कैप्टन अमरिंदर सिंह....कुछ दिन पहले तक पंजाब की सत्ता पर विराजमान थे. कांग्रेस हाईकमान भी उन पर पूरा भरोसा दिखाती थी. पंजाब में तो उनकी पकड़ का कोई जवाब नहीं था. लेकिन अब सबकुछ बदल चुका है. पंजाब का कैप्टन कोई और बन लिया है, नवजोत सिंह सिद्धू ने इस्तीफा दे दिया है और अमरिंदर अभी भी अपनी भविष्य की राजनीति का फैसला नहीं ले पाए हैं.
कैप्टन के सामने बड़ी चुनौतियां
कहा जा सकता है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपनी राजनीतिक पारी में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. वे ऐसा फंस लिए हैं कि ना कांग्रेस में सक्रिय रह पा रहे हैं और ना ही बीजेपी में जाने का मन बना पा रहे हैं. राजनीति में किसी नेता के लिए इसे 'बुरा दौर' कहा जा सकता है. लेकिन ये पहली बार नहीं है जब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ऐसे दिन देखे हों. जैसी उनकी राजनीति रही है, उसे देखते हुए उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी में कई मौकों पर ऐसे उतार-चढ़ाव देखे हैं.
ऐसा ही एक किस्सा है 1998 के पंजाब विधानसभा चुनाव का जहां पर अमरिंदर सिंह पटियाला सीट गंवा बैठे थे. चुनाव हारना बड़ी बात नहीं थी, लेकिन उन्हें मात्र 856 वोट पड़े थे, ये सभी को हैरान कर गया था. खुद कैप्टन के लिए उस हार को स्वीकार करना आसान नहीं था. अब उस किस्से को समझने के लिए उस समय की पंजाब राजनीति पर एक नजर डालना जरूरी है.
शुरुआती राजनीतिक सफर
1980 के दशक में देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर अमरिंदर सिंह ने राजनीति में कदम रखा था. कांग्रेस को पंजाब में चेहरा चाहिए था और कैप्टन को भी एक मजबूत शुरुआत की दरकार थी. ऐसे में राजीव गांधी ने अपने 'दोस्त' अमरिंदर पर भरोसा जताया और अमरिंदर ने जीत हासिल कर उस भरोसे को हमेशा के लिए जीत लिया. लेकिन फिर चार साल बाद जब गोल्डन टैंपल पर सैन्य कार्रवाई हुई, तो कैप्टन कांग्रेस से ही नाराज हो लिए. उनका गुस्सा ऐसा रहा कि उन्होंने एक झटके में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और अकाली दल का दामन थाम लिया.
अमरिंदर की सबसे बड़ी हार
वहां पर कैप्टन की पारी ज्यादा लंबी नहीं चली. अकाली की सरकार में मंत्री जरूर बनाए गए थे, लेकिन सपने ज्यादा बड़े थे. इसी वजह से पंजाब की राजनीति में खुद को स्थापित करने के लिए कैप्टन ने साल 1992 में अपनी खुद की पार्टी बना डाली. नाम रखा- अकाली दल (पंथक). 6 साल अमरिंदर सिंह इस पार्टी के जरिए खुद को पंजाब का किंग बनाने की कोशिश करते रहे. लेकिन किंग बनना तो दूर उनकी राजनीति का सबसे बड़ा डाउनफॉल उसी दौर में देखने को मिल गया.
साल था 1998 जब पंजाब विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंदर अपनी पार्टी के दम पर सरकार बनाने के सपने देख रहे थे. खुद कैप्टन ने पटियाला सीट से लड़ने की ठानी थी. उम्मीद पूरी थी कि वे जीत का परचम लहरा देंगे. उनके सामने खड़े थे प्रोफेसर प्रेम सिंह चंदूमाजरा. कहा जा रहा था कि कांटे की टक्कर देखने को मिल सकती है. लेकिन मतगणना वाले दिन सारे प्रिडिक्शन फेल हो गए और प्रोफेसर प्रेम सिंह चंदूमाजरा ने इतने बड़े अंतर से जीत हासिल कर ली कि कैप्टन को अपने राजनीतिक करियर की सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा. उस चुनाव में कैप्टन की पार्टी तो बुरी तरह हारी ही, वे भी मात्र 856 वोट ले पाए.
फिर मुश्किल में, अगला कदम क्या?
उस हार के बाद ही कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया और फिर उसी पार्टी के सहारे पंजाब की राजनीति में अपना कद बढ़ाते चले गए. दो बार सीएम बने, पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे और कई मौकों पर मुश्किल में खड़ी पार्टी को सहारा भी दिया. लेकिन अब 2021 में कांग्रेस और कैप्टन अलग होने की राह पर हैं. घोषणा कोई नहीं हुई है लेकिन बयानों में तल्खी साफ महसूस की जा सकती है. अब ऐसे मुश्किल दौर में कैप्टन का अगला दांव क्या होगा, इस पर सभी की नजर रहने वाली है.