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घने देवदार, लोकल सपोर्ट, IED- क्या है दक्षिणी कश्मीर के जंगलों में, जो बन चुका आतंकियों का ठिकाना?

पहलगाम हमला करने वाले आतंकियों के फिलहाल दक्षिणी कश्मीर में ही होने के कयास लग रहे हैं. इंटेलिजेंस सूत्रों के मुताबिक, उनके पास राशन-पानी होगा और वो लंबे वक्त तक पहाड़ी इलाकों में छिपे रह सकते हैं. लेकिन सवाल ये है कि अगर आतंकियों के बारे में खुफिया एजेंसियां पक्का हैं तो क्यों नहीं जंगलों पर धावा बोल दिया जाता? क्या है ऐसा, जो इन इलाकों को आर्मी के लिए भी मुश्किल बनाता है?

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आतंकियों के दक्षिणी कश्मीर में छिपे होने के अनुमान हैं. (Photo- AFP)
आतंकियों के दक्षिणी कश्मीर में छिपे होने के अनुमान हैं. (Photo- AFP)

पहलगाम आतंकी हमले को सप्ताह भर से ज्यादा हो चुका. भारत ने अब तक कोई सैन्य एक्शन तो नहीं लिया, लेकिन इस्लामाबाद डरा हुआ है कि शायद देश 'रेवेंज इज ए डिश, बेस्ट सर्व्ड कोल्ड' पर काम कर रहा हो. इस बीच खबरें आ रही हैं कि हमलावर अब भी साउथ कश्मीर के जंगलों में छिपे हुए हैं. ये घने जंगल दशकों से आतंकवादियों के लिए बैकअप सिस्टम की तरह काम करते रहे. जब सेना की ओर से प्रेशर बढ़ता है या जब किसी ऑपरेशन के लिए समय चाहिए होता है, तो ये जंगल आतंकियों की शरणस्थली बन जाते हैं. जैसा कि हाल में भी कहा जा रहा है. 

कौन-कौन से जंगल हैं, जहां आतंकी छिपते रहे

चार जिले, शोपियां, पुलवामा, कुलगाम और अनंतनाग में कई घने जंगल हैं जो आतंकियों के लिए छिपने की सबसे मुफीद जगह माने जाते रहे. इनमें भी खास तौर पर डोरीगुंड, तुर्कवांगाम, रेनावारी, काचलू, हरवान, फ्रिंजाल, शिखरदांद, जैनपोरा के जंगल और कोकरनाग और पांपोर के आस-पास के पहाड़ी इलाके शामिल हैं. बर्फीले मौसम के दौरान आतंकी नीचे की तरफ चले आते हैं, जबकि सेना और इंटेलिजेंस के सक्रिय होते ही फिर से ऊपर की तरफ लौट जाते हैं.

दक्षिणी हिस्से में त्राल का जंगल सबसे घना और खतरनाक माना जाता रहा. अपनी दुर्गमता के चलते यह लंबे समय से हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा और दूसरे आतंकवादी गुटों के लिए छिपने की जगह रहा. इस जंगल में देवदार और पाइन ट्री होते हैं जो इलाके को और घना बना देते हैं, जहां सूरज की रोशनी भी न पहुंच सके. ये आतंकियों को नेचुरल कवर देता है. 

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साल 2000 से अगले एक दशक तक हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकियों ने शोपियां, कुलगाम और अनंतनाग के जंगलों को लंबे वक्त तक बेस बनाए रखा था. बुरहान वानी भी अनंतनाग और त्राल के जंगलों में कई बार छिप चुका था. 

south kashmir forests photo- Unsplash

रसद कैसे पहुंचती है इन तक

महीनों जंगलों में छिपा रहने के दौरान भी आतंकियों की गुजर-बसर ठीक से हो जाती है. इसमें अक्सर लोकल सपोर्ट रहता है. ये लोग आतंकियों को राशन, दवाइयां और जरूरत का सामान जंगल तक पहुंचाते हैं. चूंकि ये लोग कश्मीर के ही होते हैं और चरवाहे या लकड़ी काटने वाले की भूमिका में जंगल की तरफ जाते हैं, लिहाजा इनपर ज्यादा शक नहीं हो पाता.

गांवों और कस्बों में कई ऐसे घर होते हैं जिन्हें स्लीपर सेल कहा जाता है. ये घर बाहर से बिल्कुल आम घर जैसे होते हैं लेकिन ये अंदर से आतंकियों की मदद करते हैं. जैसे कभी कई घंटे शरण देकर या जरूरत की चीजें दिलवाकर.

पकड़ा जाना लगभग नामुमकिन हो जाए, इसके लिए आतंकी स्थानीय लोगों के साथ मिलकर कुछ ड्रॉप पॉइंट्स बना देते हैं. यहां लोकल्स जरूरत का सामान छोड़कर चले जाते हैं और आतंकी मौका देखकर पिक कर लेते हैं.

कुलगाम और शोपियां जैसे इलाकों में सेब के बागान और कई सुनसान गोशालाएं होती हैं. पहले भी आतंकी छिपने के लिए इनका इस्तेमाल करते रहे. 

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अब सवाल ये आता है कि अगर सबकुछ इतना जाहिर है तो सेना क्यों नहीं जंगलों पर सीधा अटैक कर देती या आतंकियों को वहां जाने से पहले ही रोक नहीं पाती? 

इसके एक नहीं, कई कारण हैं. मसलन, जंगल बेहद घने हैं. इतने कि एक बार गहराई में पहुंचे तो कुछ मीटर के बाद दिखना बंद हो जाएगा. पगडंडियां कम हैं और रास्ते संकरे. इसमें सेना की गाड़ियां जाने का तो सवाल ही नहीं आता, पैदल सैनिक भी बिना लोकल मदद के ज्यादा नहीं जा सकते. और जैसा कि हम पहले बता चुके, समान विचारधारा वाले स्थानीय लोग पहले से ही इन आतंकियों से मिले होते हैं. ऐसे में कुछ लोग मदद को राजी हो भी जाएं तब भी वे पूरी तरह भरोसेमंद नहीं हो सकते. कई बार सेना के मूवमेंट लीक होने का डर भी रहता है. 

terrorists pakistan photo- Getty Images

सुरक्षाबलों की परेशानी का एक बड़ा कारण ये भी होता है कि इन जंगलों में हर मोड़ पर आईईडी का खतरा रहता है. कई बार जवानों पर घात लगाकर हमला किया गया है. जैसे, साल 2018 में शोपियां में सैन्य काफिले पर आईईडी से हमला हुआ था. साल 2019 में हुआ पुलवामा अटैक दक्षिणी कश्मीर का सबसे भयावह IED हमला था. हालांकि यह जंगल नहीं, सड़क पर हुआ था, लेकिन इसके पीछे की प्लानिंग और लोकल मदद की रणनीति वही थी जो जंगलों में होती है. 

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सेना की मुश्किलें क्या होती हैं

पेड़ों की छांव और घना जंगल ड्रोन से निगरानी में भी रुकावट डालता है. मोबाइल नेटवर्क से लेकर किसी भी तरह की कनेक्टिविटी नहीं होती, ऐसे में वे आनन-फानन बड़े फैसले नहीं ले सकते हैं अगर स्थितियां काबू से बाहर होती दिखें. बारिश और बर्फबारी में इलाके और खतरनाक और फिसलन भरे हो जाते हैं. आतंकी इसी वक्त नीचे आते हैं लेकिन लोकल्स से मिला होने की वजह से उन्हें ट्रेस कर पाना आसान नहीं. और ऐसा हो भी जाए तो तुरंत कार्रवाई नहीं हो पाती.

आ जाता है मानवीय एंगल

दरअसल स्थानीय लोगों की मौजूदगी के चलते कई बार आर्मी को सीमित कार्रवाई करनी पड़ती है ताकि निर्दोषों को चोट न पहुंचे. सेना किसी एक्शन से पहले अलर्ट जारी करती है, जैसे गांव या कोई खास इलाका खाली करने का. ये सारी प्रोसेस इतना वक्त लेती है कि टैररिस्ट्स को निकल भागने का मौका मिल जाता है. 

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