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'हंगरी' हों तो 'एंग्री' हो जाते हैं जज... व्रत या रोजा बना देता है दयालुः स्टडी

भूख लगने पर अदालतों में बैठे जज भी अलग तरह से फैसले लेने लगते हैं. वे गुस्सैल और सख्त हो जाते हैं. साल 2011 में हुए इस अध्ययन के बाद हाल ही में एक नई स्टडी हुई. भारत और पाकिस्तान के मुस्लिम जजों पर रमजान के दौरान हुई स्टडी में दिखा कि उपवास उन्हें ज्यादा नरमदिल बना देता है.

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लंच से ठीक पहले कड़े फैसले लेने लगते हैं जज. सांकेतिक फोटो (Pixabay)
लंच से ठीक पहले कड़े फैसले लेने लगते हैं जज. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

ठीक 12 साल पहले इजरायल में एक प्रयोग हुआ था. अदालतों में हुए इस प्रयोग में देखा गया कि सुबह नाश्ते के बाद और लंच ब्रेक से ठीक पहले के समय में जज किस तरह का व्यवहार करते हैं. इसके नतीजे हैरान करने वाले रहे. पेट भरा होने पर जज ज्यादा रहमदिल थे. वे कैदियों के बारे में ज्यादा नरमी से फैसले ले रहे थे. यहां तक कि पैरोल के लगभग 65% मामले वही थे, जब जज घर से आए थे. इसके उलट, लंच ब्रेक से ठीक पहले वही जज अलग व्यवहार करने लगे. वे चिड़चिड़े हो गए और फैसलों में भी सख्ती आ गई. यहां तक कि वे पैरोल देने से कतराने लगे. 

हंगरी जज इफेक्ट
भूख लगने से पहले और बाद में जजों के फैसलों में इस फर्क को द हंगरी जज इफेक्ट कहा गया. ये पेपर प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में छपा, जिसके बाद से साल 2021 तक इसे हजारों बार किसी न किसी पेपर में शामिल किया गया. माना गया कि सामान्य भूख का जज जैसे ओहदे पर बैठे लोगों के व्यवहार पर भी असर होता है. 

रमजान में अलग रहता है व्यवहार
अब इसी पर हुआ ताजा अध्ययन एक अलग ही बात कहता है. रमजान के दौरान रोजा रखने वाले जजों के बारे में पाया गया कि जैसे-जैसे रोजे का समय आगे बढ़ता है, उनके फैसलों में ज्यादा नरमी आती जाती है. भारत और पाकिस्तान में लगभग 5 लाख इस तरह के फैसलों को देखा गया. रूस के न्यू इकनॉमिक स्कूल के सुल्तान महमूद समेत दो अन्य इकनॉमिस्ट ने ये स्टडी की, जो नेचर ह्यूमन बिहेवियर नाम के जर्नल में 13 मार्च को छपी.

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रमजान के महीने में रोजा रखने वाले जज ज्यादा नरम फैसले करते दिखे. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

क्या कहती है नई स्टडी
भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में अलग-अलग स्टेट के 10 हजार मुस्लिम जजों ने रमजान के दौरान आम दिनों से 40 फीसदी ज्यादा लोगों को रिहाई दी. यहां तक कि रमजान का महीना आगे सरकने के साथ-साथ उनकी नरमदिली बढ़ती चली गई और लगभग हर फैसले पर इसका असर दिखने लगा. ये द हंगरी जज इफेक्ट से बिल्कुल अलग था.

अध्ययन के मुताबिक गैर-मुस्लिम जजों के व्यवहार में ऐसा कोई बदलाव नहीं दिखा. स्टडी में शोधकर्ताओं ने माना कि ब्रेन पर भूख और उपवास दोनों अलग-अलग तरीके से काम करते हैं. भूखे रहने पर जहां गुस्सा और चिड़चिड़ापन दिखता है, वहीं उपवास से मस्तिष्क संतुलित फैसले लेने लगता है. 

व्रत का दिमाग पर क्या असर होता है
उपवास के आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व पर तो बात होती है, लेकिन शरीर और खासकर दिमाग पर इसका अलग ही असर होता है. अध्ययन बताते हैं कि व्रत से मस्तिष्क में नई कोशिकाएं तक बनने लगती हैं. मैरीलैंड स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑन एजिंग ने 55 से 70 साल के ओवरवेट लोगों पर इसका अध्ययन किया. उन्हें डेढ़ महीने तक तक हफ्ते में एक दिन 14 घंटों तक भूखा रहने को कहा गया. इस दौरान पाया गया कि उनके मस्तिष्क में नई कोशिकाएं बन रही हैं.

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बनने लगे नए ब्रेन सेल्स
बिल्कुल यही नतीजे एनिमल स्टडी में भी दिखे. उपवास के दौरान ग्लूकोज की बजाए कीटोन ईंधन की तरह काम करने लगता है. इससे एक खास तरह का कंपांउंड बनता है, जिसे ब्रेन-डेराइव्ड-न्यूरोट्रॉफिक फैक्टर कहते हैं. ये तत्व मस्तिष्क में नई कोशिकाएं बनाने और उन्हें कनेक्ट करने में मदद करता है. 

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