लेबनान और सीरिया में हुए सिसलिलेवार पेजर, वॉकी-टॉकी ब्लास्ट के बाद से इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद चर्चा में है. अपने जासूसी अभियानों और खुफिया मिशन को जिस तरह से मोसाद ने समय-समय पर अंजाम दिया है, उसके कारनामे किसी फंतासी कहानी से कम नहीं हैं. ऐसे में जब मोसाद की बात निकलती है तो दूर तक जाती है और भारत में ये चर्चा इतिहास तक पहुंचती है.
स्पाई, गु्प्तचरी और खुफिया तंत्र की बात जब होती है तो आचार्य चाणक्य नाम इसमें सबसे अव्वल दर्जे पर आता है. आचार्य चाणक्य के नाम की महत्ता इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि पौराणिक गाथाओं में मंत्रद्रष्टा ऋषियों-मनीषियों की जैसी कहानियां शामिल हैं, वह उसके जीते-जागते उदाहरण रहे हैं. भगवा वस्त्र, सिर पर शिखा, माथे पर त्रिपुंड और हाथ में दंड धारण करने वाला यह विद्वान सिर्फ संस्कृत, व्याकरण, राजनीति और अर्थशास्त्र का बुद्धिबली नहीं था, बल्कि योग, मल्ल युद्ध और कलरियपट्टू के जानकार होने के साथ शारीरिक बल में भी प्रवीण था.
चंद्रगुप्त को साधारण सैनिक से सम्राट बनाने वाले आचार्य चाणक्य
आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त को प्रशिक्षित करके एक साधारण सैनिक से राजा तो बनाया है, इसके साथ ही अपने बुद्धि और चातुर्य से भारत का सम्राट भी बनाया, जिसके साम्राज्य का विस्तार काश्मीर से आगे काबुल, कंधार, लाहौर (तक्षशिला) और सिंघु के पार फैले विशाल मैदानी-पठारी क्षेत्र तक था. दक्षिण में चंद्रगुप्त ने दक्षिणापथ तक अपना विस्तार कर लिया था. सेल्यूकस को हराकर उसे भारत से बाहर निकाला और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की. चाणक्य ने अत्याचारी और अय्याश हो चुके नंदवंश को समाप्त करने की ठान ली थी और ऐसा करके उन्होंने भारत को नया भविष्य दिया.
राज्य का जरूरी अंग है गुप्तचरी विधा
ये सब कुछ इतना आसान नहीं था, जिसे एक पैराग्राफ में समेट दिया जाए. ऐसा करने में चाणक्य की एक पूरी उम्र लग गई थी. अर्थशास्त्र में राजनीति के कई आयामों का जिक्र करते हुए वह एक अध्याय में राजा के लिए जरूरी बहुत से तथ्यों को लिखते हैं और हर अंग को विस्तार से समझाते हैं. इसमें सेना, मंत्री, दरबारी, संतरी और जनता सभी से जुड़ी बातों का जिक्र है.वहीं जब चाणक्य इसे विस्तार देते हैं तो गुप्तचरी विधा को राज्य और राजा के लिए सबसे जरूरी अंग बताते हैं.
चाणक्य लिखते हैं कि गुप्तचर राजा के लिए इंद्रियों की तरह हैं. वह राज्य के हर कोने में राजा की गु्प्त पहुंच का प्रतीक है, और इसके साथ ही राज्य के खिलाफ चल रहे हर षड्यंत्र की सूचना हैं. वह राजा की आंख, नाक और कान हैं और ऐसा बताते हुए, चाणक्य ने अर्थशास्त्र में जासूसी विद्या और गुप्तचर विद्या पर महत्वपूर्ण चर्चा की है. उन्होंने उनके चयन और उनके प्रकारों पर खास तौर पर जोर दिया है.
रसोइये, सेवक, पुजारी , विषकन्याएं, गुप्तचरों में कौशल होना जरूरी
चाणक्य लिखते हैं कि गुप्तचरों का चयन, उनकी बुद्धिमत्ता, चतुरता, और विश्वासपात्रता के आधार पर करना चाहिए. इसके साथ ही जासूसी का उद्देश्य विरोधियों की जानकारी इकट्ठा करना, उनकी योजनाओं को समझने, और अपनी रणनीतियों को बनाने में होना चाहिए. इस तरह राजा खुद को षड्यंत्रकारियों से दो कदम आगे रख सकता है. इन गुप्तचरों में रसोइये, सेवक, पुजारी, नर्तकियां और विषकन्याएं भी शामिल हैं.
गुप्तचरों के प्रकार
चाणक्य ने अपनी पुस्तक "अर्थशास्त्र" में गुप्तचरों (जासूसों) के कई प्रकारों का वर्णन किया है, लेकिन पहले उन्होंने सिर्फ दो प्रमुख प्रकार के गुप्तचरों का विशेष रूप से उल्लेख किया है.
इन्हें उन्होंने 'चर और स्थावर' का नाम दिया है.
संस्थागत गुप्तचर (स्थावर):
ये गुप्तचर किसी विशेष स्थान पर स्थायी रूप से रहते थे और उस स्थान की गतिविधियों की निगरानी करते थे.
वे दुश्मनों या संदिग्धों की योजनाओं और गतिविधियों के बारे में जानकारी इकट्ठा करते थे.
इन गुप्तचरों में मंदिरों के पुजारी, व्यापारी, और अन्य स्थानीय लोग शामिल होते थे, जिनकी भूमिका राज्य के लिए महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठा करना था.
भ्रमणशील गुप्तचर (चर):
ये गुप्तचर निरंतर यात्रा करते थे और विभिन्न स्थानों पर जाकर जानकारी प्राप्त करते थे.
उनका काम दुश्मन राज्यों, व्यापारिक मार्गों, और सीमावर्ती क्षेत्रों से जानकारी जुटाना था.
ये गुप्तचर साधु, भिक्षु, व्यापारी, या कलाकारों का रूप धारण करके घूमते थे ताकि उनकी पहचान छुपी रहे और वे आसानी से जानकारी इकट्ठा कर सकें.
इन दोनों तरह के गुप्तचरों का उपयोग राज्य की सुरक्षा, दुश्मनों की योजनाओं को समझने, और शासन में शांति बनाए रखने के लिए किया जाता था. चाणक्य की गुप्तचर प्रणाली में इनका विशेष स्थान था, और उन्होंने इसे राज्य संचालन का एक अहम हिस्सा माना था.
इसी आधार पर चाणक्य ने गुप्तचरों के प्रकार भी बताए हैं. चाणक्य ने गुप्तचरों को चार प्रकार में वर्गीकृत किया है.
1. कापटिक- वेश बदलकर जासूसी करने वाला
2. उदास्त - अपने आप को अज्ञात रखकर जासूसी करने वाला
3. टंक-मुद्रा - छाप या मुद्रा के माध्यम से जासूसी करने वाला
4. सांभाश्य - विश्वासपात्र बनकर भेद लेने वाला
इसके अलावा दो और भेद भी चाणक्य ने बताए हैं.
उदारगोप्त (सूचना एकत्र करने वाले): दुश्मनों की योजनाओं पर नजर रखते थे.
संज्ञाग्राही (सामान्य गुप्तचर): जो आम लोगों के बीच रहकर जानकारी जुटाते थे.
चाणक्य के जासूसों के कुछ प्रमुख कार्य
1. विरोधियों की जानकारी इकट्ठा करना
2. उनकी योजनाओं को समझना
3. अपनी रणनीतियों को बनाना
4. विरोधियों को भ्रमित करना
5. अपने पक्ष में लोगों को भर्ती करना
गुप्तचर व्यवस्था
चाणक्य ने गुप्तचरों के प्रकारों व कार्यों का भी विस्तार से वर्णन किया है, उनके मुताबिक, गुप्तचर विद्यार्थी गृहपति, तपस्वी, व्यापारी तथा विष -कन्याओं के रूप में हो सकते थे. राजदूत भी गुप्तचर की भूमिका निभाते थे. इनका कार्य देश-विदेश की गुप्त सूचनाएं राजा तक पहुंचाना होता था. ये जनमत की स्थिति का आंकलन करने, विद्रोहियों पर नियंत्रण रखने तथा शत्रु राज्य को नष्ट करने में योगदान देते थे. चाणक्य ने गुप्तचरों को राजा द्वारा धन व मान देकर सन्तुष्ट रखने का सुझाव दिया है.
कूटनीति आचरण के चार सिद्धांत
चाणक्य ने राज्य की विदेश नीति के सन्दर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन भी किया है. चाणक्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा तथा अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाओं द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है. दण्ड अर्थात् युद्ध का प्रयोग आखिरी उपाय के तौर पर किया जाना चाहिए. क्योंकि इससे खुद को भी नुकसान होता है.
गुप्तचरों के नामों का नहीं मिलता है जिक्र
चाणक्य के इन सिद्धांतों के साथ उनके प्रमुख गुप्तचर कौन थे, इसका जिक्र स्पष्ट रूप से कहीं नहीं मिलता है. गुप्तचर थे तो इतिहास में भी गुमनाम ही रहे और अब हजारों साल बाद भुला भी दिए गए हैं. फिर भी अलग-अलग कथा प्रसंगों में चाणक्य के कुछ गुप्तचरों के नाम मिलते हैं. इनमें शाकटदोष, कात्यायन, चारुदत्त, राधागुप्त और जीवसिद्ध की नाम प्रमुख तौर पर लिया जाता है, लेकिन ये नाम कितने सही हैं और क्या ये चाणक्य और चंद्रगुप्त के वाकई में गुप्तचर थे भी या नहीं इसका उल्लेख स्पष्ट नहीं मिलता है. हालांकि कल्हण की राजतरंगिणी और मुद्राराक्षस नाटक में जीवसिद्धि, जीवासिद्ध और चारु जैसे नाम लिखे मिलते हैं, लेकिन ये असल हैं या कल्पना, स्पष्ट नहीं हैं.
गुप्तचरण जीवसिद्धि की कहानी
जीवसिद्धि के बारे में आता है कि वह संन्यासी वेश में घूमने वाला और अपनी चमत्कारिक बातों के जरिए लोगों का भरोसा जीतने में माहिर गुप्तचर था. यानी कि चाणक्य के शब्दों में वह संभाष्य और कापाटिक दोनों ही था. उसका जिक्र तब कई बार आता है, जब नंदवंश की समाप्ति के बावजूद चंद्रगुप्त को राजा के रूप में स्थापित करने में समस्या आ रही थी. असल में नंद का प्रमुख मंत्री राक्षस, एक समय में तक्षशिला में आचार्य चाणक्य का ही सहपाठी था. चाणक्य उसकी बु्द्धि और बल दोनों से परिचित थे और उसकी कमजोरी भी समझते थे, लेकिन फिर भी राक्षस को अपने खेमे में करना आसान नहीं था. दूसरा ये कि चाणक्य राक्षस को मारना भी नहीं चाहते थे, क्योंकि इससे ज्ञान का अतुलित भंडार बेवजह खत्म हो सकता था.
कई बार बचाए सम्राट चंद्रगुप्त के प्राण
इसके लिए चाणक्य ने राक्षस के खेमे में अफवाह फैलवा दी कि जीवसिद्धी ज्योतिष के विद्वान हैं. चाणक्य की एक और खास नीति थी कि, दो गुप्तचरों को भी तब तक एक-दूसरे के बारे में पता न हो, जब तक कि बेहद जरूरी न हो जाए. राक्षस के सामने जीवसिद्धी को खुद को साबित करना था तभी वह उनके करीब पहुंच सकता था.जीवसिद्धि राक्षस से मिला और वर्षों पहले हुई एक गुप्त घटना उसके सामने खोल दी. जीवसिद्धि ने ग्रहों का खेल खेला, वास्तु का गुणा-गणित लगाया और बोला कि नंद के महल में दक्षिण दिशा के गुप्त कक्ष में एक रहस्य छिपा है, क्या वहां कोई भटकता जीव है, अतृप्त आत्मा?
उसके इस जवाबनुमा सवाल से राक्षस अचरज में पड़ गया क्योंकि सालों पहले धनानंद ने अपने एक ब्राह्मण विरोधी की हत्या कराई थी. जीवसिद्धी ने राक्षस का भरोसा जीत लिया. अब राक्षस जीवसिद्धि के साथ ही मिलकर चंद्रगुप्त की हत्या की योजना बनाने लगे. उसने जीवसिद्धी से कहा कि वह ग्रहचाल देखकर बताए कि चंद्रगुप्त को किस दिन मारा जाए.
राक्षस की योजनाओं को किया विफल
जासूस ने किसी खास दिन का जिक्र करते हुए त्राटक योग बता दिया और फिर यह सूचना चाणक्य तक पहुंचा दी गई. उस दिन चाणक्य पहले से ही सावधान थे. राजा के दरबार में जिस समय जहर लाया गया, चाणक्य ने लाने वाले को ही यह पीने को कह दिया. राजा के सामने उसे जहर पीना पड़ा और मारा गया. इस तरह जीवसिद्ध ने कई बार राक्षस का विश्वासपात्र बनकर चंद्रगुप्त के प्राण बचाए. इस तरह वर्षों तक राक्षस के साथ रहकर जीवसिद्धि ने उसका हृदय परिवर्तन भी किया और चाणक्य से उसकी संधि भी करा दी. ये गुप्तचरी विधा का चरम था. बाद में राक्षस चंद्रगुप्त का मंत्री बनकर भी रहा और राष्ट्रसेवा को समर्पित हो गया.