scorecardresearch
 

Review: एक्टिंग दमदार, पर और भी बेहतर हो सकती थी अभिषेक चौबे की सोन चिड़िया

1994 में कान फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बनी और 1996 में भारत में रिलीज़ हुई शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन अपने निर्मम, क्रूर और हार्ड हिटिंग चित्रण से भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई थी. अब सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म सोन चिड़िया रिलीज हो गई है.

Advertisement
X
सोन चिड़िया
सोन चिड़िया
फिल्म:Sonchiraiya
2.5/5
  • कलाकार :
  • निर्देशक :Abhishek Chaubey

बीहड़ों के बागियों पर समय-समय पर फिल्में बनती रही हैं. 1994 में कान फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बनी और 1996 में भारत में रिलीज़ हुई शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन अपने निर्मम, क्रूर और हार्ड हिटिंग चित्रण से भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई थी. ठेठ भाषा में फर्राटेदार गालियां बकते डाकुओं ने फिल्मों में रियलिज्म का नया स्तर हासिल किया था. इसके बाद साल 2010 में आई इरफान खान की फिल्म पान सिंह तोमर भी चंबल की एक बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है. पर सोनचिड़िया उस स्तर को छूने में कामयाब नहीं हो पाती है. अभिषेक चौबे की फिल्म में डकैतों के लुक्स और सिनेमैटोग्राफी पर तो ध्यान दिया गया है, लेकिन किरदारों की आत्मा के साथ फिल्म न्याय नहीं कर पाई है. सोन चिड़िया को को और बेहतर तरीके से बनाया जा सकता था.

Advertisement

कहानी

इमरजेंसी का दौर है और सरकार ने चंबल के बागियों पर नकेल कसने का मन बना लिया है. मान सिंह (मनोज वाजपेयी) अपने गैंग को लेकर एक शादी में लूट के लिए पहुंचता है. गैंग के कुछ उसूल भी हैं. जैसे बच्चों को और महिलाओं को कोई नुकसान ना पहुंचाया जाए.  हालांकि लूट के दौरान पुलिस की धरपकड़ होती है और मान सिंह पुलिस के हाथों मारा जाता है. इसके बाद गैंग के सीनियर सदस्य वकील सिंह (रणवीर शौरी) गैंग की कमान संभाल लेता है. इस बीच एक ठाकुर महिला एक बच्ची को लेकर बीहड़ में पहुंचती है. बच्ची के साथ ऐसा क्या हुआ है जो लखन (सुशांत सिंह राजपूत) उसके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने लगता है और उसे अस्पताल पहुंचाना अपना मकसद बना लेता है. इसके लिए आपको फिल्म देखने जाना होगा. 

एक्टिंग

लखन का किरदार काफी उहापोह की स्थिति से गुज़र रहा है. बागी लखन अस्तित्ववादी सवालों से जूझ रहा है. 'बागी का धर्म क्या है?' और  'पहले अकड़ का काम लगता था बागी होना, अब शर्म सी आती है'  जैसे कई संवाद साफ करते हैं कि वो सिर्फ भेड़चाल को फॉलो नहीं करता. बल्कि दिलोदिमाग से सोचता भी है. वहीं मनोज बाजपेयी फिल्म के कुछ हिस्सों में ही नज़र आते हैं. देश के सर्वश्रेष्ठ एक्टर्स में शुमार मनोज जब-जब स्क्रीन पर नजर आते हैं, सम्मोहित करते हैं. उनका कुटिल मुस्कान के साथ बोला गया डायलॉग 'सरकारी गोली से कोई कभी मरे है. इनके तो वादों से मरे हैं सब. बहनों, भाइयों.” आज के दौर में भी प्रासंगिक है.

Advertisement

वकील सिंह के किरदार में रणवीर शौरी का मेकअप भी बेहद खास नज़र आता है और वे इससे पहले भी अपने कंधों पर कई फिल्मों का भार उठा चुके हैं जिनमें "तितली" काफी महत्वपूर्ण कही जा सकती है. लेकिन इस फिल्म में रणवीर की ओरिजिनल आवाज़ का ना होना अखरता है. फिल्म के डायरेक्टर अभिषेक चौबे को ये साफ करना चाहिए कि आखिर इनके जैसे स्तर के एक्टर की आवाज़ को फिल्म में इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया.

पुलिस ऑफिसर की भूमिका में आशुतोष राणा अपनी क्रूरता से इंप्रेस करते हैं. उन्होंने कहा था कि डायरेक्टर अभिषेक चौबे अपनी फिल्मों में एक डेमोक्रेटिक तानाशाह की तरह एक्ट करते हैं. बावजूद आशुतोष की क्रूर दिखने की नैसर्गिक क्षमता उन्हें फिल्म का सबसे रियल कैरेक्टर बनाती है. वहीं एक ठाकुर की बीवी के रूप में भूमि पेडनेकर अपनी जिम्मेदारी को भली-भांति निभा जाती हैं.

निर्देशन

उड़ता पंजाब के बाद से ही अभिषेक चौबे से लोगों की उम्मीदें काफी बढ़ गईं थी. उन्होंने चंबल के बीहड़ में जाकर रियल लोकेशन्स पर शूट किया. यही कारण है कि फिल्म की सिनेमैटोग्राफी काफी अच्छी है. बीहड़ के जंगलों में क्रूर दिखने वाले ये डाकू अंदर से कितने दयनीय और असुरक्षित हो सकते हैं, इसे चौबे ने डाकुओं वाली फिलोसॉफिकल फिल्म में दिखाने की कोशिश की है.

Advertisement

हालांकि फिल्म में डाकुओं के संवाद कई मौकों पर वास्तविक नहीं लगते. कुछ मौकों पर फिल्म के ट्विस्ट भी पचा पाना मुश्किल होता है. मसलन, एक खूंख्वार डाकू अपने भाई के हत्यारे को बिना कुछ किए छोड़ देता है और 'पुलिस की धरपकड़ की खबर होने के बावजूद डाकू का गैंग गांववालों को लूटने की कोशिश करता है', ऐसे कुछ सवाल हैं जो स्क्रिप्ट की कमज़ोरी का इशारा करते हैं. इसके अलावा फिल्म के क्लाइमैक्स में कई किरदारों को मारने से भी बचा जा सकता था क्योंकि ये गैरजरुरी लगता है. फिल्म में जाति प्रथा, पितृसत्ता, लिंग भेद और अंधविश्वास भी अहम हिस्सा है.

क्यों देखें

आशुतोष राणा, मनोज बाजपेयी और रणवीर शौरी की एक्टिंग के लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है. फिल्म में बैंडिट क्वीन यानि फूलन देवी का ट्विस्ट भी काफी दिलचस्प है. ये कहीं न कहीं "क्वेटिंन टैरेंटिनो" की फिल्म इनग्लोरियस बास्र्टर्डज़ में हिटलर के फिक्श्नल किरदार की याद ताजा करा देता है.

क्यों ना देखें

सभी अपनी-अपनी सोन चिड़िया को ढूंढ रहे है. सभी बीहड़ में मुक्ति की तलाश कर रहे हैं और इस फिल्म को ना देखने की वजहें, फिल्म को देखने की वजहों पर भारी पड़ती है.

Advertisement
Advertisement