उत्तर प्रदेश में असली जंग छिड़ चुकी है. प्रियंका गांधी के रोड शो को लेकर सारे अनुमान अब हकीकत की कसौटी पर हैं. राहुल गांधी ने कहा कि उन्होंने प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधियो को उत्तर प्रदेश में अगली सरकार बनाने के इरादे से भेजा है. लेकिन सवाल पूछे जा रहे हैं कि प्रियंका के नाम का इक्का भी न चला तो?
मतभेद भुलाकर एक छत के नीचे आने के बारे में तो सुना होगा आपने, लेकिन राजनीति का चक्का जब जेठ की दोपहरी से अमावस के नेपथ्य में चला जाता है तो नेताओं को एक छत के नीचे नहीं, एक बस के ऊपर आना पड़ता है.
प्रियंका गांधी वाड्रा का वाजिद अली शाह के शहर में कुछ यूं स्वागत हुआ कि हवाई अड्डे से प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय तक जिस तरह से लोग उमड़े, उसका अंदाजा उत्तर प्रदेश में 7 फीसद वोट पाने वाली कांग्रेस को भी न रहा होगा. इसी उत्साह में राहुल गांधी ने वो बात कह दी जिस पर राजनीति के प्रेक्षक सिर्फ मुस्कुरा सकते हैं.
राहुल ने कहा कि मैंने प्रियंका और सिंधिया जी को यहां का जनरल सेक्रेटरी बनाया है. मैंने उनको कहा है कि उत्तर प्रदेश में जो सालों से अन्याय हो रहा है उसके खिलाफ लड़ना है और यूपी में न्यायवाली सरकार लानी है. इनका लक्ष्य लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनाने का भी है.
मतलब प्रियंका गांधी राहुल गांधी के लिए तुरुप का इक्का हैं, यानि आखिरी पत्ता जिसके बाद कुछ नहीं. लेकिन राजनीति में असंभव की साधना का प्रसाद वही नहीं होता जो मांगा जाता है. कई बार उसे समझा जाता है. ऐसे में सवाल है कि प्रियंका गांधी क्या असलियत को समझ रही हैं.
प्रियंका गांधी को पार्टी को दुर्दिन से निकालने के लिए कमजोर हाथ दिए गए हैं. न तो उनके पास नेता हैं, न कार्यकर्ता, न जातीय समीकरण और न ही उत्साह भरने वाले मुद्दे. मतलब प्रियंका गांधी को शून्य से शुरुआत करनी है.Congress President @RahulGandhi GS Incharges UP East & West @priyankagandhi & @JM_Scindia greet the thousands of well wishers gathered along the path of their roadshow in Lucknow. #NayiUmeedNayaDesh pic.twitter.com/BvDyDjLSAX
— Congress (@INCIndia) February 11, 2019
कमजोर संगठन है पहली मुश्किल
चैन से बैठकर वाकई कांग्रेस कुछ कर नहीं पाएगी, लेकिन बेचैन होकर भी वो जो हासिल करना चाहती हैं उसे हासिल करना इतना आसान नहीं होगा. सबसे बड़ी मुश्किल तो कमजोर संगठन है. 1989 में जब कांग्रेस सत्ता से गई तो क्षेत्रीय दलों के उभार में पूरा संगठन ध्वस्त हो गया. चुनाव दर चुनाव कार्यकर्ता एसपी-बीएसपी की ओर मुड़ते चले गए. किसी बड़े मुद्दे पर कांग्रेस की मौजूदगी उत्तर प्रदेश में न के बराबर रह गई है. 2017 के विधानसभा चुनाव में अपनी हैसियत कांग्रेस देख ही चुकी है. ऐसे में प्रियंका से उम्मीद करना कि वे यूपी में सरकार बना सकेंगी, थोड़ी जल्दबाजी होगी. पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस 105 सीटों पर लड़ी थी. 403 सदस्यों की विधानसभा में उसे जीत मिली केवल 7 पर.
नेताओं का अकाल दूसरी मुश्किल
प्रियंका गांधी के सामने दूसरी मुश्किल है नेताओं का अकाल. कांग्रेस के ज्यादातर कद्दावर नेता एसपी-बीएसपी या बीजेपी में चले गए हैं. जगदंबिका पाल और रीता बहुगुणा जैसे पुराने नेता तक बीजेपी में हैं. सोनिया गांधी के अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में कांग्रेस बुरे हाल में है. विधायक राकेश प्रताप सिंह और एमएलसी दिनेश प्रताप ने पार्टी छोड़ दी. रायबरेली के जिला पंचायत अध्यक्ष तक ने पिछले साल कांग्रेस छोड़ दी. प्रियंका गांधी पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी हैं. सबसे ज्यादा मुश्किल इसी पूर्वांचल में है, क्योंकि पूर्वांचल अब बीजेपी का सबसे मजबूत किला है.
जातियों में बंटे प्रदेश को समझना और साधना
प्रियंका गांधी के सामने तीसरी मुश्किल है बुरी तरह जातियों में बंटे उत्तर प्रदेश के समाज को समझना और साधना. कांग्रेस के साथ रहे दलित-मुसलमान अब एसपी-बीएसपी के साथ हैं. कभी ब्राह्मण वोट कांग्रेस के साथ था, लेकिन अब बीजेपी की नाव पर वो सवार है. जातियों में बंटे यूपी के सियासी समीकरण को समझना आसान नहीं है.
दरअसल, प्रियंका गांधी को असाधारण परिस्थितियों में एक असंभव युद्ध को विजय के संभव में बदलने के लिए उतारा गया है. लेकिन अगर ये दांव नहीं चला तो क्या होगा.