छत्तीसगढ़ के बस्तर के घने जंगलों और दुर्गम पहाड़ियों में एक समय बंदूक थामे खड़ी महिला नक्सली भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती थीं, लेकिन अब ये तस्वीर बदल रही है. जिन कंधों पर कभी हथियार थे. वो अब अपने कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी उठा रही हैं.
सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि बस्तर में ये बदलाव अचानक नहीं आया, बल्कि ये सालों की मेहनत और आम लोगों के विश्वास का नतीजा है, जिसमें सबसे बड़ा मोड़ अब आया जब खुद महिलाएं नक्सली संगठन को छोड़कर मुख्यधारा में लौटने का फैसला किया.
केंद्रीय गृह मंत्रालय और सुरक्षा एजेंसियों के आंकड़ों के अनुसार, 2024 और 2025 में नक्सलियों के खिलाफ मुठभेड़ों में मारी गई एक-तिहाई से ज्यादा नक्सली महिलाएं थीं. 2024 में कुल 217 नक्सली मारे गए, जिनमें 74 महिलाएं थीं. जबकि 2025 में जून तक 195 नक्सलियों में से 82 महिलाएं मारी जा चुकी हैं.
ये आंकड़े बताते हैं कि नक्सली संगठन अब महिलाओं को जबरन लड़ाई की सबसे आगे की कतार में खड़ा कर रहा है. साथ ही ये सरकार की रणनीति की सफलता को भी दिखाता है जो नक्सलियों के कट्टर समर्थकों तक पहुंच रही है.
2024 में 1440 नक्सलियों का खात्मा
महिलाओं के आत्मसमर्पण की संख्या भी यह बताती है कि अब सोच बदल रही है. 2024 में 1,440 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें सैकड़ों महिलाएं थीं. इनमें कई के सिर पर इनामी घोषणाएं थीं. लेकिन उन्होंने सरकार की पुनर्वास नीति और संवेदनशील रवैये पर भरोसा किया.
छोटी बच्चियों को बना रहे हैं टारगेट
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, नक्सली संगठन अब बच्चों और खासकर बच्चियों को अपना टारगेट बना रहे हैं. सूत्रों के अनुसार, झारखंड और छत्तीसगढ़ के दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में बाल दस्ते बनाए गए हैं, जहां 10–12 साल की मासूम बच्चियों को डराकर, बहला-फुसलाकर या कभी-कभी लालच देकर संगठन में शामिल करने की कोशिश में जुटा है. उनके माता-पिता को धमकाया जाता है, उन्हें ये भी यकीन दिलाया जाता है कि सरकार उनकी दुश्मन है.
पहले दिए जाते हैं छोटे-छोटे काम
सूत्रों के मुताबिक इन बच्चियों को नक्सल संगठन में भर्ती कर पहले फुट सोल्जर बनाया जाता है. उन्हें खाना पकाने, हथियार ढोने, मैसेज पहुंचाने जैसे काम दिए जाते हैं. जब वे थोड़ा बड़ा सोचने लगती हैं और सवाल करती हैं तो उन्हें मारपीट और अपमान का सामना करना पड़ता है. बहुत-सी महिला पूर्व नक्सलियों ने बताया कि वे केवल इस्तेमाल की चीज़ थीं. उनकी कोई पहचान नहीं थी, कोई सम्मान नहीं था. जब वे घायल होती थीं, तब भी इलाज नहीं मिलता था और अगर वे मर जाती थीं तो उन्हें एक नंबर बना दिया जाता था.
सरकार ने सुरक्षा बलों को अब निर्देश है कि सरेंडर करने वाली महिला नक्सलियों के साथ पूरी संवेदनशीलता से व्यवहार किया जाए. उन्हें न सिर्फ कानूनी सुरक्षा दी जाए, बल्कि उन्हें सम्मान, आजीविका और एक नई पहचान दी जाए. इन महिलाओं को सिलाई, बुनाई, मुर्गी पालन, बकरी पालन जैसे कार्यों में प्रशिक्षित किया जा रहा है. साथ ही उनके बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला, छात्रवृत्ति और स्वास्थ्य कार्ड जैसी सुविधाएं दी जा रही हैं.
कमजोर हो रहे नक्सली
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि नक्सली अब कमजोर हो रहे हैं. उनके पास नए कैडर नहीं आ रहे हैं. युवा अब संगठन में शामिल होने के बजाए पढ़ाई और नौकरी की तरफ बढ़ रहे हैं. मजबूरी में वे महिलाओं और बच्चों को आगे कर रहे हैं, लेकिन ये रणनीति भी अब उल्टी पड़ रही है. क्योंकि महिलाएं समझ रही हैं कि असली आजादी बंदूक से नहीं, शिक्षा और सम्मान से आती है.
बस्तर ओलंपिक और पंडुम उत्सव जैसे आयोजन अब वहां की नई पहचान बन गए हैं. लाखों युवाओं की भागीदारी ने ये साबित कर दिया है कि बस्तर अब विकास के रास्ते पर है. पहले जहां बच्चे जंगल में छिपकर बंदूक चलाना सीखते थे, अब वे मैदान में दौड़ते हैं, कबड्डी, तीरंदाज़ी और फुटबॉल में मेडल जीतते हैं. पालनार जैसे गांव जो कभी वीरान हो गए थे, अब फिर से जीवन से भर गए हैं.