महाकुंभ-2025 के महा आयोजन का आगाज हो चुका है. प्रयागराज के संगम तट पर श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ा हुआ है. शंख-घंटे-घड़ियाल, आरती की धुन के अलावा कोई और आवाज यहां नहीं सुनाई दे रही है. हर-हर गंगे का घोष संगमघाट पर गुंजायमान है तो वहीं हर-हर महादेव से शिवालय गुलजार हैं. इतने सारे दृश्य और आंखें सिर्फ दो. आखिर दो आंखों से कितना देखा जा सकता है? फिर भी जितना दिखाई दे रहा है, यह सब देखने वाले की याद में जीवन भर दर्ज रहेगा और फिर जब भी वह गंगाघाट और प्रयाग का जिक्र करेगा तो महाकुंभ के इन दृश्यों की अद्भुत, अलौकिक याद रोमांच से भर देगी.
नागा साधुओं का अलग ही रोमांच
महाकुंभ का यह जमघट अपने आप में रोचकता तो जगाता ही है, लेकिन इससे भी अधिक जिज्ञासा जगाते हैं कुंभ में आने वाले अखाड़े और इनके साधु. कोई भभूत लगाए, भस्म रमाए, कोपीन-लंगोट पहने, त्रिपुंड सजाए, शस्त्र उठाए, धूनी रमाए यहां-वहां दिख जाता है. इनमें से कई तो दिगंबर साधु होते हैं, जिन्हें देखकर ये सवाल सहज ही आता है कि हमारी ही तरह हाड़-मांस के शरीर से बने ये लोग आखिर हमसे कितने अलग हैं? उनके इस अवस्था तक पहुंचने की प्रक्रिया है? आखिर कोई साधु जब नागा बनता है तो इसकी दीक्षा कैसे लेता है?
इन सवालों के जवाब कई किताबों और मीडिया रिपोर्ट में मिलते हैं. हालांकि सभी के पास सिर्फ उतनी ही जानकारी है, जितना उन्हें किसी अखाड़े की ओर से जानकारी में बता दिया गया. मशहूर इतिहास लेखक सर यदुनाथ ने इस विषय पर खूब लिखा है. इसी तरह पत्रकार और लेखक धनंजय चोपड़ा ने भी अपनी किताब (भारत में कुंभ) में इस विषय पर डिटेल में बात की है.
नागा संन्यासी बनने की कठिन है प्रक्रिया
किताब की मानें तो नागा संन्यासी बनना, यानी बेहद ही कठिन प्रक्रिया और साधना से गुजरना. यह पूरी प्रक्रिया कोई एक दिन, एक साल या एक बार की बात नहीं है, बल्कि ये सभी कुछ वर्षों की साधना की सतत प्रक्रिया है. इसमें कुछ विधान तो इतने कठिन हैं, कि उनके बारे में जानकार आम आदमी की रूह कांप जाए. नागा साधु बनने की प्रक्रिया में लिंग निष्क्रिय (तंगतोड़) किया जाता है, इससे पहले एक क्रिया पंचकेश (शरीर के सभी भागों के बाल उतारना) होती है. ब्रह्म मुहूर्त में 108 बार की डुबकी और फिर विजया हवन भी इसमें शामिल है.
प्रवेश की इच्छा, ब्रह्मचर्य का पालन है पहली शर्त
नागा साधु बनने के लिए जरूरी है इच्छाशक्ति, लेकिन सिर्फ इच्छा ही काफी नहीं है. जो भी कोई नागा संन्यासी बनने का इच्छुक होता है, उसे पहले दो-तीन वर्षों तक अखाड़े के इतिहास, परंपरा आदि को ठीक तरीके से समझना होता है. गुरु की सेवा, अखाड़े के कार्यों में सहयोग और सहभागिता बेहद जरूरी होती है. इस दौरान प्रवेशी पर समय-समय पर नजर भी रखी जा रही होती है कि कहीं वह मोह में भटक तो नहीं रहा है. इन वर्षों में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है.
कई बार घर लौटा दिए जाते हैं साधु
2-3 साल को इस दौर में अगर यह पाया जाए कि साधु नियम मानने में कोताही बरत रहा है, या फिर भटक रहा है तो उसे परिवार में वापस लौट जाने को कह दिया जाता है. अधिकांश अखाड़े तो उसी समय कई इच्छुक लोगों को बार-बार वापस होने के लिए कहते हैं, जब वह संन्यास लेने के लिए अखाड़े में पहुंचते हैं. फिर भी वह अपने फैसले पर अडिग रहता है तो परिवार की सहमति के बाद ही उसे अखाड़े में रहने और सेवा की अनुमति दी जाती है.
यहां से शुरू होते हैं असली संस्कार
3 साल के इस परीक्षण और जांच की प्रोसेस के बाद सफल व्यक्ति को 'महापुरुष' घोषित करके उसका पंच संस्कार किया जाता है. इस प्रक्रिया में भगवान शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु के रूप में स्थापित किया जाता है. व्यक्ति को अखाड़े में उसके गुरु द्वारा नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत और अन्य नागा संन्यासियों के प्रतीक चिह्न दिए जाते हैं.
गुरु काटते हैं शिष्य की शिखा, मिलती है महापुरुष की उपाधि
इस दौरान गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की शिखा (सिर के बाल या चोटी) काटते हैं. महापुरुष बनाए जाने से पहले गुरु शिष्य से तीन बार सांसारिक जीवन में लौटने का आग्रह करते हैं. यदि वह लौटने से मना कर देता है, तो उसे संन्यास जीवन की प्रतिज्ञा दिलाकर महापुरुष बना दिया जाता है.
अगले चरण में बनते है 'अवधूत', सबसे पहले होता है पंचकेश
जब संन्यासी महापुरुष बन जाते हैं तो फिर अगली प्रक्रिया 'अवधूत' दीक्षा की होती है. यह प्रक्रिया बेहद लंबी और मुश्किल है. जिस दिन से ये प्रोसेस शुरू होनी होती है, उस दिन की शुरुआत सुबह ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4 बजे से) होती है. नित्यकर्म और पूजा-पाठ के बाद सभी अपनी-अपनी मढ़ियों में इकट्ठा होते हैं. यहाँ से वे अपने-अपने गुरु और महंत के नेतृत्व में नदी (प्रयाग में संगम तट, हरिद्वार में गंगा तट आदि) पर कतार में खड़े होते हैं. यहां पर नाई पंचकेश संस्कार के तहत सभी के सिर, मूंछ, दाढ़ी और शरीर के बाल हटा देते हैं, जिससे उन्हें नवजात शिशु के समान कर दिया जाता है.
17 पिंडदान करते हैं संन्यासी
मुंडन के बाद ये नदी में स्नान करते हैं और अपनी पुरानी लंगोटी त्यागकर नई लंगोटी धारण करते हैं. गुरु इन्हें जनेऊ पहनाते हैं और दंड-कमंडल और भस्म भी देते हैं. इसके बाद इनसे 17 पिंडदान करवाया जाता है, 16 उनके पूर्वजों के लिए और एक स्वयं का. इस पिंडदान के साथ ही वे खुद को मृत मान लेते हैं, उनका पूर्व जन्म समाप्त हो जाता है, और वे सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं. नए जीवन का संकल्प लेकर वे अपने-अपने अखाड़े में लौटते हैं.
24 घंटे की प्रोसेस, 108 डूबकियों के साथ बनते हैं अवधूत
अखाड़े में देर रात को विजया हवन होता है. इसके बाद मध्य रात्रि में आचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर इन्हें दीक्षा देते हैं और गुरुमंत्र देते हैं. गुरुमंत्र को प्रेयस मंत्र भी कहा जाता है. इसे देने से पहले अंतिम बार सांसारिक जीवन में लौटने की सलाह दी जाती है.गुरुमंत्र प्राप्त करने के बाद ये सभी धर्म-ध्वजा के नीचे बैठकर "ऊँ नमः शिवाय" का जाप करते हैं. सुबह चार बजे इन्हें फिर से नदी तट पर लाया जाता है, जहां ये 108 डुबकियां लगाकर स्नान करते हैं और दंड-कमंडल का त्याग कर देते हैं. यहां से लौटकर वे अपने गुरु से अपनी चोटी कटवाते हैं. इसी के साथ सभी महापुरुषों का अवधूत संस्कार पूरा हो जाता है.
'अवधूत' बनने की इस 24 घंटे की प्रक्रिया के दौरान सभी को उपवास रखना पड़ता है. अखाड़े में अवधूत संन्यासियों को विशेष सम्मान और स्थान दिया जाता है.
क्या होती है दिगंबर दीक्षा, नागा बनने की ओर अगला कदम
इन्हें अखाड़े में प्रवेश के बाद रुद्राक्ष की माला पहनाई जाती है. यदि कोई साधु सांसारिक जीवन की ओर झुकाव दिखाता है, तो उसे कड़े अनुशासन और निगरानी में रखा जाता है. यह निगरानी शिविरों में होती है, जहां उनकी योग्यता और निष्ठा परखी जाती है. जो इस प्रक्रिया में खरा उतरता है, उसे नागा संन्यासी घोषित कर दिया जाता है. अवधूत बनने के बाद साधु को ‘दिगंबर’ दीक्षा लेनी होती है. यह दीक्षा कुंभ मेले के अवसर पर शाही स्नान से ठीक पहले दी जाती है. यह प्रक्रिया बेहद गोपनीय होती है, इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है. इस प्रोसेस के दौरान भी सिर्फ वरिष्ठ साधु ही भाग लेते हैं.
तंगतोड़ विधि, यानी लिंग निष्क्रिय करना
वरिष्ठ नागा साधु बताते हैं कि दिगंबर बनने की प्रक्रिया नए साधुओं के लिए सबसे कठिन होती है. इस प्रक्रिया के तहत, साधु को अखाड़े की धर्म-ध्वजा के नीचे 24 घंटे तक बिना कुछ खाए-पिए रहना होता है. इसके बाद अनुभवी साधु वैदिक मंत्रोच्चार के बीच एक विशेष प्रक्रिया को पूरा करते हैं, जिसे 'संतोड़ा' या 'तंगतोड़' कहा जाता है. इस प्रक्रिया में लिंग को निष्क्रिय कर दिया जाता है.
अमृत (शाही स्नान) स्नान के साथ मिलती है पूर्ण नागा की मान्यता
यह शारीरिक और मानसिक तपस्या का चरम रूप है. इस क्रिया के बाद, सभी नव नागा साधु शाही स्नान के लिए जाते हैं. इसके साथ ही उन्हें पूर्ण नागा साधु के रूप में मान्यता दी जाती है.
कुंभ के बाद, ये साधु तपस्या के लिए हिमालय की ओर जाते हैं. यहां वे कठोर तप और संन्यासी जीवन के कठिन प्रशिक्षण से गुजरते हैं. यह प्रशिक्षण शास्त्र और शस्त्र दोनों का होता है. अगले कुंभ तक ये साधु वहीं रहते हैं. कुंभ में लौटने पर इन्हें नई जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं.