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बनारस में रोशनी से महरूम मुसहरों का मोहल्ला

ऊबड़-खाबड़ सड़कों से गुजरता-ठहरता बनारस. पहाड़ जैसे कूड़े के ढेरों पर बसा बनारस. घंटों जाम से जूझता बनारस. इन दिनों यह शहर चुनावी चर्चाओं से गुलजार है. नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी और पिछले करीब एक महीने से डेरा जमाए अरविंद केजरीवाल की मौजूदगी ने बनारस के चुनाव को आन-बान और शान का विषय बना दिया है.

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ऊबड़-खाबड़ सड़कों से गुजरता-ठहरता बनारस. पहाड़ जैसे कूड़े के ढेरों पर बसा बनारस. घंटों जाम से जूझता बनारस. इन दिनों यह शहर चुनावी चर्चाओं से गुलजार है. नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी और पिछले करीब एक महीने से डेरा जमाए अरविंद केजरीवाल की मौजूदगी ने बनारस के चुनाव को आन-बान और शान का विषय बना दिया है. नहीं तो हर लोकसभा चुनाव में बनारस संसदीय सीट पर चुनाव होते थे, लेकिन यह क्षेत्र चुनावी रण का केंद्र नहीं बनता था.

मीडिया में लगातार खबरें दिखाई जा रही हैं कि कैसे बनारस की सड़कें खश्ताहाल हैं. कैसे वहां कूड़े के ढेर के ढेर लगे हैं. पानी में क्लोरीन ज्यादा है. कैसे दिन में कई-कई घंटे बनारस जाम में फंसा रहता है. बिल्कुल ठीक, ऐसा ही है बनारस. कुछेक पत्रकार गांव भी पहुंचे. शहरी बनारस से यहां की तस्वीर और भी ज्यादा निराशाजनक है. हालांकि पूरे देश के गांव बदहाल हैं. पर क्योंकि बनारस चर्चा के केंद्र में है इसलिए यहां जिक्र करना जरूरी है.

बनारस रेलवे स्टेशन, कैंट से महज 17 किलोमीटर दूर एक जगह है, राजा तालाब. यह क्षेत्र बनारस की सेवापुरी विधानसभा सीट में आता है. यहां के ब्लाक आराजीलाइन्स में एक गांव है, मेहदीगंज. यह दो पुरवों में बंटा है. मेहंदीगंज मढ़ई और मेहदीगंज. जीटी रोड से बिल्कुल लगा हुआ है यह गांव. मुख्य सड़क से बमुश्किल तीन किलोमीटर दूर. इस गांव में जाने के लिए आपके पास अपना वाहन होना चाहिए. करीब दस हजार की आबादी है पूरे गांव की. ठाकुर, पटेल, मियां, राजभर, गड़रिया और मुसहर. इन लोगों की अलग-अलग बस्तियां इस गांव में हैं. जैसा कि ज्यादातर गांवों में होता है. मतलब गांवों के भीतर अलग–अलग जातियों की अलग-अलग बस्तियां होती हैं.

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मुसहर जिन्हें दलितों में भी महादलित माना जाता है. इनकी बस्ती का रास्ता पूछो तो कुछ लोग इन्हें पासी कहेंगे तो कुछ लोग मूस खाने वाला कहेंगे. कोई रसूखदार ठाकुर या मियां मिल जाएगा तो जरूर पूछेगा वहां किससे मिलना है? जवाब देने से पहले ऐसा भी बोलेगा जरूर मीडिया से होंगे. चुनाव है न. पूछते-पूछते इस बस्ती में पहुंचेंगे तो सामने बजबजाती नालियां, गड्ढेदार नल की जगत में सालों से जमा पानी. देखकर खराब लगता है. पर उससे ज्यादा आश्चर्य तब होता है जब महज आठ से दस कदम की दूरी पर बसी ठाकुरों की बस्ती, जहां गिनकर चार घर हैं, में साफ-सफाई और पक्के खड़ंजे नजर आते हैं. जबकि मुसहरों की बस्ती में करीब तीन सौ घर हैं. दूसरी तरफ ही मियांओं की बस्ती है. वहां भी हालात ठाकुरों की बस्ती जैसे न सही लेकिन इतने खराब भी नहीं हैं.

पत्तों को तोड़कर पत्तलें बनाने वाले मुसहरों का परंपरागत पेशा ईंट के भट्ठों में काम करना भी है. साल में करीब छह से आठ महीने यह लोग बाहर ही रहते हैं. अभी हम कुछ औरतों से बात कर ही रहे थे कि पीछे से करीब साठ-पैंसठ साल के सोहन आकर कहते हैं. मैडम कम से कम लाइन की सिफारिश लगा दीजिए. देखिए न बगल में ठाकुरों के चार घर हैं फिर भी लाइन है. मियांओं की बस्ती में भी लाइन है. पटेलों की बस्ती में भी. बस हमारी ही बस्ती में आज तक लाइन नहीं पहुंची. चारों तरफ नजर दौड़ाकर देखा तो सच में वहां कोई तार नहीं था. क्या यहां कभी लाइन नहीं रही, पूछने पर पत्तल बना रही छिंगुरिया बोलती है. कभी नहीं. प्रधान से कहो तो कहते हैं क्या करोगे लाइन का? अगर कहो कि प्रधान जी, बच्चे रात में ही पढ़ने बैठते हैं, तो कहते हैं? पढ़कर क्या कलेक्टर बनेंगे. मजेदार बात यह है कि यह गांव 2002 में अंबेडकर ग्राम भी घोषित किया गया था. बावजूद इसके दलितों के घर रोशन नहीं हो सके. चारों ओर पटेल, ठाकुरों, मियांओं, गड़रियों की बस्ती में खंभे गड़े हैं. लेकिन यह बस्ती छूटी है.

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दोबारा पूछा कि आप लोग सरकारी दफ्तर क्यों नहीं जाते? जवाब प्रत्याशित ही था. साहब हमारे लिए तो प्रधान ही सरकार हैं. इस बस्ती और आस-पास की बस्ती के फर्क को बिना किसी से कुछ पूछे भी आसानी से देखा जा सकता है. इस बदहाली की कहानी के बीच ही अचानक पूछा किसे वोट देंगे. तो जवाब की जगह सवाल मिला. आप बताइये किसे दें? अभी कमल की गाड़ी आई थी. उनके जुलूस में जाने के लिए. हम एक-दो लोग चले गए थे. पर क्या फायदा, किसी को भी दें वोट. मुसहरों की कौन सुनेगा? यह पूछने पर कि क्या कभी प्रधान इस बस्ती में आते हैं. जवाब मिला, नहीं! वह कैसे हमारे दरवाजे आएंगे? हम जाते हैं. पर कुछ सुनते ही नहीं प्रधान जी.

अब जो सवाल पूछा शायद वह केवल अपनी तसल्ली के लिए ही पूछा था मैंने, क्योंकि अब तक उनका हाल देखकर अंदाजा हो गया था कि जवाब क्या मिलेगा? आप लोगों को शादी ब्याह में बुलाते हैं आसपास के लोग. हां, जूठे पत्तल बीनने के लिए जाते हैं. पत्तल तो आप से ही खरीदते होंगे यह लोग. जवाब मिला हां. तो क्या आप के छुए पत्तल में खाना खाते हैं. पूरा गांव ही नहीं पूरा बनारस खाता है. बस हमारा छुआ नहीं खाते...इतना कहते-कहते एक 18-19 साल के लड़के के मुंह से गाली फूट पड़ी. गुस्सा, खीझ उसकी आवाज में साफ थे. पास बैठी तेतरा देवी ने और गुस्से में कहा हमारा छुआ चमार भी नहीं खाते. क्योंकि हम दलित नहीं महादलित हैं. हालांकि स्कूल से पढ़कर आते बच्चों को देखकर थोड़ी तसल्ली जरूर हुई.

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ठाकुरों की बस्ती करीब ही थी. गिनती के चार घर. साफ-सुथरी बस्ती. बस्ती के नामी-गिरामी दरोगा सिंह से चुनावी चर्चा की तो तपाक से बोले बस मोदी ही आएंगे. बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछा कि मुसहरों की बस्ती इतनी गंदी क्यों है? लाइन भी नहीं है? जवाब मिला क्या बताएं मैडम. इन्हें तो अंधेरा ही पसंद है. कभी कोई कोशिश ही नहीं करते. हमने तो कभी भी इस बस्ती में लाइन नहीं देखी. साथ खड़े उनके बेटे राहुल सिंह ने अपने पिता के सुर में सुर मिलाते हुए कहा, गंदगी और इनका तो चोली-दामन का साथ है. प्रधान के घर जाकर उनसे मुसहरों की बस्ती के बारे में पूछा तो यहां भी जवाब मिला कि यह लोग अंधेरा ही पसंद करते हैं. जब जोर देकर पूछा कि क्या कभी आपने लाइन के बारे में विभाग में बात की है तो जवाब मिला नहीं, कभी नहीं. क्यों? मैडम आधे साल तो भट्ठों में रहते हैं, य लोग. आखिर करेंगे क्या लाइन का? यही हाल बनारस की सारी मुसहर बस्तियों का है.

यह तो मुसहर हैं जिन्हें महादलित माना जाता है. लेकिन ज्यादातर गांवों में दलितों की बस्तियों की हालत करीब-करीब ऐसी ही है. अगड़े और पिछड़ों की बस्तियों का यह अंतर गांवों में साफ दिखाई देता है. बनारस में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों में यही हाल है. जैसा कि लगातार मीडिया में आ रहीं खबरों से लग रहा है कि नरेंद्र मोदी भारत के अगले प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो ऐसी स्थिति में विकास बखान करने वाले मोदी के लिए इन महादलितों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ना एक चुनौती होगा. देखना होगा कि मोदी के विकास की टॉर्च की रोशनी इन महादलितों पर भी पड़ती है या छिटककर सिर्फ समाज के मजबूत तबकों को ही रोशन करेगी.

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(डॉ. संध्या द्विवेदी खबर लहरिया अखबार की सीनियर एडीटोरियल कोऑर्डिनेटर हैं और उन्होंने आजतक की वेबसाइट के लिए बनारस से ये रिपोर्ट भेजी है.)

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