उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1977 की अपनी उस अधिसूचना को लागू नही करने पर बिहार सरकार की जमकर खिंचाई की जिसमें माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों को अन्य सरकारी कर्मचारियों की भांति ही 'प्रोन्नति के अवसर' का प्रावधान है.
न्यायमूर्ति सुरिंदर सिंह निज्जर और न्यायमूर्ति एच एल गोखले की पीठ ने कहा, 'राज्य सरकार के रूख से बहुत सारे शिक्षको में अनावश्यक चिंता घर कर गयी है. राज्य सरकार को अहसास करना चाहिए कि जिस देश में इतनी अधिक निरक्षरता है और जहां बड़ी संख्या में पहली पीढ़ी के छात्र हैं, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षकों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है.'
पीठ ने कहा, 'उनके साथ सम्मानजनक बर्ताव किया जाए और उन्हें उचित वेतनमान और प्रोन्नति के अवसर दिए जाएं. निश्चित तौर पर राज्य सरकार से ऐसी उम्मीद नहीं है कि वे वे उन्हें वषरें तक अदालती पचड़े में डालें. न्यायालय ने बिहार राज्य सरकारी माध्यमिक विद्यालय शिक्षक संघ के अनुरोध को स्वीकार करते हुए यह टिप्पणी की.
शिक्षक संघ यह मांग करते हुए शीर्ष अदालत पहुंचा था कि वह राज्य सरकार को 35 साल पुरानी उस अधिसूचना को लागू करने का निर्देश दे जिसमें उनके कैडर को बिहार शिक्षा सेवा संघ के द्वितीयक ग्रेड के अधिकारी वर्ग में विलय करने करने का प्रावधान है ताकि उन्हें भी प्रोन्नति के अवसर मिले. फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति निज्जर ने इस बात सख्त आपत्ति जतायी कि राज्य सरकार ने अपना रूख बदल लिया, अधिसूचना लागू करने में देरी की तथा उच्च न्यायालय से उच्चतम न्यायालय तक मुकदमेबाजी का तीन चक्कर कटवाया.
न्यायालय ने इस बात पर भी नाखुशी जतायी कि पटना उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश और खंडपीठ ने तीसरी बार मुकदमे की नये ढंग से सुनवाई की जबकि उच्चतम न्यायालय पहले ही इस पर फैसला सुना चुका था. उसने कहा, 'हम राज्य सरकार और कम से कम उच्च न्यायालय से ऐसे दृष्टिकोण की आशा नहीं करते हैं.' शीर्ष अदालत ने पटना उच्च न्यायालय की इस बात के लिए भी खिंचाई की उसने इस तथ्य की उपेक्षा की कि शीर्ष अदालत पहले ही इस पर सुनवाई कर चुकी है और मामले को तय कर चुकी है.
उच्चतम न्यायालय ने 42 पृष्ठों के आदेश में कहा, 'अदालतों के अधिक्रम के अनुसार उच्च न्यायालयों को इस अदालत के फैसले एवं उसके जारी आदेशों की व्याख्या को स्वीकार करना चाहिये. इससे हटने का मतलब अनुशासनहीनता और अराजकता होगी. उसने कहा, 'उच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 141 को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं जो स्पष्ट रूप से कहता है कि इस अदालत द्वारा घोषित कानून भारत के अंदर आने वाली सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी हैं.'
उसने कहा, 'उसी सुर में, हम यह भी कहना चाहेंगे कि जब किसी अदालत के फैसले पर उपरी न्यायालय मुहर लगाती है तो न्यायिक अनुशासन कहता है कि वह अदालत उस फैसले को स्वीकार करें और उसे मुहर लग चुके फैसले के विपरीत फैसले लिखना नहीं चाहिए.' सरकार द्वारा नियुक्त एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि शिक्षा विभाग अभियंताओं के पदों के लिए लोकनिर्माण विभाग के कैडर से प्रतिनियुक्ति के आधार पर उनकी सेवाएं ले सकता है. शेष पद सामान्य कैडर में शामिल किया जाए तथा जहां तक संभव हो उन पर बिहार शिक्षा सेवा के अधिकारियों को तैनात किया जाये.
रिपोर्ट स्वीकार कर ली गयी थी और 11 अप्रैल, 1977 को अधिसूचना जारी की गयी लेकिन उसे लागू नहीं किया गया. उसके बाद उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक मुकदमेबाजी का तीन दौर चला.