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जिनसे आप लेते हैं फ्री धनिया-मिर्च, जानें कितना कमा लेते हैं दिल्ली के वो सब्जीवाले

सालों पहले दिल्ली में आकर बसे उत्तर प्रदेश और बिहार के बहुत से लोग सब्जी बेचकर अपनी आजीविका चला रहे हैं. कुछ के पास सब्जी बेचने के लिए अपनी दुकान है तो कुछ ठेले लगाकर सब्जी बेचने का कारोबार कर रहे हैं. सब्जी वालों की कमाई में भी काफी अंतर देखने को मिलता है.

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दिल्ली में उत्तर प्रदेश और बिहार से आए बहुत से लोग सब्जी बेचकर अपना गुजारा करते हैं (Photo- Reuters)
दिल्ली में उत्तर प्रदेश और बिहार से आए बहुत से लोग सब्जी बेचकर अपना गुजारा करते हैं (Photo- Reuters)

पूर्वांचलों की बसाई हुई पूर्वी दिल्ली का मंडावली, फजलपुर इलाका...घने बसे इस क्षेत्र में पूर्वी दिल्ली के सबसे बड़े बाजारों में से एक बाजार लगता है. दिल्ली के सबसे पुराने गांवों में गिने जाने वाले मंडावली में अधिकतर लोग उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसे हुए हैं. इनमें से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनका परिवार आधी सदी पहले से यहां रह रहा है. राममुनि देवी भी पांच दशक पहले अपने पति के साथ मंडावली आ गई थीं. शादी के ठीक बाद उत्तर प्रदेश के हाथरस से दिल्ली पहुंची राममुनि देवी ने पति के साथ सब्जी बेचना शुरू किया था और अब उन्हें सब्जी बेचते 50 साल हो गए हैं.

72 साल की राममुनि देवी बताती हैं कि कुछ साल पहले उनके पति ने उन्हें छोड़ दिया और अब वो अपने दो बेटों के साथ रह रही हैं. ठेले पर हर तरह की हरी साग बेच रही राममुनि कहती हैं, 'पति ने छोड़ दिया... लेकिन मैंने सब्जी बेचना नहीं छोड़ा. क्या करती, मजबूरी है. घर था वो भी जाते-जाते बेच गया मेरा पति. अब किराए पर रहती हूं. बेटे कमाते हैं, लेकिन उन्हें ही पूरा नहीं हो पाता. मैं थोड़े पैसे कमा लेती हूं तो अपनी दवा-दारू का हो जाता है. कुछ पोते-पोतियों को दे देती हूं.'

राममुनि बताती हैं कि वो गाजीपुर सब्जी मंडी से सब्जी लेने सुबह 4-5 बजे चली जाती हैं और घर आकर सब्जियों को छांटती-बीनती हैं फिर 4 बजे से ठेला लगाकर सब्जियां बेचती हैं. इस पूरी प्रक्रिया में मेहनत बहुत लगता है लेकिन कमाई बहुत कम होती है. वो कहती हैं, 'सब्जी बेचकर क्या ही फायदा होता है. मान लो एक हजार की सब्जी लेकर आई तो 1,100 या 1,200 रुपये आ जाते हैं... कई बार तो जितने की सब्जी लाती हूं, उतना पैसा भी नहीं निकल पाता.'

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Representative Photo- PTI

इसी बीच एक ग्राहक राममुनि से मूली के भाव में तोलमोल करने की कोशिश करता है. ग्राहक के चले जाने के बाद राममुनि कहती हैं, 'देखा न बेटा... 25 रुपये किलो मूली बताई तब भी इन्हें ज्यादा लग रही. यहां भी पांच रुपये कम कराने है. यही मॉल में जाएंगे न, 100 रुपये भी मिले तो बिना मोलभाव कराए चुपचाप खरीद लाएंगे. गरीब आदमी दो पैसे कमा ले, इनसे देखा नहीं जाता.'

पढ़ाई छोड़ ठेले पर बेच रहे सब्जी

राममुनि देवी के पास ही विवेक अपनी सब्जी का ठेला लेकर खड़े ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं. 17 साल के विवेक को दो साल पहले लीवर अल्सर हो गया जिसके बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. वो कहते हैं, 'पहले मुझे लीवर अल्सर हुआ फिर पापा को हो गया जिसके बाद मैंने पढ़ाई छोड़कर पापा के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया.'

विवेक बताते हैं कि सब्जी बेचने का काम उनके दादाजी ने शुरू किया था. वो कहते हैं, 'जब यह मंडी बनी तब दादा जी ने सब्जी बेचना शुरू किया. पापा बताते हैं कि दादा जी पहले खुद खेती करते थे लेकिन जब यहां बस्तियां बसीं तो खेती का काम रुक गया. बाद में पापा भी इसी बिजनेस में लग गए.'

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विवेक बताते हैं कि उनका मन स्कूल जाने का होता है लेकिन पैसों की किल्लत के चलते वो स्कूल नहीं जा पाते. वो कहते हैं, 'सरकारी स्कूल में पढ़ता था, पैसे तो नहीं लगते थे लेकिन पापा जब बीमार पड़े तो स्कूल छोड़ सब्जी बेचना पड़ा. घर में कोई कमाने वाला था नहीं, घर का किराया, पापा की दवा, खाना-पीना...खर्चे ही खर्चे हैं. सब्जी बेचने से कम से कम दाल-रोटी चल जाती है.'

इंदिरा कांड के समय छूटा काम, शुरू कर दिया सब्जी बेचना

65 साल के सागर सिंह उत्तर प्रदेश के एटा जिला से हैं और सालों से सब्जी बेचने का काम कर रहे हैं. वो बताते हैं, 'जब 10 साल का था, दिल्ली आ गया. उस वक्त जमनापार कुछ था ही नहीं, सब जंगल ही जंगल... ये सब तो बाद में बसा. 1984 में जब इंदिरा कांड हुआ तब ये कॉलोनी तो बस ही रही थी. मैं उस दौरान 16-17 साल का था और मैंने नया-नया चिनाई का काम सीखा था. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हर तरफ डर का माहौल था, दंगे भड़क गए थे. हम तो 5 बजे ही छत पर चढ़ दुबक जाया करते थे. माहौल इतना खराब था कि नया सीखा काम छोड़ना पड़ा. फिर मैंने सब्जी बेचना शुरू किया और आजतक वही कर रहा हूं.'

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Representative Image- Getty

सागर सिंह मंडावली के बाकी सब्जीवालों की तरह ही गाजीपुर मंडी से सब्जी लाते हैं. वो बताते हैं, 'रोज पांच बजे घर से निकल जाता हूं. रिक्शा वाले मंडी से यहां तक सब्जी लाने के 100 रुपये लेते हैं. रोजाना 1,000 या 1,200 की सब्जी लाता हूं. कमाई तो क्या ही होती है, रोज के 200-300 रुपये कमा लिए तो बहुत है. कभी-कभार साग, सब्जी सड़ी-गली निकल आती है तो बड़ा नुकसान हो जाता है.'

48 साल की राजेश्वरी देवी भी मंडावली में ठेला लगाकर सब्जी बेचती हैं. कोविड के दौरान पति सब्जी बेचकर वापस जा रहे थे, तभी एक दुर्घटना में उनकी मौत हो गई.

राजेश्वरी पहले तो बात करने में हिचकिचाती हैं, फिर बताती हैं, '30 साल हो गए सब्जी बेचते, पति थे तो उनके साथ बैठती थी. लेकिन अब चले गए. उनके जाने के बाद अकेले सब्जी बेचने में शर्म आती है. लेकिन सब्जी बेचने आ जाती हूं ताकि दो पैसे आ जाए, बच्चों के आगे हाथ न फैलाना पड़े. दो बच्चे हैं, एक बेटी, एक बेटा. दोनों कमाते हैं, रोज मना करते हैं कि मम्मी सब्जी बेचने मत जाओ, हमें शर्म आती है. शर्म तो मुझे भी आती है लेकिन उनके सामने पैसों के लिए हाथ पसारने में और ज्यादा शर्म आती है इसलिए सब्जी बेचने आ जाती हूं.'

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वो बताती हैं कि परिवार पहले झुग्गी में रहता था. पति ने सब्जी बेचकर बचाए पैसों से गाजियाबादा के खोड़ा गांव में 35 गज (लगभग 312 स्कॉयर फीट) जमीन खरीदी थी और उसी पर झुग्गी बना ली. 10 साल पहले झुग्गी वाली जगह पर पक्का मकान बनवा लिया था और राजेश्वरी अपने बच्चों के साथ अब वहीं रहती हैं.

वो कहती हैं, 'गुजारा कर रहे हैं. अपने पैरों पर खड़ी हूं, इतना संतोष है कि किसी से मांगती नहीं हूं. अब बेटी की शादी करनी है, उसके लिए जोड़-तोड़ कर रही. कई रिश्ते आए, कोई उसे पसंद नहीं आता तो कोई दहेज ज्यादा मांग रहा. सब्जी बेचकर कितना ही दहेज दे पाऊंगी मैं, बताओ...'

'रोज कुआं खोदना, रोज पानी पीना है...'

37 साल के दानिश मंडावली सब्जी मार्केट में ही प्याज बेचते हैं. वो कहते हैं कि सब्जी बेचना बहुत मेहनत का काम है लेकिन मेहनत के हिसाब से फायदा नहीं हो पाता.

दानिश कहते हैं, 'पांच सालों से सब्जी बेच रहा हूं. यहां मजदूरी वाला हिसाब है... रोज कुआं खोदना है, रोज पानी पीना है. जब महंगी हो जाती है प्याज तो एक तो मंडी में माल नहीं मिलता और जब मिल जाए तो बाजार में बिकता नहीं ज्यादा, महंगाई की वजह से लोग कम खरीदते हैं. अब सस्ती है तो बिक तो जाती है लेकिन फायदा कम होता है.'

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दानिश सब्जी वालों की एक और मुश्किल के बारे में बताते हुए कहते हैं, 'गर्मियों में तो सब्जियां बिक जाती हैं, लोग खूब खरीदते हैं लेकिन सर्दियां आते ही लोग एक बार बनाते हैं सब्जी और दो बार खाते हैं... खराब नहीं होती न. सर्दी की वजह से भी लोग सब्जी खरीदने बाहर आने में भी दस बार सोचते हैं. सर्दियों में धंधा मंदा पड़ जाता है.'

दानिश अपनी पत्नी और दो साल के बेटे के साथ किराए के मकान में रहते हैं. बताते हैं कि एक दिन में 600-700 रुपये की कमाई हो जाती है. वो आगे कहते हैं, 'इतने पैसे में खाना-पीना तो हो जाता है, 6000 किराया भी दे ही देता हूं किसी तरह. लेकिन अगर कभी बच्चा बीमार पड़ जाए तो सोचना पड़ता है कि डॉक्टर की फीस कहां से आएगी, दवाएं कैसे लाऊंगा.'

UPI पेमेंट सिस्टम से हुआ फायदा, बच जाते हैं पैसे

सब्जी बेचने वालों को यूपीआई पेमेंट सिस्टम के आने से फायदा हुआ है और अधिकतर सब्जी वालों ने इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया है. 

उत्तर प्रदेश के बदाऊं से आकर दिल्ली में सब्जी बेच रहे सुरेश बताते हैं कि इससे उनको 'ग्राहकों का नुकसान' नहीं होता. वो कहते हैं, 'पहले जब मेरे पास क्यूआर कोड नहीं था तब मुझे ग्राहकों का नुकसान हो रहा था. जिनके पास कैश नहीं होता, वो वापस लौट जाते थे, मेरे सामने ही किसी दूसरे ठेले वाले से सब्जी ले लेते थे. इसलिए कुछ दिनों पहले मैंने अपने नंबर से क्यूआर कोड लगा लिया.'

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Representative Image- Reuters

पिछले 12 सालों से सब्जी बेच रहे अरविंद कुमार कहते है, 'जो ग्राहक ऑनलाइन पेमेंट कर देते हैं, वही पैसा बच पाता है मेरे पास. बाकी जो कैश आता है वो तो कहां खर्च हो जाता है पता नहीं चल पाता... ऑनलाइन पेमेंट के होने से एक तो मेरा ग्राहक लौटकर नहीं जाता, दूसरी, बचत हो जाती है थोड़ी-बहुत.'

'पैसे की वजह से नहीं बनवा पा रहा ठेला'

सुरेश बताते हैं कि वो रोज 300-400 रुपये कमा लेते हैं लेकिन इतने पैसे में परिवार चलाना काफी मुश्किल होता है. उनके परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं. वो कहते हैं, 'सब्जी में कमाई पूंजी लगाने के ऊपर है. मैं जितनी पूंजी लगाऊंगा, उसी हिसाब से मुनाफा होगा. लेकिन इधर मेरे पास पूंजी नहीं है. ठेला खराब हो गया, 700 रुपये इसे बनवाने में लग गए.'

50 साल पुरुषोत्तम यादव बताते हैं कि उन्होंने 12 साल पहले सब्जी बेचने के लिए 7,500 रुपये में ठेला बनवाया था. आज भी वो उसी ठेले पर सब्जी बेचते हैं लेकिन सब्जी बेचकर वो दिन का 400-500 रुपये ही कमा पाते हैं. चौपहिया ठेले के आगे का दाहिना पहिया दिखाते हुए वो कहते हैं, 'ये पहिया खराब है... कम से कम 11-12 सौ रुपये लग जाएंगे. अब उतने पैसे न हो रहे हैं, न मैं इसे बनवा रहा.' 

10 रुपये टमाटर... फ्री का धनिया... कहां से होगी कमाई?

पुरुषोत्तम यादव बात करते हुए अपने ग्राहकों को सब्जी भी बेच रहे हैं. इसी बीच एक बुजुर्ग महिला सब्जियों के साथ हरी धनिया फ्री में मांगती हैं. वो बिना किसी ना-नुकर के एक छोटी मुट्ठी धनिया पत्ता निकालकर महिला की तरफ बढ़ा देते हैं.

फिर मुझसे कहते हैं, 'धनिया, मिर्च पैसों से खरीदकर लाते हैं लेकिन अगर ग्राहक मांग दे तो फ्री में देना पड़ता है... 10 रुपये टमाटर हो रखा है फिर भी ये कम कराने लग जाते हैं. हम जिस कीमत पर मंडी से सब्जी लाते हैं, कुछ लोग उससे भी कम कीमत पर सब्जी मांगने लगते हैं... क्या करें... कैसे होगी कमाई? सब्जी खराब निकल जाए तो अलग नुकसान होता है हमें.'

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लाइट्स का अलग खर्चा

जितेंद्र कुमार ने कुछ महीनों पहले ही सब्जी बेचना शुरू किया है. उनके ठेले पर छोटे आकार के टमाटर भरे पड़े हैं जो लाल रंग की रोशनी में और ज्यादा लाल दिख रहे हैं.

वो कहते हैं, '10-15 रुपये बिक रहे हैं टमाटर. इसमें भी अगर न बिके तो माल निकालने के चक्कर में और सस्ता बेच देते हैं...कम से कम सड़ेगा तो नहीं और चार पैसे हाथ में भी आ जाएंगे.'

शाम होते ही सभी सब्जी वालों के ठेले पर लगीं लाइटें जल उठती हैं. बैटरियों पर जलने वाली ये लाइटें उनकी नहीं हैं बल्कि एक लाइट वाला उन्हें रोजाना के किराए पर दे जाता है. 

जितेंद्र बताते हैं, 'ये लाइट किराए की हैं... यहां जितने भी सब्जी वाले हैं, सब किराए पर ये लाइट लेते हैं. एक लाइट के लिए 20 रुपये देना होता है और अगर तीन ली तो 50 रुपये लगते हैं. रात को जब हम अपना काम समेटते हैं तब वो अपनी लाइटें ले जाता है.'

'सब्जी बेचकर हो जाती है अच्छी कमाई'

सुनील मंडावली के श्रीराम चौक पर सब्जी की दुकान लगाते हैं. प्लास्टिक के टेंट से ढकी उनकी दुकान बड़ी है और वहां रंग-बिरंगी मौसमी-बेमौसमी सब्जियों की भरमार है. उनके पास ग्राहकों की भीड़ थोड़ी ज्यादा है और उन्होंने अपनी मदद के लिए एक हेल्पर भी रखा है.

करीने से रखी हुई सब्जियों पर हाथ फेरते हुए सुनील कहते हैं, '45 सालों से हम सब्जी लगा रहे हैं. पहले पापा बेचते थे, उनके साथ मैं भी बैठ जाता था. छठी तक पढ़ाई की, फिर सब्जी बेचने लगा. पापा के जाने के बाद मैंने ये बिजनेस संभाल लिया.'

सुनील बताते हैं कि हर रोज उनके दुकान पर 10-12 हजार का 'सौदा' आता है और मुनाफा भी अच्छा खासा हो जाता है. वो कहते हैं, 'अभी तो हर दिन बारह-पंद्रह सौ रुपये की कमाई हो जाती है. गर्मियों में कमाई थोड़ी बढ़ जाती है. रोज सोलह-अठारह सौ आ जाते हैं.'

सब्जी की कमाई से खरीद लिया फ्लैट

जनार्दन महतो के पिता 50 साल पहले बिहार से दिल्ली आ गए थे. वो पहले किसी फैक्टरी में काम करते थे लेकिन 38 साल पहले उन्होंने सब्जी का काम शुरू कर दिया. जनार्दन बताते हैं, 'पिताजी के जमाने में जमीन सस्ती थी, इधर की जमीन को कोई पूछता नहीं था. उन्होंने सब्जी बेचकर ही जमीन खरीद ली और इस पर कच्चा मकान बनवा लिया था. बाद में पैसे हुए तो एक मंजिला पक्का मकान बनवाया.'

जनार्दन महतो ने अपने घर के ग्राउंड फ्लोर पर ही दुकान बना ली है जहां वो सब्जी बेचते हैं. यहां उनके 75 साल के पिता भी सब्जी बेचने में उनका हाथ बंटाते हैं. जनार्दन अपने घर पर लगी टाइल्स की तरफ दिखाते हुए कहते हैं, 'एक साल पहले ही मैंने और मेरे छोटे भाई ने मिलकर यह चांर मंजिला मकान बनवाया है. सब्जी के बिजनेस में मेहनत तो है लेकिन अच्छी कमाई हो जाती है, तभी तो यह मकान चमचमा रहा है. कुछ लोन है, धीरे-धीरे चुका देंगे.'

कमाई पूछने पर जनार्दन बताने में थोड़ा हिचकिचाते हैं. सामने बैठे उनके पिताजी कहते हैं, 'इसमें छिपाने जैसा कुछ नहीं है. अपनी मेहनत का खा रहे हैं. महीने में अच्छी कमाई हो जाती है. 70-80 हजार तो आ जाते हैं आराम से.'

'चाहता हूं कि बेटे को सब्जी न बेचना पड़े'

जनार्दन की तरह ही अखिलेश महतो और उनके भाई रमेश महतो दुकान में सब्जी बेचते हैं. दोनों भाइयों ने 20 साल पहले सब्जी बेचना शुरू किया था और आज सब्जी बेचकर ही फ्लैट, दुकान खरीद लिया है. 

अखिलेश महतो बताते हैं, 'छोटे भाई के साथ 20 साल पहले दिल्ली आ गया था, घर की हालत ठीक नहीं थी तो पिताजी ने बिहार से कमाने दिल्ली भेज दिया. यहां आकर सब्जी की ठेली लगानी शुरू की. खूब मेहनत किया, सुबह 4 बजे मंडी चले जाते थे. 8-9 बजे घर आना, फिर सब्जियों को छांटना, बीनना... 4 बजे से ठेला लगाना और देर रात तक सब्जी बेचना. अब भी वही रुटीन है, बस फर्क इतना है कि रोज ठेला नहीं लगाना पड़ता, अपनी दुकान हो गई है. एक तरफ छोटा भाई लगाता है, एक तरफ मैं.'

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अखिलेश महतो का 10 साल का बेटा निखिल भी स्कूल से लौटकर शाम को सब्जी बेचने में पिता की मदद करता है. वो कहते हैं, 'बेटे को अच्छे स्कूल में पढ़ा-लिखा रहे हैं ताकि उसे हमारी तरह सब्जी न बेचना पड़े. मैं नहीं चाहता कि वो भी मेरी तरह सब्जी बेचे. इसमें पैसे तो हैं लेकिन वैसी इज्जत नहीं है. इच्छा है कि बेटा अच्छी नौकरी करे, इज्जत पाए. मैंने तो कमाकर 25 लाख का फ्लैट खरीद लिया. भाई के साथ मिलकर दुकान भी ले ही ली है. कुछ कर्ज है, चुका रहा हूं धीरे-धीरे.'

अखिलेश महतो फिर बेटे की तरफ देखकर कहते हैं, 'पढ़ने में भी होनहार है निखिल... पांचवीं क्लास में है, खेल-कूद में भी आगे ही रहता है. देखते हैं क्या करेंगे हमारे लाट साहब!' पिता की बात सुन निखिल मुस्कुरा देता है.

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