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'कालकूट' रिव्यू: विजय वर्मा की दमदार परफॉरमेंस ने डाली जान, सोच के अंधेरे कोनों को स्क्रीन पर उघाड़ती है कहानी

जियो सिनेमा का नया शो 'कालकूट' आ चुका है. एक लड़की पर एसिड अटैक की कहानी से शुरू होती है और उन अंधेरे कोनों में ले जाती है जो हमारे घरों, हमारे समाज में खूब भरे पड़े हैं. इस कहानी को विजय वर्मा का लीड किरदार बेहतरीन तरीके से आगे बढ़ाता है. शो में विजय की परफॉरमेंस एक बार फिर दर्शकों को उनका फैन बना देगी.

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'कालकूट' में विजय वर्मा
'कालकूट' में विजय वर्मा
फिल्म:कालकूट
3.5/5
  • कलाकार : विजय वर्मा, यशपाल शर्मा, श्वेता त्रिपाठी शर्मा, गोपाल दत्त
  • निर्देशक :सुमित सक्सेना

इंडियन सिनेमा के पक्के वाले फैन्स के लिए इस बात से इनकार कर पाना मुश्किल है कि उनके अंदर एक विजय वर्मा फैन रहता है. डार्लिंग्स, दहाड़ और लस्ट स्टोरीज 2 जैसे प्रोजेक्ट्स में विजय ने इतने बेहतरीन नेगेटिव रोल निभाए हैं कि इस बार स्क्रीन पर उनका किरदार देखकर लगता रहता है कि कुछ न कुछ कांड बस होने ही वाला है. लेकिन 'कालकूट' ने एक साथ दो बड़े काम किए हैं- एक तो इस शो ने आखिरकार विजय वर्मा को हीरो बना दिया है. और दूसरा ये कि शो ऐसी कहानी कहता है जो लेंस का काम करती है. 'कालकूट' आपको अपने ही आसपास के उन अंधेरे कोनों को खोलकर दिखाता है, जो हैं तो बहुत डरावने. मगर उन्हें शर्म के पर्दों से बहुत खूबसूरती के साथ ढंक दिया जाता है. 

इसी महीने आया नेटफ्लिक्स का शो 'कोहरा', एक बेहतरीन क्राइम थ्रिलर होने के साथ-साथ एक सॉलिड सोशल स्टडी की तरह था. 'कालकूट' की भी लगभग कुछ ऐसा ही करता है, लेकिन दोनों शोज अपनी बात बहुत अलग भाषा में कहते हैं. एकदम अलग-जमीन से निकलीं ये दोनों कहानियां एक दूसरे को जैसे पूरा करती हैं. मगर 'कालकूट' की सिनेमेटिक भाषा और स्टाइल में एक रिस्क है, जो इसका थोड़ा सा नेगेटिव पक्ष है. लेकिन चाहे टेक्निकल डिटेल्स हों, परफॉरमेंस हो या फिर सोशल नैरेटिव... 'कालकूट' हर तरह से एक जरूर देखे जाने लायक शो है. 

'कालकूट' में विजय वर्मा, गोपाल दत्त

कहानी में छुपा 'कालकूट' 
रवि शंकर त्रिपाठी एक पुलिस ऑफिसर है जो तीन महीने में ही अपनी नौकरी से तंग आ चुका है. एक क्रांतिकारी सोच वाले प्रोफेसर-कवि का बेटा रवि (विजय वर्मा), उन तौर तरीकों में खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहा जिनसे 'सिस्टम' चलता है. गालियां देना, करप्शन में हाथ फंसाना और नेताओं के ईगो सहलाना वगैरह रवि के बस की बात नहीं है. अपनी आदर्शवादी सोच के साथ जी रहे रवि के किरदार में हर उस चीज की कमी है जिसे ट्रेडिशनली 'मर्दानगी' का सिंबल माना जाता है. 

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तीन ही महीने में नौकरी छोड़ने चले रवि का इस्तीफा भी उसका सीनियर नामंजूर कर देता है और उसे एक नया केस थमा देता है. ये केस है कोचिंग के बाहर एक लड़की पर हुए एसिड अटैक का. केस की जांच शुरू होती है तो इस लड़की, पारुल (श्वेता त्रिपाठी शर्मा) की पर्सनल लाइफ खुलने लगती है. पुलिसवालों का मानना है कि लड़की 'कैरेक्टरलेस' थी इसलिए ऐसा हुआ. लड़की का बाप तक ये मानता है कि लड़की उसके 'हाथ से निकल गई थी'. 

'कालकूट' में श्वेता त्रिपाठी शर्मा

सिर्फ रवि है जिसके पास भयानक अपराध का शिकार हुई लड़की के लिए सहानुभूति की नजर है. लेकिन केस सॉल्व करने का मतलब ही उस सिस्टम में गले तक घुसना है जो वो 'मर्दानगी' दिखानी पड़ेगी जो उसका सीनियर जगदीश, एक पुलिसवाले में होने की उम्मीद करता है. माइथोलॉजी में 'कालकूट' उस विष का नाम है जो समुद्र मंथन से निकला था. ये वेब सीरीज परत दर परत दिखाती है कि ये ट्रेडिशनल मर्दानगी वाली सोच कैसा जहर है. लेकिन क्या रवि इसे पीने के लिए तैयार है?

पर्दों से ढंके अंधेरे कमरे 
केस सॉल्व करने निकले रवि के जरिए आपको नजर आता है कि ये 'कालकूट' घरों में, इस कदर घुला हुआ है कि इसे मथकर निकालना नामुमकिन है. रवि की मां हर काम के लिए उससे पूछती रहती है. जब वो इस बात से चिढ़ता है तो वो कहती है- 'हर बात पूछ-पूछकर करने की आदत पड़ चुकी है, अब तुम ही तो इस घर में अकेले मर्द हो तो और किस्से पूछें?' 

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पारुल का पिता एक लड़के की ख्वाहिश इस कदर रखता है कि सिर्फ बेटियां हुईं तो उसने एक कुत्ता पाल लिया और उसका नाम रॉकी रख दिया. एसिड अटैक के बाद हॉस्पिटल में जिंदगी के लिए जूझ रही बेटी को वो चरित्रहीन मानने को तैयार है, लेकिन 'रॉकी' पर प्यार लुटाए नहीं थकता. और इस पूरे माहौल में एक ऐसी लड़की, जो एक लड़के से अपनी दोस्ती खूब निभाती है. वो लड़का जो असल में उसे खराब कैरेक्टर का मान कर अपनी मर्दानगी टेस्ट करने आया था. इस लड़की का एक एक्स बॉयफ्रेंड है जो इनकार नहीं स्वीकार कर पा रहा. करंट बॉयफ्रेंड, लड़की के पिछले रिश्ते के डिटेल्स सोचकर परेशान है. 

रवि की अपनी दादी उसे ये याद दिलाती नहीं थकती कि वो घर का 'मर्द' है. रवि की एक लड़की से शादी होने वाली है और वो खुद उसके साथ एक पॉइंट पर ऐसा बर्ताव करता है कि आप हैरान रह जाते हैं. हालांकि, उसमें इतनी कॉन्शसनेस है कि वो अपने किरदार की ये चूक पकड़ लेता है. शो शुरू होता है तो आपको रवि के कंधों पर उसका बैग कई बार नजर आता है. बड़े कायदे से, स्कूल जाने वाले बच्चों की तरह टंगा हुआ. ये विचारों के उस बोझ के लिए एक मेटाफर है जो रवि हमेशा अपने साथ लिए चलता है. 

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बाद के एपिसोड्स में जैसे-जैसे रवि अपनी नौकरी के प्रैक्टिकल असर को सहजता से अपनाता जाता है, आपको उसके कंधों पर ये बैग दिखना बंद हो जाएगा. जगदीश और यादव इस तरह अपनी पत्नियों पर हाथ उठाने का जिक्र कर रहे हैं जैसे ये खाने-पीने जैसा नॉर्मल काम है. और तो और, क्रांतिकारी विचार रखने रवि के पिता ने, उसकी बहन की शादी उस लड़के से कर दी जो उसे छेड़ता था. ये सबकुछ मिलकर एक ऐसा प्लॉट बनाता है जो आपके अंदर के सिनेमा फैन को ही नहीं. इंसान को भी शो में खूब इन्वेस्ट रखता है. 

एक्टर्स की परफॉरमेंस 
शो में कई ऐसे सीक्वेंस हैं, जहां सीन में कुछ बहुत डिस्टर्बिंग बात हो रही है या कुछ बहुत बुरा घट रहा है और कैमरा विजय वर्मा के चेहरे पर है. बिना एक भी शब्द बोले, विजय के चेहरे पर आने वाले इमोशन,  रवि के मन की फीलिंग एकदम सटीक बयां करते हैं. विजय के चेहरे के मसल्स जिस तरह मूव करते हैं, उससे किसी भी एक्टर को उनसे जलन हो सकती है. ऐसे कई मौके हैं जब सीन का सारा फील ही विजय के एक्सप्रेशन से उभर कर आता है. 

'कालकूट' में विजय वर्मा, यशपाल शर्मा

पूरे शो में परछाईं की तरह विजय के साथ घूम रहे कॉप, यादव के रोल में यशपाल शर्मा का काम भी शो में बहुत अच्छा है. वो एक तरह तो बहुत सादगी से रवि को बहुत काम का ज्ञान बहुत सादे शब्दों में दे रहा है, दूसरी तरफ वो लड़कियों के चरित्र को, पूरे जजमेंट के साथ उतनी ही आसानी से खराब करार देता है, जैसा रियल लाइफ में आपने बहुत लोगों को करते देखा होगा.

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रवि की मां के रोल में सीमा बिस्वास का दमदार काम, उनके शानदार रिकॉर्ड में एक और नई एंट्री है. श्वेता त्रिपाठी शर्मा, एसिड अटैक विक्टिम के इमोशंस, उसकी साइकोलॉजी और एक मस्तमौला लड़की की सोच को बहुत सफाई से स्क्रीन पर उतारती हैं. जगदीश बने गोपाल दत्त भी आपका ध्यान अपनी तरफ लगाए रहते हैं. शो में छोटे छोटे किरदार निभाने वाले एक्टर्स ने भी बहुत अच्छा काम किया है. 

राइटिंग और डायरेक्शन 
सुमित सक्सेना, अरुणाभ कुमार और करण सिंह त्यागी की राइटिंग ने 'कालकूट' को एक अच्छा लच्छेदार शो बनाया है. राइटिंग का कमल शो की डिटेल्स में दिखता है जहां बिना कोई एफर्ट लगाए, सिर्फ सेटिंग से ही स्क्रीन पर एक बड़ी बात आपतक पहुंचा दी जाती है.

'कालकूट' का स्क्रीनप्ले कहीं पर बहुत धीमा नहीं पड़ता. बल्कि पहले से आठवें एपिसोड की तरह कहानी लगातार एंगेजिंग होती जाती है. किरदार बहुत अच्छे से उभर के आते हैं और सारे सब-प्लॉट्स मिलकर मेन कहानी को और टाइट बनाते हैं. ऐसा नहीं लगता कि साइड स्टोरीज में मेन कहानी गुम हो रही है. 'कालकूट' की राइटिंग में सस्पेंस वाला फील ये है कि आपको पहले से एसिड अटैक करने वाले का नाम सोझ चुका हो, तब भी आप इंतजार करेंगे कि शो आपको खुद. 

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सुमित सक्सेना ने मैटेरियल को बहुत असरदार तरीके से डायरेक्ट किया है. उनके पास सीन को खिलने देने के लिए वो एक्स्ट्रा 30 सेकंड रहते हैं जिनमें डायलॉग ख़त्म होने के बाद एक्टर्स का एक्सप्रेशन कुछ कमाल कर जाता है. कहानी की पेस और नैरेटिव का न भटकना उनके डायरेक्शन की सबसे सॉलिड बात है.

क्या है कमी?
'कालकूट' की ब्रिलियंस इस बात में है कि ये 'कोई क्या कहेगा' वाले स्टिग्मा को पूरी गहराई से दिखाती है. लेकिन ऐसा करने के लिए शो जिस तरह का माहौल बनाता है, वो रियलिटी जितना सहज नहीं लगता. उसमें बार-बार असर छोड़ने के लिए की जा रही एक्स्ट्रा मेहनत झलकती है. जैसे जगदीश का अपने जूनियर रवि को बुली करना यूं भी दमदार तरीके से नजर आता है, लेकिन उसके मुंह से प्रति मिनट दो दर्जन के घनत्व से आती गालियां असल में माहौल को हल्का करती हैं. यानी स्क्रीन पर माहौल क्रिएट करके दर्शक को फीलिंग में भटकता छोड़ देने की बजाय, उसे एक खास पॉइंट तक हाथ पकड़कर ले जाने की कोशिश कई जगह बहुत क्लियर हो जाती है. 

बहुत इम्पोर्टेन्ट मोमेंट को बड़े करीने से ट्रीट करने वाली 'कालकूट' का क्लाइमेक्स जरूरत से ज्यादा हिरोइज्म से भरा लगता है. रवि के किरदार की खूबी ही यही थी कि वो एक ट्रेडिशनल-मर्दानगी के तैश से भरा पुलिसवाला नहीं है. लेकिन क्लाइमेक्स में इस बात का बदल जाना हजम करने लायक नहीं है. हालांकि, क्लाइमेक्स के एक्शन के बाद भी कुछ बहुत खूबसूरत सीन्स हैं. रवि के पिता जो क्रांतिकारी विचारों वाले प्रोफेसर-कवि थे, उनकी एक कविता में गाली और शो के अल्टीमेट मोमेंट वाली कविता में बिम्ब, जबरदस्त ऑडियंस को एक खास पॉइंट दिखाने की कोशिश लगते हैं. 

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दमदार बैकग्राउंड म्यूजिक भी 'कालकूट' की खासियत है और इसमें कई गाने भी हैं. जहां रेखा भारद्वाज और राहुल राम के गाने कमाल हैं, वहीं एक बार को ऐसा भी लगता है कि शो में गाने थोड़े ज्यादा ही हैं. लेकिन ये सब छोटी-छोटी दिक्कतें हैं, जिनपर शो की खासियतें भारी हैं. जियो सिनेमा का 'कालकूट' एक जरूर देखे जाने लायक शो है. 

 

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