देशभक्ति के इमोशन में डूबी, दो फिल्में आगे-पीछे रिलीज हुईं. लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इनका हाल एकदम विपरीत रहा. जहां '120 बहादुर' एक गुमनाम योद्धा की तरह कहीं खो गई. वहीं 'धुरंधर' ने थिएटर्स में जैसे तूफान खड़ा कर दिया है. 'धुरंधर' सिर्फ ताबड़तोड़ कमाई ही नहीं कर रही, जमकर चर्चा और भौकाल भी कमा रही है.
दोनों फिल्मों की बॉक्स ऑफिस परफॉरमेंस से तुलना की जा सकती है कि देशभक्ति के अलग-अलग स्टाइल के लिए इंडियन ऑडियंस का हाजमा कैसा है. आंकड़े ये कहानी स्पष्ट बताते हैं कि 'दुश्मन' का सिनेमाई नैरेटिव एक इमोशनल सुकून देता है. इससे कुछ असहज करने वाले सवाल भी खड़े होते हैं.
एक दूसरे से बिल्कुल अलग दो युद्ध
फरहान अख्तर की '120 बहादुर' 1962 वाले, रेज़ांग ला के युद्ध पर आधारित है. इस लड़ाई में मुट्ठी भर भारतीय सैनिकों ने चीन सेना के बड़े हमले का सामना किया था. '120 बहादुर' बमुश्किल 20 करोड़ रुपये का कलेक्शन कर सकी और बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप घोषित हुई. इसकी ओपनिंग सिर्फ 2 करोड़ रही, और 5वें दिन तक थिएटर ऑक्यूपेंसी 15% से भी नीचे चली गई.
फिल्म रेटिंग प्लेटफॉर्म Rotten Tomatoes पर इसे 73% पॉजिटिव रिव्यूज मिले थे. समीक्षकों ने इसे 'एक ईमानदार और तकनीकी रूप से दमदार ट्रिब्यूट' कहा था. पर ये तारीफें, फिल्म की कमर्शियल कामयाबी में नहीं बदलीं.
इसके उलट, रणवीर सिंह की 'धुरंधर' एक तूफान की तरह छा गई है. रिलीज के 6 दिन में ही इसने वर्ल्डवाइड 230 करोड़ रुपये से ज्यादा कमा लिए हैं. और ये आंकड़े लगातार ऊपर ही जा रहे हैं.
दर्शक किस इमोशन के लिए पैसे देते हैं?
'120 बहादुर' अपने दर्शकों से बौद्धिक और भावनात्मक परिपक्वता की मांग करती है. यह दर्शकों से देश की एक ऐतिहासिक हार का सामना करने को कहती है. 1962 का युद्ध भारत के लिए एक राष्ट्रीय अपमान जैसा था. '120 बहादुर' अपने दर्शक से, एक ग्लोबल पावर से युद्ध की जटिलताओं को समझने की कोशिश चाहती है. आपको स्वीकार करना होगा कि बहादुरी भरे बलिदानों के बावजूद कभी-कभी रणनीतिक पराजय अपरिहार्य होती है.
फिल्म एक कठिन प्रश्न पूछती है— क्या आप उस शहादत का सम्मान कर सकते हैं जो एक हारे हुए युद्ध में दी गई हो?' यह एक जटिल, दर्द भरा सवाल है जो भावनात्मक अतिरंजता से ज्यादा, ऐतिहासिक तथ्यों की नजर से देखा जाना चाहिए. ये थोड़ी कम उत्साह वाली देशभक्ति है जो सामूहिक बलिदान को तो स्वीकार करती है लेकिन इसके लिए इतिहास की गहरी समझ और भावनात्मक संयम चाहिए. और लगता है कि दर्शक 300 रुपये देकर ऐसी जटिल पीड़ा से गुजरना नहीं चाहते.
'120 बहादुर' असली सैनिकों, दस्तावेजों में दर्ज युद्ध से प्रेरित है. मेजर शैतान सिंह और उनके साथियों की कहानी साहस भरी दृढ़ता, आत्मसम्मान, गरिमा और बलिदान की कहानी है. स्टूडियो में रची गई नाटकीय देशभक्ति नहीं. फिर भी इस फिल्म को ना तो बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी मिली. ना ही इससे शहीदों पर कोई चर्चा शुरू हुई.
दूसरी तरफ, 'धुरंधर' जैसे एक भावनात्मक विस्फोट का माहौल रचती है. इसमें पाकिस्तान, आईएसआई और इस्लामिक आतंकवाद एक स्पष्ट, समकालीन दुश्मन है. यह 26/11 हमले, संसद हमले और सरहद पार से चल रहे दशकों पुराने आतंकवाद का बदला लेने की रोमांचकारी फैन्टेसी लेकर आई है.
'धुरंधर' भारत को ऐसे दुश्मन पर विजय प्राप्त करता दिखाती है जिसे हमने हमेशा खुद से कमजोर माना है. एक ऐसा देश, जिसकी अर्थव्यवस्था बांग्लादेश से भी छोटी है. जो, हमेशा डिफ़ॉल्ट करने की कगार पर खड़ा रहता है और हमपर कभी पारंपरिक सैन्य जीत पा ही नहीं सकता. ये भारतीय दर्शकों को गहरी संतुष्टि देता है. लेकिन इस फिल्म की कहानी ज्यादातर कल्पना है—कुछ बिखरे तथ्यों और काल्पनिक किरदारों पर आधारित. यह इतिहास नहीं है, किस्सागोई है. यह विचारशीलता नहीं है, कैथार्सिस है. हर सीन धमाकेदार है. इसका नैतिक भूगोल बहुत सरल है— हम अच्छे हैं, वे बुरे हैं, हम जीत गए. यह विशुद्ध, एड्रेनलिन में भिगोई गई देशभक्ति है, और बॉक्स ऑफिस साबित करता है कि यही बिकता है.
विवाद: प्रमोशन का एक एक्स्ट्रा इंजन
दोनों फिल्मों के विवादों का स्वभाव भी इनके कमर्शियल हाल की एक तस्वीर पेश करता है. '120 बहादुर' को अहीर समुदाय से विरोध का सामना करना पड़ा. टाइटल बदलने की मांग की गई ताकि उनका योगदान नजर आए. कई राज्यों में सड़कें रोककर विरोध प्रदर्शन हुआ. विरोध क्षेत्रीय तो हुआ, पर कोई उन्माद पैदा नहीं हुआ, न कोई राष्ट्रीय ध्रुवीकरण. ऐसी फीलिंग नहीं पैदा हुई कि फिल्म देखना किसी सांस्कृतिक युद्ध में अपना पक्ष तय करने जैसा है.
इसके उलट 'धुरंधर' ने एक दावानल की शुरुआत कर दी जो फिल्म आलोचना से निकलकर, एक सांस्कृतिक रणभूमि बन गई. फिल्म क्रिटिक अनुपमा चोपड़ा की समीक्षा पर इतना विवाद हुआ कि उन्हें उसे हटाना पड़ा. कई लोगों ने इसे ‘प्रोपेगैंडा’ और 'टॉक्सिक वायलेंस का दूत' कहा.
एक आलोचक ने 'धुरंधर' को “स्टेट के लिए बिच्छू का तेल' बेचने वाली (यानी धोखा देने वाली), और 'लोगों को उकसाने और बांटने के लिए तैयार किया गया, राष्ट्रीयता का BDSM वर्ज़न पॉर्न' कहा. सेलेब्रिटीज को भी अपना पक्ष रखने की जरूरत महसूस होने लगी. ऋतिक रोशन ने इसकी स्टोरीटेलिंग की तारीफ करते हुए नोट किया, 'मैं इसकी राजनीति से सहमत नहीं हूं'.
लेकिन इन आरोपों ने धुरंधर को नुकसान नहीं पहुंचाया. प्रोपेगैंडा का हर आरोप इसका मुफ्त विज्ञापन बन गया. और इसकी राष्ट्रवादी अतिरंजना ने आलोचना की हर आवाज को दबा दिया. इस विवाद ने एक बाइनरी तैयार कर दी— आप या तो फिल्म के (और भारत के) समर्थन में हैं, या इसके विरोध में. फिल्म के समर्थकों ने तर्क दिया कि जो समीक्षक इसे प्रोपेगैंडा कह रहे हैं, वे 'बिकिनी पहने ISI एजेंटों का बचाव कर रहे हैं'. और 'आतंकियों को आतंकवादी कहना प्रोपेगैंडा कैसे हो गया?' विडंबना ये है कि तथाकथित बिकिनी-थ्रिलर फिल्मों को तगड़ी कामयाबी भी मिली है. वो भी बिना ऐसी बहसों के जो लोगों को बांटती हैं.
'धुरंधर' ताबड़तोड़ बैकग्राउंड स्कोर के साथ, तेज-तर्रार रफ्तार बनाए रखती है और फिल्म को एनर्जी से भर देती है. यह विशुद्ध अंधराष्ट्रीयता है: हिंसक, शोर से भरपूर, स्पष्ट. ये इसलिए कामयाब होती है क्योंकि दर्शक सिर्फ फिल्म नहीं देख रहे— वे एक राष्ट्रवादी अनुष्ठान का हिस्सा बन रहे हैं.
कमजोर दुश्मन से मिलने वाला सुख
यह समझना जरूरी है कि दो अलग दुश्मनों की मनोवैज्ञानिक छवि भी दर्शकों की पसंद को प्रभावित करती है. चीन ने 1962 में भारत का सबसे बड़ा अपमान किया था. हजारों भारतीय सैनिकों की जान गई और इलाके कब्जा लिए गए जो आज भी विवादित हैं. अक्साइ चिन पर चीन का नियंत्रण है. वो लद्दाख में सीमा-विवाद में उलझा रहता है और उसकी अर्थव्यवस्था भारत से दस गुना बड़ी है. वह भारत के लिए लंबे समय से एक रणनीतिक खतरा है. कई क्षेत्रों में चीन न केवल प्रतिद्वंद्वी है, बल्कि भारत से बड़ी शक्ति भी है.
पाकिस्तान एक असफल, कमजोर, आर्थिक रूप से जर्जर राष्ट्र है. डिफ़ॉल्ट की कगार पर खड़ा हुआ. जिसे बिखरने से बचने के लिए बार-बार आईएमएफ़ (IMF) के फंड की जरूरत पड़ती रहती है. वह सैन्य या आर्थिक रूप से भारत का मुकाबला नहीं कर सकता. इसलिए आतंकवाद और प्रॉक्सी-वॉर के जरिए खतरे पैदा करता रहता है. वह भारत के लिए कभी वैसा खतरा नहीं बन सकता, जैसा चीन है.
चीन के विवाद को समझने के लिए जटिलताओं और हार को स्वीकार करना होगा जो भारतीयों के लिए एक कठिन, असुविधाजनक सत्य है. दर्शक एक शक्तिशाली चीन से जूझने के बजाय एक कमजोर पाकिस्तान को पटकने में ज्यादा रोमांच पसंद करते हैं. इसके मुकाबले पाकिस्तान, भारतीय दर्शकों के लिए गुस्सा जताने, बदला लेने की फैन्टेसी और दबदबा जताने के ज्यादा मौके देता है.
भारत के बारे में यह क्या बताता है
'धुरंधर' की भारी सफलता सिर्फ दमदार फिल्ममेकिंग की जीत नहीं है. यह उस सनक का भी पैमाना है जो भारतीय जनता में पाकिस्तान के लिए है.
पाकिस्तान दर्शकों को कमजोर दुश्मन पर जीत का सुख देता है. दबदबा दिखाने के नैरेटिव में शामिल होने का मौका देता है. राजनीतिक-सामाजिक श्रेष्ठता फील कराने वाला ऐसा शत्रु बनता है जो कभी बराबरी कर ही नहीं सकता. खुद को दमदार दिखाने के लिए, 'दूसरे' को कमजोर दिखाने वाली लग्जरी पाकिस्तान के साथ ली जा सकती है.
बॉक्स ऑफिस आंकड़े बताते हैं कि भारतीय दर्शकों की इस प्राथमिकता को भुना लेने वाली फिल्में कई गुना ज्यादा बिकती हैं. लेकिन तयशुदा मौत के सामने असल वीरता, देशभक्ति के पेंचीदा नैरेटिव दिखाने वाली फिल्मों के चांस इतने मजबूत नहीं होते.