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UP Election: गांधी परिवार के सामने गढ़ बचाने की चुनौती, रायबरेली-अमेठी में नहीं मिल रहे जिताऊ प्रत्याशी

UP Election 2022: 10 साल पहले की ही बात करें तो रायबरेली और अमेठी की 10 सीटों पर या तो कांग्रेस के विधायक थे. 2007 की विधानसभा में रायबरेली और अमेठी की 8 सीटों पर कांग्रेस के विधायक थे लेकिन धीरे-धीरे ना सिर्फ यहां से कांग्रेस का वर्चस्व कम हुआ बल्कि आज 2022 में सीधी लड़ाई लड़ने वाले नेता भी क्षेत्र में नहीं हैं.

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कांग्रेस का बर्चस्व रायबरेली और अमेठी में कम होने लगा है.
कांग्रेस का बर्चस्व रायबरेली और अमेठी में कम होने लगा है.
स्टोरी हाइलाइट्स
  • रायबरेली के सारे सियासी समीकरण बिगड़े
  • धीरे-धीरे कम हो गया है रायबरेली-अमेठी में कांग्रेस का बर्चस्व

विधानसभा चुनावों में अभी तक कांग्रेस ने 125 उम्मीदवारों के नाम का ऐलान किया है जिनमें रायबरेली और अमेठी की सिर्फ सुरक्षित उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की गई है. सामान्य सीटों में से केवल तिलोई पर ही अमेठी जिला अध्यक्ष प्रदीप सिंघल को टिकट दिया गया है बाकी सामान्य सीटों पर अभी तक किसी भी प्रत्याशी के नाम की घोषणा नहीं की गई है. 2017 के चुनाव में रायबरेली की जिन 2 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली थी, उन पर भी पार्टी ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस के पास मौजूदा स्थिति में ऐसे कैंडिडेट नहीं हैं, जो गांधी परिवार की साख बचा सके और कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा पहुंच सके.

रायबरेली और अमेठी में कुल 10 विधानसभा सीटें आती हैं जिसमें से सिर्फ चार कैंडिडेट के नाम का ऐलान हुआ है. इनमें रायबरेली की आरक्षित विधानसभा सीट से सुशील पासी, सलोन विधानसभा से अर्जुन पासी, अमेठी की जगदीशपुर से विजय पासी और अमेठी की ही तिलोई विधानसभा से कांग्रेस के जिला अध्यक्ष प्रदीप सिंघल के नामों पर मुहर लगाई गई है. इसके अलावा रायबरेली सदर हरचंदपुर, सरेनी, ऊंचाहार गौरीगंज, अमेठी के नामों की घोषणा नहीं हुई है. यह सभी सामान्य सीटें हैं. पिछली बार कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा पहुंचे रायबरेली से दोनों विधायक सदर विधानसभा से अदिति सिंह और हरचंदपुर विधानसभा से राकेश सिंह भाजपा ज्वाइन कर चुके हैं. अब यहां मुकाबला भाजपा और सपा के बीच है. 

रायबरेली के सारे सियासी समीकरण बिगड़े

कांग्रेस परिवार भले ही लोकसभा चुनाव में रायबरेली से जीतती रही हो लेकिन सदर सीट पर हमेशा बाहुबली विधायक अखिलेश सिंह का ही वर्चस्व रहा है. ऐसे में जिस तरह से चुनाव के ठीक पहले स्वामी प्रसाद मौर्य के बीजेपी छोड़कर सपा में आने के बाद रायबरेली के भी सारे सियासी समीकरण उलट-पुलट हो गए हैं. रायबरेली सदर में अदिति के बीजेपी ज्वाइन करने के बाद जहां समाजवादी पार्टी हल्की नजर आ रही थी, वहीं स्वामी प्रसाद मौर्या के समाजवादी पार्टी को ज्वाइन करने के बाद अब वह सीधे फाइट में आ गई है. यहां पर भी यादव मुस्लिम समीकरण के साथ-साथ मौर्य समीकरण का भी सहयोग सपा के पक्ष में दिखाई दे रहा है. यह समीकरण रायबरेली की लगभग हर सीट पर बनता दिखाई दे रहा है.

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ऊंचाहार विधानसभा

जहां बीते 2 विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के मनोज कुमार पांडे ने स्वामी प्रसाद मौर्य के बेटे उत्कृष्ट मौर्या को सीधे संघर्ष में दोनों बार हराया है. 2012 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर तो 2017 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी बन कर भी उत्कृष्ट मौर्या विधानसभा नहीं पहुंच पाए और इस बार भी उन्हें मनोज पांडे के हाथों मात ही हाथ लगी. अब तक कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर पूर्व विधायक अजय पाल सिंह चुनाव में ना लड़ने का मन बना चुके थे, वहीं बदले हुए समीकरण के बाद अब वह मैदान में उतरने की कयास भी लगाए जा रहे हैं, क्योंकि अगर समाजवादी पार्टी ऊंचाहार से मनोज पांडे की बजाय स्वामी प्रसाद मौर्य के बेटे को टिकट देती है और मनोज कुमार पांडे इस क्षेत्र में साइलेंट हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में ऊंचाहार विधानसभा में ठाकुर ब्राह्मण कंबीनेशन के जरिए अजय पाल सिंह की राह को आसान बना देगी और अब कांग्रेस मनोज पांडे के अगले कदम को लेकर इंतजार कर रही है. शायद यही वजह है कि कांग्रेस ने अब तक यहां से प्रत्याशी डिक्लेअर नहीं किया है.

सदर विधानसभा

यहां कांग्रेस पार्टी बीजेपी की संभावित प्रत्याशी अदिति सिंह और समाजवादी पार्टी के संभावित प्रत्याशी आरपी यादव के सामने ऐसा कोई नेता नहीं है जो इन दोनों का सीधा मुकाबला कर सके. जिन लोगों ने कांग्रेस पार्टी से आवेदन किया है, अभी सीधी लड़ाई में जीत कम से कम उनके आंकड़ों में तो दिखाई नहीं देती.

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हरचंदपुर सीट

यहां 2017 में कांग्रेस पार्टी से जीता विधायक भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो चुका है. यहां भी मजबूत दावेदारों में सबसे ज्यादा टिकट की मारामारी समाजवादी पार्टी में ही है. एक तरफ पंजाबी सिंह दो बार विधायक रह चुके हैं, पूर्व मंत्री रह चुके हैं तो राहुल लोधी 2017 के चुनाव में बीजेपी के कैंडिडेट के तौर पर दूसरे नंबर पर रहे थे. जातीय समीकरण के आधार पर यादव-मुस्लिम के साथ लोधी बिरादरी का वोट अगर राहुल लोधी के साथ खड़ा होता है तो राहुल लोधी की राह बहुत आसान हो जाएगी. राहुल लोधी के पिता शिव गणेश लोधी अपने अंतिम चुनाव में कांग्रेस पार्टी से ही विधायक रहे थे जिनकी 2017 विधानसभा के पहले हार्ट अटैक से मौत हो गई थी. अगर राहुल लोधी का टिकट कटता है तो कांग्रेस में उनकी घर वापसी कराई जा सकती है तो अटकलें यहां तक है कि अगर पंजाबी का टिकट करता है तो पंजाबी सिंह को भी पंजे से कोई गुरेज नहीं होगा. यहां पर भी कांग्रेस पार्टी इस इंतजार में है कि समाजवादी पार्टी जिसका भी टिकट काटेगी उसको कांग्रेस का प्रत्याशी बनाने की जुगत लगायेगी.

सरेनी विधानसभा

यहां पर भी कांग्रेस के 2007 में विधायक रहे अशोक सिंह का टिकट अभी तक घोषित नहीं किया गया जबकि कहा गया था कि कांग्रेस इस बार अपने 2007 में जीते हुए और 2012 में हारने वाले विधायकों को टिकट जरूर देगी लेकिन अब तक अशोक सिंह पर उनकी चुप्पी कई आशंकाओं को बल देती है कि कहीं कांग्रेस यहां से भी प्रत्याशी बदलने के मूड में तो नहीं.

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गौरीगंज में भी दो बार से समाजवादी पार्टी के विधायक राकेश सिंह और कांग्रेस के पूर्व प्रत्याशी नईम गुर्जर ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है. अब ऐसे में वहां भी भाजपा और समाजवादी पार्टी को सीधे टक्कर देने वाला प्रत्याशी अभी कांग्रेस के सामने नजर नहीं आ रहा जो बड़ी चिंता का सबब बना हुआ है.

अमेठी विधानसभा

अमेठी विधानसभा की स्थितियां भी कुछ हरचंदपुर विधानसभा की तरह से ही है कि अब वर्तमान विधायक डॉक्टर संजय सिंह की पत्नी गरिमा सिंह भाजपा में हैं तो अब संजय सिंह और उनकी दूसरी पत्नी अमिता सिंह भी भाजपा में आ चुकी हैं. ऐसे में टिकट किसी एक को ही मिलेगा तो दूसरे की नाराजगी कांग्रेस का भला कर सकती है. यहां भी कुछ वेट एंड वॉच जैसी ही स्थिति कांग्रेस के लिए दिखाई पड़ रही है.

10 साल पहले की ही बात करें तो रायबरेली और अमेठी की 10 सीटों पर या तो कांग्रेस के विधायक थे. 2007 की विधानसभा में रायबरेली और अमेठी की 8 सीटों पर कांग्रेस के विधायक थे लेकिन धीरे-धीरे ना सिर्फ यहां से कांग्रेस का वर्चस्व कम हुआ बल्कि आज 2022 में सीधी लड़ाई लड़ने वाले नेता भी क्षेत्र में नहीं हैं. ऐसे में कांग्रेस पार्टी को दूसरी पार्टी के नाराज नेताओं का इंतजार भी है कि आखिर उन्हें किस तरह से अपने खेमे में लाकर अपनी पार्टी से चुनाव लड़वाया जाए या फिर अपने प्रत्याशियों के लिए उनकी मदद ली जाए.

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