खुद को राजीव गांधी का वफादार बताने में फख्र महसूस करने वाले नेता बूटा सिंह का 86 साल की उम्र में शनिवार को नई दिल्ली में निधन हो गया. उनका राजीव कैबिनेट में एक तरह से अघोषित नंबर 2 दर्जा था. वे ‘जल्दबाज डिमोलिशन मैन’ के तौर पर जाने जाते थे जो राज्य सरकारों को अपनी इच्छा के मुताबिक बर्खास्त कर देते थे. ज्ञानी जैल सिंह के साथ उनकी घर के अंदर की प्रतिद्वंद्विता ने घरेलू राज्य पंजाब की राजनीति में तबाही का काम किया.
बूटा सिंह को कई सरकारी राजों की जानकारी थी. कुछ साल पहले, जब मैं बूटा सिंह से 11-A तीन मूर्ति मार्ग स्थित उनके आवास पर मिला था तो उन्होंने कहा था, “मेरा पूरी तरह से मोहभंग हो चुका है. वफादारी का अब मोल नहीं रहा. मैंने कई लड़ाइयां लड़ीं, कांग्रेस पार्टी को बनाया, पार्टी का झंडा ऊंचा रहना सुनिश्चित करने के लिए मैंने सब कुछ किया. लेकिन मैं अब महसूस करता हूं कि अब मैं प्रासंगिक नहीं रहा.”
बूटा सिंह ने तब कहा था कि उनके पास उन हालात के बारे में बताने को बहुत कुछ है जिनमें मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने तब 7 दिसंबर 1984 को यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को भागने दिया था. ये घटनाक्रम भोपाल में उस भीषण त्रासदी के चार दिन बाद हुआ था जिसमें जहरीली गैस के रिसाव से हजारों लोग मारे गए थे. बूटा सिंह ने कहा, “मैं अर्जुन सिंह के निभाए रोल के बारे में पूरा जानता हूं. लेकिन मैं कुछ क्यों कहूं? क्या कोई मुझे सुनेगा?”
बूटा पूर्व में अकाली थे. अकाली होने से पहले वे अपनी युवावस्था में मार्क्सवादी थे. उन्होंने मुंबई के खालसा कॉलेज से इतिहास में मास्टर्स डिग्री हासिल की. बूटा सिंह की बोल्शेविक साहित्य पढ़ने में बहुत रुचि थी. उन्हें पहली नौकरी कम्युनिस्ट पत्रिका- फूलवाड़ी में प्रूफरीडर के तौर पर मिली थी. 1953 में उन्हें जब जोसेफ स्टालिन की मौत की खबर का समाचार मिला था तो वो फूट-फूटकर रोए थे.
साधारण परिवार से आते थे बूटा सिंह
जालंधर के मुस्तफापुर गांव से बहुत साधारण परिवार से नाता रखने वाले बूटा सिंह नतीजों की परवाह किए बिना अपने मन की कर देने में यकीन रखते थे. जब वो महज 7 साल के थे तो उनके रिश्तेदार ने छत्ता दिखाते हुए कहा था कि ये मधुमक्खियों के बनाए शहद से भरा है. दो दिन, बाद बूटा सिंह की बहन प्रीतम कौर ने उनके चीखने की आवाज सुनी. दरअसल, बूटा सिंह के पेड़ पर चढ़कर छत्ते तक पहुंचने की कोशिश में मधुमक्खियों ने हमला कर दिया. बूटा सिंह की पेड़ से गिरकर टांग टूट गई थी.
राजनीति में प्रवेश से पहले बूटा सिंह ‘अकाली पत्रिका’ में सब-एडीटर थे, तब शिरोमणि अकाली दल ने उन्हें 1962 में रोपड़ सुरक्षित सीट से खड़ा किया था. जब अकालियों में विभाजन हुआ तो बूटा सिंह मास्टर तारा सिंह ग्रुप के साथ जुड़े लेकिन अधिक दिन तक वहां नहीं रहे. उन्हें इंदिरा गांधी से मिलने का मौका मिला और वे कांग्रेस में शामिल हो गए.
राजीव युग में बूटा सिंह सरकार में परोक्ष रूप से नंबर 2 तक पहुंच गए और उन्होंने पीवी नरसिंह राव और पी शिवशंकर जैसे दो वरिष्ठ मंत्रियों को पीछे छोड़ दिया. राजीव गांधी तक उनसे ज्यादा पहुंच किसी की नहीं थी. बूटा सिंह की सीज़र या रास्पुतिन बनने जैसी महत्वाकांक्षा नहीं थी, लेकिन राजीव गांधी के सबसे खासमखास होने की अपनी साख से प्यार करते थे.
गृह मंत्री रहते कई राज्य सरकारें की बर्खास्त
1985-89 के बीच गृह मंत्री रहते हुए बूटा सिंह ने कई राज्य सरकारों को बर्खास्त किया. 1988 में राजीव गांधी ने मजाक में उनसे कहा था, “बूटा सिंह जी अब आप कृपाण अंदर रखिए.” दरअसल, राजीव मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा, राजस्थान, बिहार और अन्य राज्यों में नेतृत्व बदलने की ओर इशारा कर रहे थे.”
बूटा सिंह ने अयोध्या का जटिल मुद्दा सुलझाने की कोशिश भी की थी. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के साथ बूटा सिंह ने 1989 में साइट पर शिलान्यास कराया. उस साल राजीव गांधी के लोकसभा कैम्पेन के कर्ताधर्ता बूटा सिंह ही थे, जिसकी शुरुआत अयोध्या में सरयू नदी के किनारे “रामराज्य” के वादे के साथ शुरू हुई थी. लेकिन ये सब कोशिशें नाकाम रहीं और कांग्रेस साधारण बहुमत से चूक गई.
ऐसे खो गई बूटा की चमक, सियासी रसूख
बूटा सिंह की चमक और सियासी रसूख तब खो गया जब उन्होंने तेजी से राजनीतिक वफादारी बदलीं. वे बीजेपी में शामिल हुए और फिर कांग्रेस में वापस आ गए. उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया लेकिन उनकी कुटिल आदतों ने फिर उन्हें विवादों में ला दिया. बूटा सिंह ने 2005 में बिहार विधानसभा को भंग करने की सिफारिश की लेकिन उनके इस कदम की सुप्रीम कोर्ट ने तीखी आलोचना की. सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया कि बूटा सिंह ने जल्दबाजी से काम लिया और यूनियन कैबिनेट को गुमराह किया क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि जेडी(यू)-बीजेपी के नीतीश कुमार राज्य में सरकार बनाएं.
26 जनवरी 2006 को बूटा सिंह ने तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को फैक्स भेजकर अपने पद से इस्तीफा दिया. वक्त बीतने के बाद सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह ने उन्हें राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का चेयरमैन नियुक्त किया. उन्हें कैबिनेट दर्जे के साथ लुटियंस दिल्ली में विशाल बंगला भी मिला.
बूटा सिंह का नाम कई विवादों से जुड़ा रहा. 2000 में स्पेशल कोर्ट के जज अजीत भरिहोक ने जेएमएम घूस केस में पूर्व पीएम नरसिंह राव और बूटा सिंह को दोषी ठहराया. उन पर 1993 में जनता दल (अजित) और झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को अल्पमत कांग्रेस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को गिराने के लिए वोटिंग करने को घूस देने के आरोप थे. हालांकि बाद में ये फैसला उलट गया और 2002 मे राव और बूटा सिंह, दोनों को आरोपों से बरी कर दिया गया.
2009 लोकसभा चुनाव में बूटा सिंह राजस्थान के जालौर क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर खड़े हुए. जीवन के आखिरी पड़ाव में बूटा सिंह फिर कांग्रेस के साथ जुड़ गए.
कांग्रेस के बंटवारे के समय दिया था इंदिरा का साथ
बूटा सिंह इस बात पर जोर दिया करते थे कि वो हमेशा कांग्रेसी रहे. वो उन कुछ नेताओं में से एक थे जिन्होंने 1977-78 में कांग्रेस के बंटवारे के वक्त इंदिरा गांधी का साथ दिया था. कांग्रेस ने जब 24, अकबर रोड वाले पार्टी दफ्तर का रुख किया तो बूटा सिंह AICC महासचिव थे. तब मानवशक्ति, संसाधनों और वाहनों की भारी कमी थी, बूटा सिंह के लुटियंस, दिल्ली में कई दोस्त थे जिनमें से कई का राष्ट्रीय राजधानी में बड़ा ट्रांसपोर्ट कारोबार था. बूटा सिंह की जनपथ पर टूरिस्ट टैक्सी सर्विस चलाने वाले जगजीत सिंह से दोस्ती थी. उन्होंने पीली और सफेद कैब्स के बेड़े के लिए इस दोस्ती का इस्तेमाल किया. जब इंदिरा की सत्ता में वापसी हुई तो उन्होंने जगजीत की निस्वार्थ सेवाओं का ध्यान रखा और उन्हें चंडीगढ़ के पास एक विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया. ये वही क्षेत्र है जहां अब मोहाली टाउनशिप है.
सत्ता से बाहर होने पर कांग्रेस के पास पैसे की किल्लत थी. एक बार फिर बूटा सिंह की अभिनव सोच ने मदद की. प्रैक्टिस के तौर पर विजिट करने वाले सभी पार्टी नेताओं को नई पार्टी के लिए पैसा दान करने का आग्रह किया गया. दक्षिण के नेताओं और सांसदों ने हमेशा 100 रुपए या ज्यादा दान में दिए. उत्तर प्रदेश वाले और उनके बिहार में समकक्ष 10 से 20 रुपए भी देते थे, जिन्हें बूटा विनम्रता और गरिमा के साथ स्वीकार करते थे.
बूटा सिंह ने सोनिया और राहुल गांधी का नाम लिए बिना कहा था, “मेरे पास बहुत बहुत सी यादें हैं लेकिन ऐसा लगता है कि वफादारी की परवाह करने वाला कोई नहीं है.”
(पत्रकार रशीद किदवई 24 अकबर रोड और सोनिया ए बायोग्राफी के लेखक हैं.)