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संसदीय समितियों पर क्यों सरकार और विपक्ष आमने-सामने हैं? जानिए क्या होता है इसका सिस्टम

संसदीय स्थायी समितियों में बड़ा फेरबदल हुआ है. कांग्रेस ने गृह विभाग और सूचना प्रोद्यौगिकी विभाग की अध्यक्षता गंवा दी है. तृणमूल कांग्रेस को भी किसी समिति की अध्यक्षता नहीं मिली है. ऐसे में स्थायी समितियों के फेरबदल पर बवाल भी शुरू हो गया है. जानते हैं कि ये समितियां क्या होती हैं और इनका काम क्या होता है?

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संसद की स्थायी समितियों का पुनर्गठन हर साल होता है. (फाइल फोटो-PTI)
संसद की स्थायी समितियों का पुनर्गठन हर साल होता है. (फाइल फोटो-PTI)

संसद की स्थायी समितियों के पुनर्गठन पर बवाल शुरू हो गया है. मंगलवार को संसद की स्थायी समितियों का पुनर्गठन किया गया. इसके बाद कांग्रेस ने गृह विभाग और सूचना प्रोद्यौगिकी विभाग की अध्यक्षता गंवा दी है. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को भी किसी समिति की अध्यक्षता नहीं मिली है. वहीं, अहम समितियां विदेश मामलों, रक्षा और वित्त विभाग की समिति की अध्यक्षता बीजेपी को मिली है. 

संसद की स्थायी समितियों का पुनर्गठन हर साल होता है. समिति की अध्यक्षता किस पार्टी को मिलेगी, ये उस पार्टी की सीटों की संख्या पर होता है. जिस पार्टी के पास जितनी ज्यादा सीटें, उतनी ज्यादा समिति की अध्यक्षता.

अभी सभी समितियों की अध्यक्षता की घोषणा कर दी गई है. लेकिन अब भी दो अहम समितियों की अध्यक्षता की घोषणा होनी बाकी है. इनमें कॉमर्स और केमिकल फर्टिलाइजर विभाग की समिति बाकी है. न्यूज एजेंसी ने सूत्रों के हवाले से बताया है कि इन दोनों समितियों की अध्यक्षता कांग्रेस को मिल सकती है.

सरकार-विपक्ष आमने-सामने क्यों?

गृह विभाग की समिति के अध्यक्ष पहले कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी थे, लेकिन अब उनकी जगह बीजेपी सांसद बृजलाल को मिली है. इसी तरह सूचना और प्रोद्यौगिकी विभाग की समिति की अध्यक्षता कांग्रेस सांसद शशि थरूर के पास थी. उनकी जगह अब शिंदे गुट के शिवसेना सांसद प्रतापराव जाधव को मिली है.

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टीएमसी सांसद डेरेक ओ'ब्रायन ने कहा कि तृणमूल कांग्रेस न सिर्फ संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है, बल्कि दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भी है. उसे किसी भी समिति की अध्यक्षता नहीं दी गई है. साथ ही, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी ने भी दो समितियों की अध्यक्षता गंवा दी है. ये है न्यू इंडिया की कड़वी सच्चाई.

संसद में कई सारी स्थायी समितियां होती हैं. लोकसभा और राज्यसभा, दोनों ही सदनों के सदस्य इन समितियों में होते हैं. चूंकि, ये स्थायी समितियों का कार्यकाल एक साल का होता है, इसलिए हर साल इनका पुनर्गठन किया जाता है.

संसद है तो समितियों की जरूरत क्यों?

इसकी जरूरत इसलिए क्योंकि संसद के पास बहुत सारा काम होता है. इन कामों को निपटाने के लिए समय भी कम होता है. इस कारण कोई काम या मामला संसद के पास आता है तो वो उस पर गहराई से विचार नहीं कर पाती. ऐसे में बहुत सारे कामों को समितियां निपटाती हैं, जिन्हें संसदीय समितियां कहा जाता है.

संसदीय समितियों का गठन संसद ही करती है. ये समितियां संसद के अध्यक्ष के निर्देश पर करती हैं और अपनी रिपोर्ट संसद या अध्यक्ष को सौंपती हैं. 

ये समितियां दो प्रकार की होती हैं. स्थायी समितियां और तदर्थ समितियां. स्थायी समितियों का कार्यकाल एक साल होता है और इनका काम लगातार जारी होता है. वित्तीय समितियां, विभागों से संबंधित समितियां और कुछ दूसरी तरह की समितियां स्थायी समितियां होती हैं. 

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वहीं, तदर्थ समितियों का गठन कुछ खास मामलों के लिए किया जाता है. जब इनका काम खत्म हो जाता है तो इन समितियों का अस्तित्व भी खत्म हो जाता है. 

कितनी तरह की होती हैं स्थायी समितियां?

स्थायी समितियां मोटे तौर पर तीन तरह की होती हैं. इनमें वित्तीय समितियां, विभागों से संबंधित समितियां और दूसरी तरह की स्थायी समितियां होती हैं.

वित्तीय समितियों में तीन समितियां होती हैं. पहली- प्राक्कलन समिति, दूसरी- लोक लेखा समिति और तीसरी- सरकारी उपक्रमों से संबंधित समिति. इनमें 22 से लेकर 30 सदस्य होते हैं. प्राक्कलन समिति में सिर्फ लोकसभा सदस्य होते हैं. जबकि, लोक लेखा और सरकारी उपक्रमों से संबंधित समितियों में लोकसभा के 15 और राज्यसभा के 7 सदस्य होते हैं.

विभागों से संबधित समितियों की संख्या 24 है. इनमें केंद्र सरकार के सभी मंत्रालय और विभाग आते हैं. हर समिति में 31 सदस्य होते हैं. इनमें 21 लोकसभा और 10 राज्यसभा के सदस्य होते हैं. इनमें गृह, उद्योग, कृषि, रक्षा, विदेश मामलों, रेल, शहरी विकास, ग्रामीण विकास जैसे विभागों की समितियां होती हैं.

इनका काम क्या होता है?

संसद की स्थायी समितियों का काम सरकार के काम में हाथ बंटाना होता है. चूंकि, संसद के पास बहुत से काम होते हैं, लिहाजा ये समितियां उन कामों को देखती है और अपने सुझाव देती है. इन समितियों का काम सरकार के कामकाज पर भी निगरानी करना होता है.

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हर समिति का काम अलग-अलग होता है. जैसे- वित्तीय समितियों का काम होता है सरकार के खर्च पर निगरानी रखना. ये देखना कि सरकार ने समय रहते खर्च किया है या नहीं? या कहीं ऐसी जगह तो खर्च नहीं किया जिससे नुकसान हुआ हो? या फिर खर्च करने में कोई अनियमितता या लापरवाही तो नहीं बरती गई? वित्तीय समितियां इन पर नजर रखती है और अगर कुछ गड़बड़ी मिलती है तो विभाग से इसकी जानकारी मांगी जाती है और पूछा जाता है कि गड़बड़ी रोकने के लिए क्या कार्रवाई की गई?

संसदीय समितियों के पास ऐसी शक्तियां होती हैं कि वो किसी भी मामले से जुड़े दस्तावेज मांग सकती है, किसी को भी बुला सकती है और विशेषाधिकार हनन की रिपोर्ट दे सकती है और कार्रवाई कर सकती है.

इसके अलावा संसद के सदस्यों से जुड़े विशेषाधिकार दुरुपयोग और सुविधाओं का दुरुपयोग करने के मामले भी सामने आते हैं. संसदीय समितियां इन मामलों की जांच करती है और कार्रवाई की सिफारिश करती है. 

कौन बनता है इनका सदस्य?

संसद की स्थायी समितियों में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य होते हैं. एक सदस्य एक ही समिति में हो सकता है. मसलन, अगर कोई सदस्य गृह विभाग की समिति का सदस्य है, तो वो विदेश मामलों की समिति का सदस्य नहीं बन सकता.

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समिति के सदस्य में से ही किसी एक को अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है. इतना ही नहीं, कोई मंत्री भी संसदीय समिति का सदस्य नहीं बन सकता. अगर कोई सदस्य समिति का सदस्य बनने के बाद मंत्री बन जाता है, तो उसे उस समिति की सदस्यता से इस्तीफा देना होता है. संसदीय समिति का सदस्य कभी भी अपना पद छोड़ सकता है.

 

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