बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन में परिवर्तन के बाद भूमिहार समुदाय की राजनीतिक अहमियत बढ़ गई है. कांग्रेस से लेकर जेडीयू, बीजेपी और आरजेडी तक भूमिहारों पर मेहरबान नजर आ रही हैं. कभी लालू प्रसाद यादव ने 'भू-रा-बा-ल साफ करो' का नारा दिया था, लेकिन उनके बेटे तेजस्वी यादव भूमिहार समाज को गले लगाने की बात कर रहे हैं. बिहार में करीब तीन दशक तक राजनीति में हाशिए पर रहने वाले भूमिहार अगर एकाएक खास हो गए हैं तो इसकी वजह भी हैं.
तेजस्वी यादव के पिता और आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने 'भू-रा-बा-ल साफ करो' का नारा दिया था. ये नारा भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) समुदाय को राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक करने के लिए था. लालू यादव के इस नारे के चलते आरजेडी के साथ-साथ तेजस्वी यादव के लिए आगे की सियासी राह मुश्किल हो रही थी. तेजस्वी अपनी पार्टी को एम-वाई के दायरे से निकलकर ए-टू-जेड की पार्टी बनाने में लगे हैं.
आरजेडी के टिकट पर भूमिहार समुदाय से आने वाले अनंत सिंह 2020 में विधायक बने और अब उनकी पत्नी नीलम देवी विधायक हैं. आरजेडी ने इसी साल एमएलसी चुनाव में भूमिहार समुदाय के पांच नेताओं को टिकट दिया था, जिनमें से तीन जीतकर विधान परिषद पहुंचे. राज्यसभा भी तेजस्वी ने भूमिहार समुदाय से आने वाले अमरेंद्र धारी सिंह को भेजा. भूमिहार-ब्राह्मण एकता मंच फाउंडेशन की ओर से आयोजित परशुराम जयंती के मौके पर आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कहा था कि अगर बिहार में भूमिहार समाज और यादव एकजुट हो जाएं तो कोई हमें सत्ता से दूर नहीं कर सकता. आरजेडी की बदलती सियासत समझने के लिए यह बयान काफी है.
नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह की जगह भूमिहार समुदाय से आने वाले कद्दावर नेता राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को जेडीयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया. कांग्रेस ने हाल ही में ब्राह्मण की जगह भूमिहार समाज से आने वाले अखिलेश प्रसाद सिंह को अपना बिहार प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. नीतीश कुमार के साथ गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी ने भूमिहार समुदाय के विजय कुमार सिन्हा को नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी सौंपी है. एलजेपी (रामविलास) पार्टी के प्रमुख चिराग पासवान ने भी भूमिहार से संबंध रखने वाले डॉ अरुण कुमार को अपनी पार्टी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया है.
बिहार में भूमिहार की सियासी ताकत
बिहार में सवर्ण समुदाय की आबादी करीब 18 फीसदी है, जिसमें सबसे ज्यादा भूमिहार समुदाय से है. बिहार में भूमिहार 6 फीसदी हैं तो ब्राह्मण 5.5 और राजपूत 5.5 फीसदी के करीब. बिहार में सियासी तौर पर भूमिहार समाज काफी प्रभावी रहा है. राज्य में अधिकतम जमीन जायदाद इसी समुदाय के पास होने के चलते दूसरी अन्य जाति के वोटरों को भी ये प्रभावित करते हैं. आजादी के बाद भूमिहार समुदाय कांग्रेस का परंपरागत वोटर रहा, लेकिन बीजेपी के उदय के बाद उसका कोर वोट बैंक बन गया. बिहार विधानसभा के 243 में से 64 विधायक सवर्ण हैं, जिनमें से 21 भूमिहार हैं.
लालू यादव ने दलित-पिछड़ों को जोड़ा था
बिहार में 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने सर्वणों के खिलाफ दलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा को एकजुट कर एक नई राजनीतिक ताकत खड़ी की थी. लालू यादव ने 'भू-रा-बा-ल साफ करो' का नारा देकर खुद को स्थापित किया था. आरजेडी ने मुस्लिम, यादव, पिछड़े, अतिपिछड़ों के वोटों के सहारे अपनी सियासत को आगे बढ़ाया. बाद में आरजेडी से पहले दलित छिटका और फिर अति पिछड़ा. नीतीश कुमार ने कुर्मी-कोइरी के साथ अति पिछड़ा के दम पर अपनी सियासत को आगे बढ़ाया तो रामविलास पासवान दलित राजनीति के सहारे सत्ता की बैसाखी बनते रहे.
बीजेपी ने बिहार में सवर्ण वोटों को अपने साथ साधकर रखा, लेकिन ओबीसी की सियासत के चलते सत्ता उससे दूर रही. पार्टी अब अपने कोर वोट बैंक के साथ-साथ दलित और अतिपिछड़े वोटों को अपने पाले में लाने की कवायद कर रही है तो दूसरी पार्टियां भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत वोटों में सेंधमारी के प्रयास में हैं. दलित-अति पिछड़ा वोट बिखरने के बाद सभी राजनीतिक दलों को लगने लगा है कि बिहार में सत्ता की कुर्सी बिना सवर्ण वोटों के संभव नहीं है.
बिहार में हाल में एमएलसी चुनाव और विधान परिषद के उपचुनाव में भूमिहार समुदाय ने बीजेपी के खिलाफ वोट दिया. बोचहां उपचुनाव में भूमिहारों ने महागठबंधन को अपना समर्थन दिया तो यह सीट महागठबंधन ने जीत ली. इसके बाद कुढ़नी विधानसभा उपचुनाव में भूमिहार समुदाय ने जब बीजेपी को अपना समर्थन दिया तो यहां से बीजेपी हारी हुई बाजी जीत गई. यही ताकत है जिसके चलते जेडीयू ने दोबारा से ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस ने भी अखिलेश प्रसाद सिंह को पार्टी की कमान सौंपी. इस तरह से सभी राजनीतिक दलों के एजेंडे पर इस समय भूमिहार सबसे ऊपर हैं.