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क्या फिर बड़ा झटका देगी दिल्ली?

दिल्ली को बड़ी तेजी से बदलने की आदत पड़ गई है. अन्ना आंदोलन से पहले की दिल्ली और बाद की दिल्ली में वोटर के मिजाज में भी यही बात साफ झलकती है. अक्टूबर 2013 में हुए विधानसभा चुनाव और उसके बाद अप्रैल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली के वोटर के मिजाज में इतना चमत्कारी बदलाव आया जो इससे पहले लंबे समय से कम से कम दिल्ली में तो नहीं ही देखा गया.

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दिल्ली को बड़ी तेजी से बदलने की आदत पड़ गई है. अन्ना आंदोलन से पहले की दिल्ली और बाद की दिल्ली में वोटर के मिजाज में भी यही बात साफ झलकती है. अक्टूबर 2013 में हुए विधानसभा चुनाव और उसके बाद अप्रैल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली के वोटर के मिजाज में इतना चमत्कारी बदलाव आया जो इससे पहले लंबे समय से कम से कम दिल्ली में तो नहीं ही देखा गया. तो क्या अब फरवरी 2015 में होने वाले विधानसभा चुनाव में दिल्ली का मतदाता एक बार फिर बड़ी स्विंग लेगा या वोटों के शिखर पर बैठी बीजेपी मजे में बाजी मार ले जाएगी.

चुनावी दावों और आरोप-प्रत्यारोप से परे जरा कुछ आंकड़ों पर नजर डालें. शीला दीक्षित ने 2008 में जब दिल्ली में तीसरी बार कांग्रेस का परचम फहराया था, तब कांग्रेस को 40.31 फीसदी वोट मिले थे और बीजेपी को 36.84 फीसदी वोट मिले. इसी चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी को 14.5 फीसदी वोल मिले थे. हालांकि बसपा के खाते में सीटें न के बराबर थीं.

लेकिन अन्ना आंदोलन के दौरान मथी गई दिल्ली जब अक्टूबर 2013 में चुनाव में गई तो मतदाता ने 15 साल से चला आ रहा अपना मिजाज एक झटके में बदल दिया. कांग्रेस के वोट में 16 फीसदी की तेज गिरावट आई और वह 24.55 फीसदी पर सिमट गई. बीजेपी की सीटें बढ़ीं लेकिन उसका वोट घटकर 33 फीसदी रह गया. बसपा का वोट बैंक पूरी तरह साफ हो गया. और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीतिक की नई किस्म की क्रांति के तौर पर 29.49 फीसदी वोटों के साथ दूसरी बड़ी ताकत बनकर उभरी. केजरीवाल इस चुनाव की खोज रहे.

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लेकिन छह महीने बाद जब दिल्ली में लोकसभा चुनाव हुए तो फिजां एकदम से बदल गई. बीजेपी ने दिल्ली में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में से एक हासिल करते हुए वोट शेयर में 13 फीसदी की उछाल लगाई. मोदी लहर में पार्टी को 46.1 फीसदी वोट मिले. आम आदमी पार्टी के वोट में तीन फीसदी की मामूली बढ़त हुई. लेकिन दिल्ली की सात में से सात सीटों पर काबिज कांग्रेस औंधे मुंह गिरी और उसका वोट शेयर 9.5 फीसदी और घटकर सिर्फ 15 फीसदी बचा. दो चुनाव में कांग्रेस 40 से 15 फीसदी पर आ गई. बसपा फिर अखाड़े में नहीं दिखी.

अब नौ महीने बाद दिल्ली फिर चुनाव के मैदान में है. पिछले दो चुनाव में दिल्ली ने एकदम से एक पार्टी पर न्योछावर होने का ट्रेंड दिखाया है. लोकसभा चुनाव के नजरिए से देखें तो बीजेपी और आम आदमी पार्टी के वोट शेयर में 13 फीसदी का बड़ा अंतर है. अगर मोदी लहर पहले से मंद भी हो गई है तो भी क्या इतना वोटर एक साथ पार्टी को छोड़ देगा. कांग्रेस पहले ही दीवार से लग चुकी है, ऐसे में उसके वोट शेयर में और सेंधमारी की गुंजाइश आम आदमी पार्टी के पास नहीं है. बल्कि हो सकता है कि अजय माकन में इसमें कुछ इजाफा ही कर लें. लेकिन दो चुनाव से वोटर के मुंह में जिस तरह बड़ी स्विंग करने का स्वाद लग चुका है, ऐसे में इस बार भी कुछ न कुछ तो स्विंग होगा. इस स्विंग की चौड़ाई पर ही दिल्ली के तख्ते ताउस की तकदीर निर्भर है. जिस तरह कश्मीर और झारखंड में मोदी लहर के मंद पड़ने के संकेत दिखे हैं और 10 जनवरी की मोदी रैली में उम्मीद से काफी कम लोग आए, उसमें दिल्ली के लिए कुछ न कुछ सबक तो छुपा है. ऐसे में जो भी दांव पर लगा है, वह बीजेपी का ही है.

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