scorecardresearch
 

प्रफुल्ल महंत: असम आंदोलन ने दिलाई सत्ता फिर मिली गुमनामी

प्रफुल्ल कुमार महंत ने असम आंदोलन का नेतृत्व किया था. पहली बार जब 1985 में असम गण परिषद को बहुमत मिला तो ताज प्रफुल्ल कुमार महंत के सिर सजा.

Advertisement
X

प्रफुल्ल कुमार महंत भारतीय राजनीति के ऐसा चेहरा हैं जिन्होंने महज 32 साल की उम्र में सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बनने का तमगा हासिल किया. महंत पहली बार 1985 में असम के मुख्यमंत्री बने. महंत ने असम आंदोलन का नेतृत्व किया था. पहली बार जब 1985 में असम गण परिषद को बहुमत मिला तो ताज प्रफुल्ल कुमार महंत के सिर सजा.

बचपन से नेतृत्व की क्षमता
प्रफुल्ल कुमार महंत का जन्म 23 दिसंबर 1952 को असम के नगांव में हुआ. बचपन से ही इनमें नेतृत्व की क्षमता थी. गुवाहाटी यूनिवर्सिटी से इन्होंने ग्रेजुएशन की डिग्री ली और फिर राजनीति में सक्रिय हो गए. महंत राजनीति की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे थे. लेकिन साये की तरह विवाद भी पीछा कर रहा था. साल 1985-90 का कार्यकाल पूरा करने के बाद महंत एक बार फिर 1996 से 2001 तक असम के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए. लेकिन इस बीच उनकी राजनीति पर विवाद हावी हो गया. चारों तरफ से आरोपों की बौछार होने लगीं और फिर 2001 में उन्हें मजबूरन सत्ता छोड़नी पड़ी.

कामयाबी के साथ-साथ गुमनामी
सत्ता के साथ-साथ महंत पार्टी अध्यक्ष पद से भी बेदखल कर दिए गए. आरोप संगीन थे और गुमनामी पीछा कर रहा था. महंत पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर उल्फा नेताओं के परिवार के सदस्यों की हत्या कराने का आरोप लगा. निजी जिंदगी में भी विवाद ने घर कर लिया था और विवाहेतर संबंधों के आरोप लगे. पार्टी के एक गुट ने रातों-रात महंत को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. दुनिया के सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बनकर इतिहास रचने वाले महंत अचानक दो दशक के भीतर असम की राजनीति में अछूत हो गए. लेकिन महंत ने हार नहीं मानी और उन्होंने अलग असम गण परिषद (प्रगतिशील) नाम की पार्टी बना ली. और 2006 के विधानसभा चुनाव में कूद पड़े. इस चुनाव में केवल महंत ही जीत हासिल कर पाए. पार्टी के बाकी उम्मीदवारों को करारी हार मिली.

Advertisement

2008 में हुई पार्टी में वापसी
एक वक्त ऐसा भी था जब लग रहा था कि अब असम गण परिषद में प्रफुल्ल कुमार महंत के लिए सभी दरवाजे बंद हो चुके हैं. तत्कालीन अध्यक्ष वृंदावन गोस्वामी ने महंत को कभी पार्टी में नहीं लौटने देने की कसम तक खा ली थी. ऑल असम स्टूडेंट्‌स यूनियन (आसू) ने महंत विरोधी अभियान शुरू कर दिया था. वहीं दूसरी ओर महंत के बिना असम गण परिषद दिनों-दिन कमजोर होती जा रही थी. साल 2008 में चंद्रमोहन पटवारी पार्टी के अध्यक्ष बने तो महंत की वापसी के रास्ते खुलने लगे. पटवारी इस बात से वाकिफ थे कि पार्टी को फिर से मजबूत महंत ही कर सकते हैं. उन्होंने केवल महंत को ही नहीं, दूसरे बागी नेताओं को भी मनाया और पार्टी में वापस लेकर आए.

बुरे वक्त में योग का सहारा
महंत भी मानते हैं कि उनकी जिंदगी में वो सबसे बुरा वक्त था. लेकिन उन्होंने वक्त को कोसने की बजाय लोगों से जुड़ने के काम में लगाया. लोगों की रायशुमारी करने लगे कि आखिर गलती कहां हुई और उसे कैसे सुधारा जाए. साथ ही कठिन दौर में योगाभ्यास और प्रार्थना को उन्होंने अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया था. महंत का दावा है कि खुद प्रधानमंत्री बनने से इनकार करने वाले ज्‍योति बसु ने 1996 में दिल्ली के असम भवन में संयुक्त मोर्चा की एक बैठक में उनके नाम का प्रस्ताव रखा था. लेकिन महंत ने विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया था. जानकार मानते हैं कि मुख्यमंत्री के दूसरे कार्यकाल के दौरान महंत ने कई गलतियां की थीं. इनमें सबसे बड़ी वजह सरकारी फैसलों में उनकी पत्नी जयश्री गोस्वामी महंत का हस्तक्षेप बढ़ना था. लोग तो कहते हैं कि सत्ता की बागडोर जयश्री गोस्वामी ने अपने हाथ में ले ली थीं.

Advertisement

महंत की निजी जिंदगी पर नजर
महंत का एक छोटा सा परिवार है जिसमें उनकी पत्नी के अलावा एक बेटा श्यामंता कश्यप और एक बेटी प्रजयिता हैं. महंत सुबह उठने के आदी हैं और करीब 14 घंटे तक काम करते हैं. महंत पूरी तरह से शाकाहारी हैं और उन्हें चावल खाना बेहद पसंद हैं. इसके अलावे महंत को उटेंगा (बेल का रस) और काले चने भी खूब भाते हैं. महंत हमेशा सफेद कपड़े पहनते हैं, उनका मानना है कि इससे वह शांत और शुद्ध रहते हैं. मौजूदा वक्त में महंत असम गण परिषद के अध्यक्ष हैं और बीजेपी के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं.

Advertisement
Advertisement