दुनिया में कई देशों के बीच केमेस्ट्री तेजी से बदल रही है. कुछ रोज पहले पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर की अमेरिका के लीडर डोनाल्ड ट्रंप से मुलाकात हुई. इसके तुरंत बाद इस्लामाबाद ने नोबेल शांति पुरस्कार के लिए ट्रंप के नाम की सिफारिश की. उसका कहना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति की वजह से ही भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई रुक सकी. वैसे पाकिस्तान चाहे जितनी सिफारिशें, जितनी अर्जियां लगा ले, सच तो ये है कि नोबेल कमेटी को इससे रत्तीभर फर्क नहीं पड़ता. उसके लिए चुनाव की प्रोसेस एकदम अलग है.
नोबेल पुरस्कार को लेकर ट्रंप की इच्छा किसी से छिपी नहीं. अपने पहले कार्यकाल में भी वे बार-बार यही बात करते रहे. उनका दावा है कि उन्हीं की वजह से कई देशों में भयानक लड़ाइयां रुकीं. अब भी वे भारत-पाकिस्तान समेत कई नाम गिना रहे हैं, जहां कथित तौर पर तनाव के बादल उनकी वजह से छंटे. यहां तक कि पाकिस्तान की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति ने एक्स पर लंबी पोस्ट भी लिख डाली कि सब जानते हुए भी उन्हें पुरस्कार से दूर रखा जाएगा.
वैसे पाकिस्तान या किसी भी देश की सिफारिश या नॉमिनेशन का इससे कोई संबंध नहीं कि पुरस्कार किसे मिलेगा. अगर 100 देश भी मिलकर किसी एक नाम या संस्था को नॉमिनेट करें तो भी जरूरी नहीं कि पुरस्कार उसे मिल सकता है.
तब क्या है इसकी प्रोसेस
ये सच है कि नोबेल शांति पुरस्कार पाने के लिए सबसे पहली शर्त है कि किसी देश की लीडरशिप या संस्था ने किसी को नामांकित किया हो. बिना नॉमिनेशन के नोबेल नहीं दिया जा सकता, चाहे किसी ने कितना ही अच्छा काम क्यों न किया हो. लेकिन नॉमिनेशन भी कोई गारंटी नहीं है कि पुरस्कार मिल ही जाएगा. हर साल सैकड़ों नाम आते हैं. चयन कमेटी इन नामांकनों को देखती है. इसके बाद हरेक नाम पर लंबी और बेहद गोपनीय पड़ताल होती है. चेक किया जाता है कि फलां नाम इस लायक है भी, या नहीं.

कमेटी ये भी देखती है कि शांति के दावे कर रहे शख्स या संस्था ने जो काम किया, उसका असर कितनी दूर तक पहुंचा. कई बार राजनैतिक फायदों के लिए भी लीडर पीस डील कराते हैं और फिर नॉमिनेशन भेज देते हैं. इस मंशा की जांच भी की जाती है. बैकग्राउंड चेक किया जाता है कि नाम के साथ कोई आपराधिक बैकग्राउंड तो नहीं.
इन सारी बातों के बाद कमेटी ये देखती है कि कौन सा शख्स या संख्या उस साल शांति पुरस्कार का सबसे ज्यादा हकदार है. इसके बाद ही कोई फैसला लिया जाता है. कुल मिलाकर, चाहे बहुत से देश भी किसी एक नाम की सिफारिश कर दें, लेकिन कमेटी उसी को चुनती है, जिसे वो लायक मानती है.
हां, लेकिन कई बार किसी एक नाम पर बहुत तगड़ी सिफारिशें आती हैं. यहां तक कि पहले पुरस्कार पा चुके लोग भी उसकी बात करते हैं. ऐसे में ये जरूर होता है कि कमेटी उस नाम पर खास ध्यान देती है. अगर काम ठोस हो और शांति की कोशिश लंबे समय तक असर देने वाली हो, तब कमेटी उसे पुरस्कार देने पर मोहर लगा देती है.
शांति पुरस्कार की चयन प्रक्रिया बेहद गोपनीय होती है. हर साल फरवरी से पहले नामांकन जमा होते हैं. ये सील्ड चिट्ठियां होती हैं. नोबेल कमेटी इनकी जांच करती है. उसके बाद नोबेल इंस्टीट्यूट नाम की रिसर्च टीम हर नाम के पीछे मौजूद काम और उसके असर को देखती है. प्रोसेस महीनों चलती है. इनमें प्रचार या सिफारिशें काम नहीं आतीं. नामों की छंटनी के बाद टीम लगातार बैठक करती है कि कौन सा नाम सबसे ऊपर रखा जाए.

पाकिस्तान पहले भी ट्रंप के नाम की सिफारिश कर चुका. उसका दावा था कि ट्रंप की वजह से अफगानिस्तान में अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत शुरू हुई. चूंकि ट्रंप ने वहां शांति की कोशिश की, लिहाजा उन्हें अवॉर्ड मिलना चाहिए. लेकिन ट्रंप को पहले टर्म में भी पुरस्कार नहीं मिला. कमेटी ने शायद ये पाया कि उस शांति की पहल के पीछे कई पक्ष थे, और उसका नतीजा स्थाई नहीं रहा.
ट्रंप दूसरी बार वाइट हाउस पहुंच चुके. नेता होने से पहले वे बिजनेसमैन रहे, जिसके पास दौलत की कोई कमी नहीं. इसके बाद भी वे नोबेल पाने के लिए ऑब्सेस्ड दिखते हैं. यहां तक कि वे पब्लिक फोरम पर भी अपना दुखड़ा रो चुके. लेकिन सवाल ये है कि ट्रंप आखिर इस पुरस्कार के लिए इतने उतावले क्यों है.
उनकी इस इच्छा के पीछे एक वजह ये हो सकती है कि उनके पहले बराम ओबामा को भी अवॉर्ड मिला, वो भी ऑफिस संभालने के कुछ ही महीनों बाद. इसकी जमकर आलोचना भी हुई थी. ट्रंप ने तब से लेकर अब तक कई बार ये बात कही कि ओबामा इसके लायक नहीं थे. यहां तक कि ट्रंप ने यह भी कह दिया कि अगर मेरा नाम ओबामा होता तो मुझे ये अवॉर्ड 10 सेकंड्स में मिल जाता. यानी साफ है कि ट्रंप को मलाल है कि उन्हें अवॉर्ड नहीं मिल रहा. ट्रंप को वैसे भी वैलिडेशन की इच्छा रहती है. वे चाहते हैं कि लोग उनकी तारीफ करें या उन्हें पसंद करें. नोबेल मिलना इसपर मोहर लगा देगा.