सुप्रीम कोर्ट में CJI डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली कमेटी याचिका पर सुनवाई हो रही है. साल 2018 में शुरू हुआ ये बॉन्ड सिस्टम एक तरह से पार्टियों को देने वाले चंदे का रूप है. इसमें हजार से लेकर एक करोड़ तक का डोनेशन पार्टियों को दिया जा सकता है. ये आम नागरिक भी कर सकता है, और कंपनियां भी. लेकिन अब इसी पर सत्ता और विपक्ष में जंग शुरू हो गई है. याचिकाकर्ता का दावा है कि इस सिस्टम के जरिए राजनैतिक पार्टियों को 12 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा की फंडिंग हो चुकी, जिसका स्त्रोत तक पता नहीं है. यही दावा करते हुए बॉन्ड सिस्टम को रद्द करने की मांग की जा रही है.
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड?
इसमें एक हजार, 10 हजार, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ रुपयों के मूल्य में बॉन्ड मिलते हैं. ये SBI की निश्चित शाखाओं में होते हैं. कोई भी दानकर्ता, जिसका बैंक में अकाउंट हो, बॉन्ड खरीद और अपनी मनपसंद पार्टी को डोनेट कर सकता है. इसे खरीदने वाले व्यक्ति को टैक्स में रिबेट भी मिलती है. ये केवल 15 दिनों के लिए वैलिड होता है. अगर इस दौरान उसे कैश में न बदला जाए तो पैसे प्रधानमंत्री कोष में चले जाते हैं.
कब खरीदा जा सकता है?
ये हर तिमाही ने के पहले 10 दिनों तक खरीदा जा सकता है. यानी जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के पहले 10 दिनों तक बैंक से बॉन्ड लिया और डोनेट किया जा सकता है. चंदा देने वाले को बांड के मूल्य के बराबर के पैसे संबंधित ब्रांच में जमा कराने होते हैं, जिसके बदले उसे बॉन्ड मिलता है. कोई भी कंपनी या शख्स तयशुदा टाइम पीरियड के दौरान कितनी भी बार बॉन्ड डोनेट कर सकता है. ये पूरी तरह से टैक्स-फ्री होगा.

क्या किसी खास पार्टी को दे सकते हैं?
कोई भी पार्टी जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत रजिस्टर्ड है, और बीते विधानसभा या आम चुनावों में कम से कम एक प्रतिशत तक वोट हासिल किया हो, वो डोनेशन पाने का हकदार है.
क्यों लाया गया ये सिस्टम?
इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि इससे पारदर्शिता आएगी. बैंकों के जरिए पैसे मिलने पर पता लग सकेगा कि किस पार्टी को कितना चंदा मिल रहा है. सरकार इसे ऑडिट कर सकती है. इसके अलावा, दानकर्ता की पहचान गुप्त रहती है. इससे कोई भी पार्टी या दूसरा व्यक्ति उसकी राजनैतिक झुकाव को लेकर हावी नहीं हो सकता. यानी हमने जिसे बड़ा डोनेशन दिया है, अगर उसकी बजाए कोई और पार्टी सत्ता में आ जाए तो धमकी या किसी तरह की साजिश का डर नहीं रहेगा.
क्या रहता है हिसाब-किताब?
पार्टी को अपने बैंक लेनदेन और डोनेशन की पूरी जानकारी इलेक्शन कमीशन को देनी पड़ती है. यहां तक कि आए पैसों के खर्च का हिसाब भी साफ करना होता है. सत्ता पक्ष का कहना है कि ये बहुत ट्रांसपरेंट तरीका है. इसमें बस इतना ही अलग है कि देने वाली की पहचान गोपनीय रहेगी.

इसके खिलाफ क्या तर्क है?
साल 2017 में यानी इसके लागू होने से भी पहले इसके खिलाफ बातें होने लगी थीं, जैसे शेल कंपनियां इसका गलत इस्तेमाल कर सकती हैं. इससे मनी लॉन्ड्रिंग बढ़ेगी. चूंकि ये टैक्स फ्री होता है और लोग गुमनाम होकर चंदा दे सकते हैं तो इसका उपयोग ब्लैक मनी को वाइट करने में भी हो सकता है. बड़ी कंपनियां उन पार्टियों को पैसे देंगी, जिनसे उन्हें फायदा होता हो. इससे चुनाव जीतने के बाद ये डर रहेगा कि कोई पार्टी किसी एक कंपनी के हित में काम कर सकती है.
किस पार्टी को मिला कितना चंदा?
इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया के मुताबिक दो पार्टियों को लगातार सबसे ज्यादा इलेक्टोरल बॉन्ड मिल रहे हैं, ये हैं- कांग्रेस और बीजेपी. इसके बाद लिस्ट में तृणमूल कांग्रेस का नाम है. ये राशि पार्टियां खुद अपनी एनुअल ऑडिट रिपोर्ट चुनाव आयोग को देते हुए बताती हैं.
- साल 2018-19 में भाजपा को 1400 करोड़ से ज्यादा, जबकि कांग्रेस को 380 करोड़ से ज्यादा के बॉन्ड मिले.
- साल 2019-20 में भाजपा को 2500 करोड़ से कुछ ज्यादा, जबकि कांग्रेस को 318 करोड़ रुपए मिले.
- साल 2020-21 में चंदे में काफी गिरावट आई, जिसमें कांग्रेस को करीब 10 करोड़ और भाजपा को 22 करोड़ रुपए मिले. तृणमूल को सबसे ज्यादा 42 करोड़ का बॉन्ड मिला.
- साल 2021-22 में बीजेपी को 1032 करोड़, जबकि कांग्रेस को 236 करोड़ रुपए मिले, वहीं तृणमूल को 528 करोड़ रुपए का इलेक्टोरल बॉन्ड मिला.
- दावा किया जा रहा है कि साल 2018 से लेकर अगले 5 सालों के भीतर करीब 9,208 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड बिके, इसका करीब 58 प्रतिशत बीजेपी के पास गया.