
बशीर बद्र का शेर है-
''उड़ने दो परिंदों को अभी शोख हवा में,
फिर लौट के बचपन के जमाने नहीं आते''
...जब आसमान में उड़ते परिंदे भी तिनका-तिनका बुनकर अपना घोंसला, एक ठिकाना बनाना चाहते हैं तो इंसान तो एक सामाजिक प्राणी है. एक आशियाना, रोजमर्रा की गृहस्थी के सामान और एक राष्ट्रीय पहचान अपने लिए कौन नहीं चाहता... लेकिन सबकी किस्मत एक जैसी हो जरूरी तो नहीं. हम बात कर रहे हैं दुनिया के उन करोड़ों शरणार्थियों यानी रिफ्यूजियों की जो अपने घरों, अपने मुल्कों से ना चाहते हुए भी दरबदर हैं. दुनिया में ऐसी आबादी की तादाद करोड़ों में हैं... लेकिन न इनके पास कोई अपना मुल्क है, न कोई अपनी पहचान और न ही कोई स्थायी ठिकाना.
...टूटी-बिखरी झोपड़ियों, टेंट में जीवन को ढकती-छुपाती, गंदगी और बेबसी के अंधकार में बसी इनकी अस्थायी बस्तियां यहां पल रही नई पीढ़ियों के अंधेरे भविष्य की बुनियाद पर जैसे-तैसे वक्त काट रही हैं. ऐसी बस्तियां न केवल भारत में बल्कि दुनिया के हर देश, हर हिस्से में फैली हुई हैं. देश की राजधानी दिल्ली में ही देखें तो ऐसी कई शरणार्थी बस्तियां हजारों 'बेमुल्क' जिंदगियों का अस्थायी ठिकाना हैं. दिल्ली के अलग-अलग कोनों में बिखरी पड़ीं ये बस्तियां कहीं तिब्बती शरणार्थियों तो कहीं कश्मीरी पंडितों, कहीं अफगानिस्तान-पाकिस्तान से भागकर आए हिंदुओं, म्यांमार-बांग्लादेश से आए रोहिंग्याओं, बांग्लादेश से आए आदिवासी और हिंदुओं के अस्थायी ठिकाने बने हुए हैं. न केवल दिल्ली बल्कि जम्मू में अफगानिस्तान से आए हिंदुओं, इंदौर में 5000 सिंधी हिंदुओं के कैंप, तमिलनाडु में श्रीलंकाई तमिलों के कैंप, जैसलमेर में लगे हिंदुओं के शरणार्थी कैंप ऐसे ही देशभर में बिखरे हुए हैं.
कई कारणों से दर-बदर होने को मजबूर लोग
यूएनएचआरसी के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया में हर मिनट औसतन 20 लोग हिंसा, युद्ध, आतंकवाद और प्राकृतिक आपदाओं और अन्य कारणों से अपना घर-बार छोड़कर भागने को मजबूर हो रहे हैं. आज के वक्त में दुनियाभर में करीब 8 करोड़ लोग शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हैं. इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा युवा आबादी है. इन कैंपों में पल रहे बच्चे और युवा स्थायी आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. कोरोना महामारी के इस संकट ने शरणार्थियों की समस्याओं को और बढ़ा दिया है.

भारत में भी कम नहीं शरणार्थियों की समस्याएं
यूएनएचआरसी के अनुमान के मुताबिक भारत में कुल 3 लाख के करीब शरणार्थी रहते हैं. इनमें सबसे ज्यादा चर्चा रोहिंग्याओं की होती हैं. जिनमें से अधिकांश अवैध रूप से बांग्लादेश और म्यांमार से भागकर यहां आए और वापस जाना नहीं चाहते. सरकार इन्हें वापस इनके मुल्क भेजना चाहती है. लेकिन वहां की सरकारें इन्हें अपनाने को तैयार नहीं हैं. नाउम्मीदी और अंधियारे भरे भविष्य के साये में इनकी नई पीढ़ियां पल रही हैं. यूएन का 1951 का चार्टर और 1967 का प्रोटोकॉल स्टेटलेस शरणार्थियों को संरक्षण देने की वकालत करता है लेकिन भारत ने इनपर हस्ताक्षर नहीं किया है. भारत में करीब 40 हजार रोंहिग्याओं के होने का अनुमान है लेकिन इनमें से सिर्फ 14 हजार को शरणार्थी दर्जा प्राप्त है बाकी को सरकार अवैध घुसपैठिया मानती है और वापस उनके देश भेजने की कार्रवाई को सरकार ने आगे बढ़ाया है. अभी पिछले हफ्ते ही दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर कालिंदी कुंज में रोहिंग्याओं के कैंप में आग लग गई थी और सैकड़ों शरणार्थी अपने अस्थायी शिविरों से भी दर-बदर हो गए.
क्या होता है स्टेटलेस होने का मतलब?
सीमाओं के जाल में उलझे स्टेटलेस शरणार्थियों की दिक्कतों को समझने के लिए 14 साल की एक रोहिंग्या लड़की की कहानी जानना बहुत जरूरी है. दो साल पहले ये लड़की असम बॉर्डर पर भारत में घुसपैठ करते लोगों के साथ पकड़ी गई थी. ये लड़की रोहिंग्या है और हिंसा के बाद म्यांमार से भागे अपने परिवार से बांग्लादेश के रिफ्यूजी कैंप में बिछड़ गई. असम के सिलचर में इसे भारतीय प्रशासन ने कैंप में जगह दी. इस लड़की को परिवार से मिलाने के लिए कई एनजीओ कोशिश में हैं.
इस लड़की ने विदेश मंत्रालय को भी चिट्ठी लिखी कि इसे परिवार से मिलाने के लिए वापस भेजा जाए. इस साल अप्रैल में इसे वापस लौटाने के लिए असम के अधिकारी म्यांमार से लगे मणिपुर के मोरेह बॉर्डर पर ले गए थे. लेकिन म्यांमार के अधिकारियों ने बॉर्डर के गेट तक नहीं खोले और इसे स्वीकार करने से ही इनकार कर दिया. इसके बाद से इस लड़की को सिलचर के नारी निकेतन में रखा गया है. स्थानीय एनजीओ इस लड़की को बांग्लादेश भेजने की मांग कर रहे हैं. संभावना है कि वहां के किसी रिफ्यूजी कैंप में उसके माता-पिता उसे मिल जाएं. लेकिन बांग्लादेश भेजने के बाद भी वो लड़की अपने परिवार से मिल जाए इसकी गुंजाइश कम ही है.

वीरान द्वीप बना रोहिंग्याओं का ठिकाना
भारत ही नहीं दुनियाभर में फैले करीब 8 करोड़ शरणार्थियों के हालात एक जैसे ही हैं. बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों का सबसे बड़ा कैंप है कॉक्स बाजार. बांग्लादेश में करीब 11 लाख रोहिंग्या शरणार्थी हैं. बांग्लादेश ने रोहिंग्याओं को बसाने के लिए उन्हें एक निर्जन खाली पड़े द्वीप भासन चार पर जबरन भेजना शुरू कर दिया है. ये निर्जन द्वीप समंदर के बीचोबीच 40 वर्ग किलोमीटर इलाके का एक जमीन का टुकड़ा है. यहां रह भी जाएंगे ये रोहिंग्या तो करेंगे क्या, खाना कैसे खाएंगे, रोजगार क्या मिलेगा इन्हें? ये सारे सवाल उनके सामने है. दुनियाभर के मानवाधिकार कार्यकर्ता इसकी आलोचना कर रहे हैं.
देश कोई भी हो, हालात एक जैसे
वैसे भी दुनिया का कोई भी हिस्सा हो शरणार्थियों की समस्याएं एक जैसी हैं. अफ्रीका में 44 लाख, यूरोप में 43 लाख, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में 38 लाख, मिडिल ईस्ट में 27 लाख, अमेरिका और साउथ अमेरिका के देशों में 7 लाख शरणार्थी रहते हैं. जो हिंसक संघर्षों, मिलिशिया की लड़ाई, आतंकवाद, प्राकृतिक आपदाओं और अन्य कारणों से अपने मुल्कों को छोड़कर कहीं शरण लेने को मजबूर हुए और इनमें से काफी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो अपने ही देश के किसी और हिस्से में शरणार्थी बनने को मजबूर हैं. इनका न कोई अपना घर है न अपनी कोई पहचान. अस्थायी शरणार्थी शिविर ही इनका घर है और राहत एजेंसियों से मिल रही मदद पर टिकी है इनकी जिंदगी.
अफ्रीका, अल्जीरिया, इथोपिया, अंगोला, कांगो, युगांडा, ग्रेट लेक्स, दारफुर, नाइजीरिया, सूडान, सोमालिया, वेस्टर्न सहारा, लीबिया, सीरिया जैसे इलाके शरणार्थियों की समस्याओं के लिए लंबे समय तक चर्चा में रहे हैं. वर्तमान में सबसे ताजा संकट इथोपिया का है. गृहयुद्ध से जूझ रहे अफ्रीकी देश इथोपिया के टिगरे इलाके में 90 फीसदी लोग भूखमरी के संकट से जूझ रहे हैं. नाइजीरिया में मिलिशिया समूहों की हिंसा 12 साल से जारी है. खासकर बोको हरम के हमलों से महिलाओं-बच्चियों की सुरक्षा को लेकर गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है.
इस महिला की कहानी आपको झकझोर देगी
कांगो की रिफ्यूजी क्राइसिस भी काफी बड़ी है. यहां हिंसा, मिलिशिया की लड़ाई, प्राकृतिक आपदाओं के कारण दो करोड़ 70 लाख लोग विस्थापित हुए हैं. कांगो का गोमा इलाका जहां मई के आखिरी हफ्ते में ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था वहां हजारों लोगों को घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. अचानक भड़के इस ज्वालामुखी विस्फोट ने पूरे इलाके में भयंकर तबाही मचाई. 32 लोगों की मौत हो गई, लावा से 4000 घर तबाह हो गए. तब से अबतक साढ़े चार लाख लोग इलाका छोड़कर भाग चुके हैं.

बड़ी संख्या में लोग पड़ोसी इलाकों में भाग गए तो हजारों लोग पड़ोसी देश रवांडा में भी शरण लेने को मजबूर हुए. गोमा का ये इलाका दशकों से हिंसक संघर्षों का शिकार रहा है. 50 साल की एक महिला जूलियन बुशाशायर की कहानी आपको झकझोर देगी. केवल छड़ी के सहारे चलने में सक्षम इस महिला को अपने 10 बच्चों के साथ ज्वालामुखी विस्फोट के बाद अचानक घर-बार छोड़कर भागना पड़ा. इससे पहले 2007 में भी इस महिला को मिलिशिया के हमले के कारण सबकुछ छोड़कर भागना पड़ा था. आज ये महिला एक रिफ्यूजी कैंप में अपने परिवार के लोगों के साथ रह रही है और घर लौटने की हाल-फिलहाल कोई उम्मीद भी नजर नहीं आती.
अफगानिस्तान का रिफ्यूजी मसला भी शरणार्थियों के संकट का एक बड़ा उदाहरण है. दशकों से आतंकवाद, तालिबान की हिंसक लड़ाइयों आदि के कारण करीब एक लाख अफगान नागरिक अपने ही देश में दरबदर हैं. हजारों लोग पाकिस्तान, ईरान और भारत समेत कई देशों में शरण लेने को मजबूर हैं.
वहीं, आज के वक्त में दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी संकट सीरिया का है. सीरिया में 11 साल से जारी हिंसक लड़ाई ने शहर के शहर बर्बाद कर दिए. लोगों को अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा. इन 11 सालों में 66 लाख सीरियन लोग शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं. सीरिया से 36 लाख लोग तुर्की में, 8 लाख लोग लेबनान में, 6 लाख जॉर्डन में, ढाई लाख इराक में, 1 लाख 30 हजार मिस्र में शरण लिए हुए हैं.
सीरिया युद्ध छिड़ने के बाद लाखों लोगों ने यूरोप में असाइलम मांगा था. कई देशों ने हजारों लोगों को शरण भी दी. लेकिन एक दशक बाद भी ये लोग शरणार्थी शिविरों में जीने को मजबूर हैं. इनकी नवजात पीढ़ियां इन्हीं कैंपों में बड़ी हो रही हैं और इनका भविष्य भी बेबसी, बदहाली और अंधकार के उस सुरंग में पल रहा है जहां से कोई रास्ता नहीं निकलता, जहां से कोई सुबह हासिल नहीं होती क्योंकि दुनिया का कोई भी इलाका हो दशकों से शरणार्थियों के हालात जस के तस हैं.