पर मतदाताओं को लुभाने में सफल रहे. कट्टरपंथियों की जीत ने एक तरफ राजनीति में उनके बढ़ते दखल को साबित किया तो वहीं दूसरी ओर उनके दोहरे मापदंड को भी सबके सामने उजागर कर दिया है. 2024 में चुनाव जीतने वाले कट्टरपंथियों ने पहले भी भारतीय संविधान उसकी कोई आस्था नहीं होने की बात कही है. लेकिन, उन्हें अब संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखने की शपथ लेनी होगी. अब सबकी निगाहें अमृतपाल पर टिकी हैं. सबाल यह उठता है कि क्या उन्हें शपथ लेने के लिए जेल से रिहा किया जाएगा? क्योंकि जेल में शपथ दिलाने का कोई प्रावधान नहीं है.

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