डोनाल्ड ट्रंप एक ही वक्त पर विरोधाभासों का घमासान बने हुए हैं. कहीं-कहीं वो शांतिदूत के रोल में हैं तो कहीं खुद ही दूसरे देशों को हमले की धमकियां दे रहे हैं. अब वे नाइजीरिया पर नाराज हैं. यहां तक कि वहां ईसाइयों पर हिंसा का आरोप लगाते हुए उसे कंट्री ऑफ पर्टिकुलर कन्सर्न (सीपीसी) कह दिया. क्या है इस लिस्ट में शामिल होने का मतलब और क्या इससे कोई फर्क पड़ता है?
लगभग 22 करोड़ आबादी वाले नाइजीरिया में मुस्लिम और ईसाई आबादी लगभग बराबर है. गरीबी से जूझते देश में आतंकवाद की मौजूदगी भी बड़ी समस्या है. यहां बोको हराम जैसे कट्टरपंथी संगठन हैं, जो लगातार इस्लामिक चरमपंथ फैलाते रहे.
क्या हो रहा है नाइजीरिया में
इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर सिविल लिबर्टीज की रिपोर्ट के अनुसार, वहां साल की शुरुआत से अगस्त के मध्य तक धार्मिक हिंसा की वजह से सात हजार से ज्यादा ईसाइयों मार दिए गए, जिसमें इन्हीं गुटों का हाथ रहा. हालांकि ईसाई ही नहीं, आतंकी समूह मुस्लिम समुदाय पर भी हमले करता रहा, खासकर उन लोगों पर जो उन्हें उदार मुस्लिम दिखाई दें या उस कट्टरता से धर्म का पालन न करते हों.
दरअसल बोको हराम संगठन दुनिया के कुछ सबसे ज्यादा बर्बर गुटों में रहा, जो लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को पूरी तरह से बैन करने की बात करता रहा.
ईसाई समुदाय के उत्पीड़न के बीच ही कुछ समय पहले अमेरिकी सीनेटर टेड क्रूज ने कांग्रेस से अपील की थी कि नाइजीरिया को धार्मिक स्वतंत्रता तोड़ने वाला देश घोषित किया जाए. अब इसी पर ट्रंप की टिप्पणी आ चुकी. वे देश को सीपीसी में डालते हुए धमका रहे हैं कि ईसाई समुदाय पर हमले नहीं रुके तो अमेरिका उसे अपनी सारी आर्थिक मदद रोक देगा. साथ ही जरूरत पड़े तो सैन्य दबाव भी बना सकता है.

ये पहली बार नहीं. पहले कार्यकाल में भी ट्रंप ने इस देश को सीपीसी में डाला था, जिसे जो बाइडेन प्रशासन ने आते ही लिस्ट से हटा दिया.
क्या है सीपीसी और क्या फर्क पड़ता है इससे
अमेरिका दुनिया के सारे देशों में मानवाधिकार पर नजर रखता है. धार्मिक आजादी भी इसी दायरे में आती है. अगर कोई देश धार्मिक उत्पीड़न या धर्म के आधार पर फर्क करता दिखे, या वहां से लगातार ऐसी बातें आएं तो अमेरिका उसे सीपीसी में डाल देता है.
कौन तैयार करता है ये सूची
सीपीसी लिस्ट तैयार करने का काम विदेश मंत्रालय करता है. हर साल यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम देशों में खुलेपन या कट्टरता को देखता है और उसी मुताबिक अपनी रिपोर्ट में सिफारिश करता है. फिर विदेश मंत्री तय करते हैं कि किन देशों को आधिकारिक तौर पर लिस्ट में शामिल किया जाए.
ये संकेत हों तो देश रहते हैं निशाने पर
- धार्मिक सोच के आधार पर किसी को परेशान करना, उसे सजा देना या अलगाव बरतना.
- धार्मिक आधार पर पकड़ना और बिना सुनवाई के लंबे समय तक कैद में रखना.
- डिटेंशन के दौरान लोगों का अचानक गायब हो जाना और फिर कोई खबर न आना.
जब भी अमेरिका किसी देश को सीपीसी में डालता है तो कांग्रेस को नोटिफाई किया जाता है. पहले संबंधित देश को समझाने-बुझाने की कोशिश की जाती है और इससे भी बात न बने तो उसपर आर्थिक बैन लगा दिया जाता है, जैसे इंटरनेशनल मदद बंद करना या उसके साथ व्यापार बंद कर देना.

कौन से देश हैं अमेरिकी सूची में
फिलहाल इसमें चीन, म्यांमार, रूस, क्यूबा, ईरान, उत्तर कोरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान , तजिकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान जैसे कई देश हैं. अमेरिका का आरोप है कि इन सारे देशों में लंबे समय से धार्मिक भेदभाव का पैटर्न दिख रहा है. यहां तक कि खबरें बाहर न आएं, इसके लिए मीडिया और मानवाधिकार संस्थानों की आवाज भी दबाई जा रही है.
क्या सूची में आने पर ब्लैकलिस्ट हो जाते हैं
वैसे तो इस लिस्ट में आने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आर्थिक मदद रुकना बड़ी चीज है. साथ ही ये डर भी रहता है कि कहीं अमेरिका की नजर में छवि बिगड़ने के चलते पूरी दुनिया से अलगाव न हो जाए. ये कूटनीतिक संबंध भी खराब करता है. ऐसे में देश इस सूची से बाहर आने के लिए तमाम जतन करते रहे.
सूडान कभी यूएस की सीपीसी लिस्ट में था क्योंकि वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों पर कड़ी पाबंदियां थीं. लेकिन 2019 में आई सरकार ने धार्मिक स्वतंत्रता बहाल की, ईसाइयों पर प्रतिबंध हटाए और संविधान में धर्म की आजादी को शामिल किया. इस सुधारों के बाद देश इस सूची से बाहर कर दिया गया.
उज्बेकिस्तान लंबे समय तक धार्मिक उत्पीड़न के लिए जाना जाता रहा. यहां धार्मिक समूहों के रजिस्ट्रेशन पर सख्ती और सरकार की निगरानी थी. लगभग नौ साल पहले इसमें बदलाव हुआ. कई धार्मिक कैदियों को रिहा किया गया. अब यह देश स्पेशल वॉच लिस्ट में है.
वियतनाम को भी अमेरिका ने सीपीसी में डाल रखा था क्योंकि वहां चर्चों पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी. लेकिन कुछ कानूनी सुधारों और अमेरिका से व्यापारिक रिश्ते मजबूत करने की कोशिशों के बाद वियतनाम को लिस्ट से हटा दिया गया. लेकिन ये भी है कि देश संबंधों के आधार पर लिस्ट में आते-जाते रहते हैं.