हम सात जन्मों तक साथ निभाएंगे...ये वादा हर हिंदू शादी में लिया जाता है. लेकिन क्या किसी रिश्ते को टिकाऊ बनाने के लिए सिर्फ वादे ही काफी हैं? अगर शादी से पहले ही कुछ ज़रूरी बातें तय हो जाएं तो शायद बाद में टूटने की नौबत ही न आए. जिस तरह बीते दिनों में पति पत्नी के रिश्तों में विश्वासघात और मर्डर कराने जैसी घटनाएं सामने आई हैं, वो विवाह संस्था पर बड़ा सवाल उठा रही हैं.
फिर चाहे वो दहेज कानूनों का हवाला देकर आत्महत्या करने वाले अतुल सुभाष का मामला हो या फिर मेरठ की मुस्कान का केस, जिसमें प्रेमी के साथ मिलकर पति को ड्रम में सीमेंट से जमा दिया गया. गोवा में यह एग्रीमेंट मान्य है लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में नहीं है. इसके पीछे की वजहों के बारे में जानिए. यह एग्रीमेंट कैसे मददगार हो सकता है, इस पर पुरुषों का पक्ष भी समझिए.
क्या होता है Prenuptial Agreement?
प्रेनप्चुअल एग्रीमेंट (Prenuptial Agreement) या प्रेनप एक लिखित अनुबंध या एग्रीमेंट या करार है जो विवाह से पहले दो व्यक्तियों के बीच संपत्ति, वित्तीय अधिकारों और दायित्वों को निर्धारित करता है. इसमें यह स्पष्ट किया जाता है कि विवाह के दौरान या तलाक होने पर या किसी साथी की मृत्यु होने पर संपत्ति और वित्तीय संसाधनों का विभाजन कैसे होगा.
अमेरिका (USA) में प्रेनप्चुअल एग्रीमेंट कानूनी रूप से मान्य हैं, ये दोनों पक्षों की सहमति से बनाया जाता है, वहीं कनाडा में इसे मैरेज कॉन्ट्रैक्ट्स और ऑस्ट्रेलिया में'बाइंडिंग फाइनेंशियल एग्रीमेंट्स' कहा जाता है. जर्मनी में भी ये नोटरी पर कानूनी दस्तावेज होता है. ये एग्रीमेंट इन देशों के फैमिली लॉ का हिस्सा हैं.
इंडिया में अभी ये लागू नहीं
भारत में प्रेनप्चुअल एग्रीमेंट के लिए कोई विशेष कानूनी प्रावधान नहीं है. सिर्फ गोवा राज्य में जहां पुर्तगाली सिविल कोड लागू है, वहां प्रेनप्चुअल एग्रीमेंट मान्य हैं. भारत में, विवाह को एक पवित्र संबंध माना जाता है और अधिकांश विवाह व्यक्तिगत कानूनों के तहत संपन्न होते हैं. इन कानूनों में प्रेनप्चुअल एग्रीमेंट का कोई उल्लेख नहीं है, जिससे उनकी कानूनी मान्यता संदिग्ध होती है. वहीं कुछ कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यदि ये अनुबंध भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं तो इन्हें एक सिविल अनुबंध के रूप में मान्यता दी जा सकती है.
भारत में किस तरह के एग्रीमेंट पर हो रही चर्चा
विदेशों में ये एक आम प्रैक्टिस है जहां शादी से पहले पति-पत्नी के बीच एक कानूनी दस्तावेज साइन किया जाता है. इस एग्रीमेंट में कुछ विशेष पॉइंट जो पहले ही तय किए जा सकते हैं जैसे-
- शादी के समय दोनों पक्षों की आर्थिक स्थिति क्या है.
- शादी में कौन कितना खर्च कर रहा है.
- दोनों की जॉब या आमदनी का क्या स्रोत है.
- अगर भविष्य में तलाक होता है तो संपत्ति और जिम्मेदारियां कैसे बंटेंगी.
कमज़ोर पक्ष का शोषण अब नहीं...
दिल्ली हाईकोर्ट की एडवोकेट शिखा बग्गा कहती हैं कि भारत में गृहिणियों का योगदान आज भी गंभीर रूप से कम आंका जाता है, जबकि वे परिवार और घर को संभालने में सबसे अहम भूमिका निभाती हैं. घरेलू कामकाज, बच्चों की परवरिश और बुजुर्गों की देखभाल, ये सभी काम बेहद demanding होते हैं, लेकिन इन्हें आर्थिक योगदान के रूप में नहीं देखा जाता. स्थिति और भी चिंताजनक तब हो जाती है जब किसी महिला की शादी टूट जाती है या पति की असमय मृत्यु हो जाती है. ऐसे हालात में गृहिणियां न सिर्फ आर्थिक रूप से निर्भर हो जाती हैं, बल्कि उन्हें ससुराल की संपत्ति में भी कोई अधिकार नहीं होता. बहू होने के नाते वे अक्सर विरासत के अधिकार से भी वंचित रह जाती हैं. इस अदृश्य श्रम को मान्यता देना, सामाजिक सुरक्षा देना और ऐसे कानूनी सुधार करना बेहद जरूरी है जो उन्हें उनका हक और सम्मान दिला सकें.
इसका सीधा अर्थ है कि जब भी शादी में टकराव होता है या एक पार्टनर की मौत हो जाती है तो अधिकतर मामलों में जो पार्टनर आर्थिक या सामाजिक रूप से कमज़ोर होता है, उसी का शोषण होता है. Prenup एग्रीमेंट एक ऐसा तरीका है जो दोनों पक्षों को बराबरी का हक और सुरक्षा देता है. उनका सुझाव है कि जिस तरह हिंदू विवाह में सप्तपदी (सात फेरे) एक रीति है, वैसे ही अगर इसे कानूनी दस्तावेज का रूप दे दिया जाए, तो ये शादी को और मजबूत बना सकता है.
शादी के बाद क्यों बिगड़ते हैं हालात?
दिल्ली हाईकोर्ट के एडवोकेट सुशील दीक्षित कहते हैं कि अब आए दिन सुनने को मिलता है कि कैसे झूठे घरेलू हिंसा के केस, दहेज कानून का गलत इस्तेमाल, लंबे-लंबे कोर्ट केस और फिर मेंटेनेंस की लड़ाई ये सब शादी जैसी पवित्र संस्था से युवा पीढ़ी का विश्वास उठा रहे हैं. अतुल सुभाष जैसा मामला इसके सबसे दुखद उदाहरणों में से एक है, जहां एक युवा पुरुष ने तलाक और कानूनी परेशानियों से घबराकर आत्महत्या कर ली. सवाल ये है कि अगर ऐसे एग्रीमेंट होते, तो क्या इन हादसों से बचा जा सकता था? इस पर अब विचार जरूर होना चाहिए. यही सही वक्त है.
क्या है इस मामले में पुरुषों का पक्ष
मेंस हेल्पलाइन के संचालक रोहित डोगरा इस विषय में थोड़ा अलग नजरिया रखते हैं. वो कहते हैं कि जब कोई भी सिविल एग्रीमेंट जेंडर के आधार पर आसानी से तोड़ा जा सकता है, तो ऐसे प्री-अग्रीमेंट का क्या मतलब? अगर वाकई ये काम करता तो महिलाएं म्यूचुअल डिवोर्स से U-Turn लेकर 'कैश इन हैंड' के बाद केस न करतीं.
वो आगे कहते हैं कि भारत में ज़्यादातर मैरिज एफिडेविट्स में लिखा होता है कि कोई दहेज नहीं लिया गया, फिर भी FIRs में डाउरी प्रोहिबिशन एक्ट की धाराएं जोड़ दी जाती हैं. गोवा में पुर्तगाली कानून के चलते ऐसे एग्रीमेंट्स मान्य हैं, लेकिन वहां भी फेक केस कम नहीं हुए. हमारे देश में झूठे आरोप लगाने पर कोई कानूनी जवाबदेही नहीं होती. ऐसे में कोई भी एग्रीमेंट कैसे टिकेगा?
क्या कहता है कानून?
एडवोकेट सुशील दीक्षित कहते हैं कि भारत में खासकर हिंदू मैरिज एक्ट में शादी को एक पवित्र संस्कार (sacrament) माना जाता है. मुसलमानों के निकाह की तरह इसे सिविल कॉन्ट्रैक्ट नहीं माना जाता, इसलिए इस तरह के एग्रीमेंट्स की कानूनी वैधता बहुत सीमित है. गोवा को छोड़कर भारत के अन्य राज्यों में इसे लागू करने के लिए हिंदू मैरिज एक्ट में संशोधन करना होगा.
क्या कहते हैं आंकड़े और केस?
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2022 के आंकड़ों के मुताबिक, हर साल लाखों घरेलू हिंसा और दहेज उत्पीड़न के केस दर्ज होते हैं.इनमें से कई में बाद में समझौता या झूठी शिकायत की बात सामने आती है.
- सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार माना है कि 498A (दहेज एक्ट) का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है. राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2017 के केस इसका एग्जाम्पल है.
इस एग्रीमेंट का उद्देश्य ये नहीं कि शादी से प्यार खत्म हो जाए बल्कि ये है कि किसी भी परिस्थिति में दोनों पार्टनर की गरिमा और सुरक्षा बनी रहे. इसलिए एग्रीमेंट को लेकर सबसे पहले एक राष्ट्रीय बहस की जरूरत है. इसमें कानूनी विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को साथ लाकर रायशुमारी होनी चाहिए. अगर हिंदू मैरिज एक्ट में बदलाव संभव नहीं तो वैकल्पिक civil agreements की व्यवस्था की जाए.