मुर्शिदाबाद हिंसा के पीछे की राजनीतिक साजिश का ब्यौरा देने के बाद, आज तक के स्पेशल इन्वेस्टिगेशन- 'ऑपरेशन मुर्शिदाबाद' ने अब एक और भयावह सच्चाई उजागर की है. प्रतिबंधित कट्टरपंथी समूह, चरमपंथियों से संबंध रखने वाले स्थानीय गैर सरकारी संगठन, तथा डिजिटल और जमीनी स्तर पर कट्टरपंथ की बढ़ती संस्कृति- ये सभी फैक्टर मुर्शिदाबाद में खुलेआम काम कर रहे हैं, और इनमें से कई स्थानीय प्रशासन के संरक्षण में काम कर रहे हैं.
एनजीओ या कट्टरपंथियों की लामबंदी के मोर्चे?
जंगीपुर में 8 अप्रैल को हुई झड़प के बाद स्थानीय पुलिस वक्फ से जुड़े किसी भी विरोध प्रदर्शन की अनुमति देने के पक्ष में नहीं थी और इस तरह के कार्यक्रमों को प्रतिबंधित किया था. लेकिन पश्चिम बंगाल पुलिस की इंटेलिजेंस विंग के सूत्रों ने आज तक को बताया कि इस प्रतिबंध को जानबूझकर दरकिनार किया गया. 10 अप्रैल को एसएससी शिक्षक भर्ती को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में एक रैली की घोषणा की गई थी, लेकिन यह जल्द ही वक्फ कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में बदल गई. जांचकर्ताओं का मानना है कि यह 11 अप्रैल को हुई हिंसा की तैयारी का हिस्सा था. आज तक ने दोनों रैलियों के एक्सक्लूसिव विजुअल हासिल किए हैं, जिसमें दोनों आयोजनों में एक ही तरह के लोगों को देखा गया है. यह 11 अप्रैल की वक्फ कानून विरोधी रैली के लिए पुलिस की मंजूरी नहीं होने के बावजूद कट्टरपंथियों की लामबंदी की ओर इशारा करता है.

विरोध प्रदर्शन के केंद्र में एक बैनर था जिस पर लिखा था 'सभी एनजीओ एकजुट हों'. लेकिन आज तक की जांच से पता चलता है कि तथाकथित सामूहिक मोर्चे को मुख्य रूप से सिर्फ दो संगठनों द्वारा संचालित किया गया था: असोमोयेर अलोर बाटी और गोल्डन स्टार ग्रुप. विभिन्न वीडियो फुटेज की समीक्षा करने और जांच में शामिल अधिकारियों से बात करने के बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि इस आंदोलन का नेतृत्व तीन व्यक्तियों - कौसर, मुस्तकिन और राजेश शेख ने किया था. तीनों को अब आधिकारिक तौर पर फरार घोषित कर दिया गया है. हालांकि, जमीनी सूत्रों ने आज तक को बताया कि वे बिल्कुल भी छिपे नहीं हैं, बल्कि स्वतंत्र रूप से घूम रहे हैं और किसी भी तत्काल कानूनी कार्रवाई से अछूते हैं. विरोध प्रदर्शन के आयोजन में उनकी भूमिका जांच के दायरे में है, साथ ही वह व्यवस्था भी जांच के दायरे में है जो अब तक उन्हें जवाबदेह ठहराने में विफल रही है.

टीएमसी युबो ब्लॉक कमेटी के एक जाने-माने सदस्य राजेश के पीएफआई से पुराने संबंधों रहे हैं. जिले के एलआईयू अधिकारियों का कहना है कि उसने 2018 के स्थानीय निकाय चुनावों में एसडीपीआई उम्मीदवार के लिए समर्थन भी जुटाया था. सिमी का पूर्व सदस्य डॉ. बशीर शेख भी मुख्य साजिशकर्ता के रूप में सामने आया है. स्थानीय डीआईबी इंस्पेक्टर राजीब ने आज तक के स्टिंग ऑपरेशन में चारों की भूमिका की पुष्टि की. उन्होंने कैमरे पर कहा, 'हां, दोनों सांप्रदायिक उकसावे में शामिल हैं... अभी फरार हैं.' ये नाम एमएलसी महबूब आलम जैसे राजनीतिक पद पर आसीन व्यक्तियों के साथ सामने आए हैं.
नाम न बताने की शर्त पर आज तक से बात करते हुए एक वरिष्ठ जांच अधिकारी ने कहा, 'ये एनजीओ जमीनी स्तर पर काम करने के लिए हैं- चाहे चुनाव के दौरान हंगामा खड़ा करना हो या हिंसा की योजना बनाना हो, वे हमेशा अग्रिम मोर्चे पर रहेंगे.' यह टिप्पणी उस बात पर प्रकाश डालती है, जिसे जांचकर्ता एक डीप इकोसिस्टम मानते हैं. इस इकोसिस्टम के तहत कम पहचान रखने वाले संगठन ऑपरेशनल आर्म्स के रूप में काम करते हैं, जबकि राजनीतिक प्रभाव वाले संगठन बैकग्राउंड में रहते हैं.
ब्लड डोनेशन की आड़ में फुट सोल्जर तैयार करते एनजीओ
मुर्शिदाबाद सांप्रदायिक हिंसा मामले में जो एनजीओ सवालों के घेरे में है, उसने पहले भी समसेरगंज और आसपास के इलाकों में ब्लड डोनेश कैम्पेन चलाकर प्रसिद्धि प्राप्त की थी. लेकिन आज तक की ग्राउंड रिपोर्टिंग से एक गहरी और ज्यादा परेशान करने वाली मंशा का पता चलता है. इन तथाकथित सामाजिक पहलों का इस्तेमाल कथित तौर पर स्थानीय युवाओं, जिनमें नाबालिग भी शामिल हैं, उनको विरोध प्रदर्शन के लिए जुटाने के लिए किया गया था. ऐसे ही एक नाबालिग ने आज तक को बताया, 'कौसर ने मुझे फोन किया और 11 अप्रैल के विरोध प्रदर्शन में आने को कहा.' आज तक द्वारा एक्सेस किए गए 11 अप्रैल के एक वीडियो में कौसर और मुस्तकिन लामबंदी में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए दिखाई दे रहे हैं.
आज तक ने जो आधिकारिक डेटा एक्सेस किया है उसके अनुसार, समसेरगंज में केवल 18 एनजीओ आधिकारिक तौर पर पंजीकृत हैं. हालांकि, जमीनी स्तर पर एक परेशान करने वाला पैटर्न सामने आया है- स्थानीय युवाओं की बड़ी संख्या एनजीओ शुरू कर रही है जैसे कि यह न्यू ट्रेंड हो. वेरिफाई करने पर पता चलता है कि इनमें से कई एनजीओ रजिस्टर्ड नहीं हैं, जिससे उनकी फाइनेंसिंग और इरादे पर गंभीर सवाल उठते हैं. कागज पर जो सामाजिक काम के रूप में दिखाई देता है, वह प्रायः कट्टरपंथ को बढ़ावा देने और युवाओं की लामबंदी के एक गहरे नेटवर्क को छिपाता है. स्थानीय प्रशासन द्वारा ऐसे संस्थाओं की कोई जवाबदेही भी तय नहीं की जाती.
आज तक से बात करने वाले एक अन्य नाबालिग ने बताया कि विरोध प्रदर्शन से पहले उसे एक पर्चा मिला था. उस बताया कि वह भी आगजनी में शामिल था, क्योंकि अन्य लोग ऐसा कर रहे थे. ये सब धर्म के नाम पर हो रहा था. इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि इन लड़कों को न तो यह पता था कि वक्फ का क्या मतलब है- और न ही वे नमाज पढ़ सकते थे. लेकिन वे लाठी, पर्चे और प्रोपेगेंडा के जरिए उन्हें दिए गए उद्देश्य से लैस थे. आज तक ने वक्फ बिल के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल कम से कम तीन नाबालिगों से बात की, जिनमें से दो ने आगजनी की घटनाओं में शामिल होने की बात स्वीकार की.
एक नाबालिग ने बताया कि घोष पाड़ा से गुजरते समय प्रदर्शनकारियों के खिलाफ नारेबाजी की गई थी और उन पर जुबानी हमले हुए थे. घोष पाड़ा मुख्य रूप से हिंदू बहुल इलाका है, जो समसेरगंज पुलिस स्टेशन के बहुत करीब स्थित है. नाबालिग ने यह भी दावा किया कि स्थानीय पुलिस ने उन्हें घोष पाड़ा में हुई घटना के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करने के लिए कहा था. इन खुलासों से जमीनी स्तर पर तनाव बढ़ाने में स्थानीय पुलिस प्रशासन की भूमिका के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा होती हैं.

क्या विरोध प्रदर्शन के लिए हो रही थी फंडिंग?
आज तक ने जब विरोध प्रदर्शन में शामिल कई नाबालिगों से बात की तो एक ही बात सामने आई- उन्हें पत्थरबाजी या हिंसा में शामिल होने के लिए कभी पैसे नहीं दिए गए. इसके बजाय, उन्होंने बताया कि उन्हें पैम्फलेट और स्थानीय लामबंदी अभियानों के जरिए बुलाया गया था. हालांकि, आज तक द्वारा एक्सेस किए गए विरोध प्रदर्शनों और उससे पहले के जलसों के वीडियो एक और परत को उजागर करते हैं. इन सभी जलसों में वक्ताओं ने बार-बार वक्फ बिल के खिलाफ विरोध और धरना जारी रखने के लिए समुदाय से योगदान देने की खुली अपील की. इन अपीलों को समुदाय की बेहतरी के लिए दान के रूप में प्रस्तुत किया गया था. लेकिन बिना किसी औपचारिक निगरानी, ऑडिट और जवाबदेही के, फंडिंग का पता लगाना असंभव है.
विदेशी या आतंकवाद से जुड़ी फंडिंग का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिला है, फिर भी पारदर्शिता की कमी ने गंभीर चिंताएं उत्पन्न की हैं. फिर भी, लोगों से बातचीत और जमीनी स्तर पर प्राप्त सूचनाओं के आधार पर जो बात सामने आई, वह यह है कि यह विरोध, मूलतः, कई मुस्लिम युवाओं के लिए स्वाभाविक था- जो पैसे से प्रेरित नहीं था, बल्कि इस भावनात्मक विश्वास से प्रेरित था कि उनकी भूमि और अधिकार खतरे में हैं. हालांकि, केंद्रीय खुफिया एजेंसियां अब उन एनजीओ पर कड़ी नजर रख रही हैं जिनके नाम मुर्शिदाबाद हिंसा के सिलसिले में सामने आए हैं. उनकी पिछली गतिविधियां, फंडिंग पैटर्न और संगठन जांच के दायरे में हैं.
आज तक की ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान, केंद्रीय खुफिया एजेंसियों के कम से कम चार अधिकारी- जो इंटेलिजेंस ब्यूरो से हो सकते हैं- पश्चिम बंगाल पुलिस की इंटेलिजेंस विंग के साथ काम मुर्शिदाबाद हिंसा की जांच करते हुए मिले. वे इनपुट एकत्र करते हुए और हिंसा के पीछे के नेटवर्क की मैपिंग करते हुए देखे गए. यह एक गहन, चल रही जांच का संकेत देता है जिसका दायरा आने वाले दिनों में बढ़ सकता है.
इस जांच में शायद सबसे ज्यादा चौंकाने वाला खुलासा यह हुआ कि दो स्थानीय इमामों ने आज तक को बताया कि कैसे अज्ञात लोगों ने उनसे संपर्क किया और उन्हें मस्जिदों से घोषणा करने का निर्देश दिया जिसमें नमाजियों से वक्फ के फैसलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने का आग्रह किया गया. दोनों ही घटनाएं शुक्रवार की नमाज से ठीक पहले हुईं- लोगों की उपस्थिति और आक्रोश को अधिकतम करने के लिए जानबूझकर ऐसा किया गया. हम इस रिपोर्ट में इमामों की पहचान उनकी सुरक्षा के लिए गुप्त रख रहे हैं, लेकिन उनके बयान रिकॉर्ड में हैं. एक इमाम ने दावा किया कि वह नहीं जानता कि वे व्यक्ति कौन थे, जबकि दूसरे से जब पूछा गया कि क्या वह उन्हें पहचान सकता है, तो उसने स्वीकार किया कि उनके हुलिए के आधार पर, वे उसके समुदाय के लग रहे थे.

बांग्लादेशी कनेक्शन और डिजिटल रेडिकलाइजेशन
11 अप्रैल की रैली से पांच दिन पहले, एक प्रमुख बांग्लादेशी इस्लामी वक्ता जलसा (धार्मिक सभा) के लिए समसेरगंज आए थे. आज तक की जांच में फेसबुक और व्हाट्सएप पर व्यापक रूप से प्रसारित कट्टरपंथी सामग्री का एक परेशान करने वाला पैटर्न सामने आया है, जिसमें कुछ पोस्ट बांग्लादेशी सोशल हैंडल्स से जुड़े हैं, जो सक्रिय रूप से ऐसी सामग्री को बढ़ावा दे रहे हैं. सबसे अधिक चिंताजनक पोस्ट मुर्शिदाबाद के बेलडांगा के एक फेसबुक यूजर की थी, जिसमें मुसलमानों से 'हथियार उठाने' और 'बच्चों को अग्रिम मोर्चे पर तैनात करने' का आग्रह किया गया था, जो विरोध प्रदर्शनों से पहले भड़काऊ संदेशों के खतरनाक रूप से बढ़ने को उजागर करता है. आज तक ने दंगों की जांच कर रहे अधिकारियों के साथ इन सोशल मीडिया अकाउंट्स का विवरण साझा किया, जिन्होंने पुष्टि की कि हिंसा से पहले इन प्लेटफॉर्म्स पर सांप्रदायिक, भड़काऊ वीडियो की बाढ़ आ गई थी.

एक परेशान करने वाले वीडियो में एक मुस्लिम मौलवी हिंदुओं के सामाजिक बहिष्कार का आह्वान करता हुआ दिखाई दिया- यह विभाजनकारी बयानबाजी का एक सेट पैटर्न दर्शाता है जो देश के अन्य हिस्सों में बहुसंख्यक समुदाय के नेताओं द्वारा की गई अपीलों से काफी मिलता-जुलता है. यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण का खेल किस तरह से कई मोर्चों पर चल रहा है. एसडीपीआई, जमात-ए-इस्लामी हिंद और जमात-ए-अहल-ए-हदीस जैसे समूहों द्वारा बांटे गए पर्चे और उनके नेताओं के भाषण भी ट्रेंड में थे- सभी ने वक्फ बिल के खिलाफ आक्रोश को बढ़ावा देने वाला नैरेटिव सेट किया. डीआईबी अधिकारी राजीब ने पुष्टि की, 'यहां स्लीपर सेल सक्रिय हैं. ये लोग जलसों के दौरान घरों में रहते हैं, और हमें नहीं पता कि बंद दरवाजों के पीछे क्या चर्चा होती है... यहां मदरसा गतिविधियों के कारण कट्टरपंथ फैल रहा है.'
पुलिस की मिलीभगत से हुई थी 12 अप्रैल की हिंसा?
11 अप्रैल का प्रदर्शन हिंसक था, लेकिन 12 अप्रैल को यह जानलेवा हो गया. आज तक के पास ऐसे वीडियो सबूत हैं, जिनसे पता चलता है कि हिंसा बढ़ने पर पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया- कुछ क्लिप में तो कथित तौर पर दंगाइयों की मदद भी की गई. डिस्ट्रिक्ट इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारी राजीब के अनुसार, डुक बंगला में स्थिति उस समय बिगड़ गई जब प्रदर्शनकारियों की संख्या पुलिस से अधिक हो गई. तभी भीड़ ने कथित तौर पर पास की रेलवे पटरियों से पत्थर उठाकर हमला करना शुरू कर दिया. इसके बाद जो हुआ वह बेहद सुनियोजित था- कई युवा, जो सीधे मदरसों से आए थे, हिंसा में शामिल होने से पहले अपने बैग में पत्थर भरते देखे गए. जांचकर्ताओं का मानना है कि यह पैटर्न पूर्व-नियोजित इरादे की ओर इशारा करता है, जो दैनिक जीवन की दिनचर्या में छिपा हुआ है, जिससे नुकसान होने तक पता लगाना लगभग असंभव हो जाता है.
अगले दिन दो लोगों की जान चली गई: हरगोबिंद दास और उनके बेटे चंदन दास पर समसेरगंज में हुई झड़पों के दौरान हमला किया गया. एक अन्य युवक एजाज की मौत सुती में पुलिस की गोलीबारी में हुई. उसके भाई ने बाद में मीडिया को बताया कि एसडीपीआई ने उसे विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए बुलाया था. जबकि अधिकांश आधिकारिक विवरण बताते हैं कि हिंसा 11 अप्रैल से 12 अप्रैल की सुबह तक फैली थी, कई प्रत्यक्षदर्शियों और स्थानीय सोर्स ने आज तक को बताया कि छिटपुट घटनाएं 13 अप्रैल तक जारी रहीं. इनमें आगजनी, पथराव और धमकी के छिटपुट मामले शामिल थे- जो दर्शाता है कि हिंसा का दौर डाक्यूमेंटेड टाइलाइन से ज्यादा समय तक चला और जमीन पर तनाव नियंत्रण से बहुत दूर रहा.
हिंसा में बाहरियों की भागीदारी की थ्योरी कितनी सही
बिहार या बांग्लादेश से आए बाहरी लोगों के कारण अशांति फैलने के राज्य सरकार के दावों के विपरीत, आज तक ने एक खुफिया नोट हासिल किया है, जिसमें वार्ड दर वार्ड स्थानीय लामबंदी का ब्यौरा दिया गया है. अब तक 306 से ज्यादा गिरफ्तारियां हुई हैं जिनमें ज्यादातर स्थानीय लोग हैं. घोष पाड़ा, हरिनगर और जंगीपुर जैसे हिंसा के केन्द्र एक-दूसरे के बहुत निकट स्थित हैं. जांच से पता चलता है कि बाहरी के रूप में पहचाने जाने वाले कई हमलावर वास्तव में झारखंड के पड़ोसी इलाकों से आए थे, जिनमें चंचकी, अजना, मोनीरामपुर और चांदपुर शामिल हैं. इलाके का मैप इस बात की पुष्टि करता है कि कैसे ये क्षेत्र बंगाल के जिन जगहों पर हिंसा हुई, उनसे सहज रूप से जुड़े हुए हैं, जो दर्शाता है कि हिंसा कितनी आसानी से सीमाओं के पार फैलती है.

यह हिंसा संगठित, स्थानीय और राजनीति से प्रेरित थी
मुर्शिदाबाद हिंसा कोई खुद से हुई घटना नहीं थी- यह राजनीतिक लामबंदी, डिजिटल कट्टरपंथ और जमीनी स्तर पर हेरफेर द्वारा संचालित एक सुनियोजित अभियान था, जिसमें पॉलिटिकल इंजीनियरिंग के स्पष्ट संकेत सामने आए हैं. आज तक ने दोनों समुदायों के स्थानीय लोगों से बातचीत की. उन्होंने सत्तारूढ़ दल के निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति गहरा असंतोष व्यक्त किया. सत्ता विरोधी भावना और बढ़ती अंदरूनी कलह ने माहौल तैयार कर दिया. प्रतिबंधित संगठनों, राजनीतिक समूहों और गैर सरकारी संगठनों के जाने-माने लोगों ने हिंसा की साजिश रची, जबकि प्रशासन ने या तो आंखें मूंद लीं या समय रहते निर्णायक कार्रवाई करने में विफल रहा.
इसके अलावा, हिंसा शुरू होने के बाद बहुसंख्यक समुदाय के कुछ लोगों द्वारा जवाबी कार्रवाई ने आग में घी डालने का काम किया. खुफिया अधिकारियों ने खुलासा किया है कि घोष पाड़ा के कुछ लोगों ने जवाबी कार्रवाई की, जिससे कट्टरपंथी भीड़ का हौसला और बढ़ गया. दंगे की वजह स्पष्ट हो गई: हिंदुओं को उनकी जमीन से बेदखल करना- यह प्रतिक्रिया अपनी गंवाने के गहरे डर से प्रेरित थी, खास तौर पर वक्फ अधिनियम के लागू होने के बाद. इस कथित खतरे ने सांप्रदायिक तनाव को हिंसक संघर्ष में बदल दिया. यदि कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार एजेंसियों ने 11 अप्रैल को निर्णायक कार्रवाई की होती तो 12 अप्रैल को हुए इस रक्तपात को रोका जा सकता था.
निष्कर्ष: मुर्शिदाबाद हिंसा सिर्फ एक दंगा या चेतावनी?
मुर्शिदाबाद में जो कुछ हुआ, वह महज एक सांप्रदायिक झड़प नहीं थी- यह एक उदाहरण था कि किस तरह राजनीतिक अनदेखी, कट्टरपंथी नेटवर्क और स्ट्रैटेजी के तहत फैलाई गईं गलत सूचनाएं एक साथ मिलकर एक क्षेत्र को अस्थिर कर सकती हैं. इतिहास गवाह है कि दंगे कभी भी अचानक नहीं होते. वे लगभग हमेशा ही योजनाबद्ध तरीके से होते हैं- दुर्घटनावश नहीं, बल्कि योजना के अनुसार. मुर्शिदाबाद हिंसा भी सिर्फ एक दंगा नहीं था, यह एक चेतावनी थी. चेतावनी थी कि जब कट्टरपंथ, सोशल मीडिया के जरिए उकसावा और प्रशासनिक चुप्पी आपस में टकराते हैं तो क्या होता है. और जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं- चाहे वे सड़कों पर हों या पर्दे के पीछे- उन्हें जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए.