scorecardresearch
 

Bihar Elections: ...जब बिहार के सीएम श्री बाबू और कद्दावर नेता अनुग्रह नारायण गले लग फूट-फूटकर रोए थे

श्रीकृष्ण सिन्हा उर्फ श्री बाबू और अनुग्रह नारायण सिंह ने आजादी की लड़ाई साथ-साथ लड़ी थी. अंग्रेजों के समय 1938 में जब बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी तो श्री कृष्ण सिन्हा (श्री बाबू) पीएम (तब प्रधानमंत्री कहलाते थे) के मंत्रिमंडल में अनुग्रह नारायण सिंह भी शामिल हुए. दोनों में किसी तरह के मतभेद नहीं थे.

Advertisement
X
 Bihar Elections 2020: अनुग्रह नारायण सिंह और श्रीकृष्ण सिंह (फाइल फोटो)
Bihar Elections 2020: अनुग्रह नारायण सिंह और श्रीकृष्ण सिंह (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • 1952 में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला
  • श्री बाबू बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने थे
  • मंत्रिमंडल में अनुग्रह नारायण सिंह भी थे

आज सिद्धांत की लड़ाई कब व्यक्तिगत अदावत में बदल जाती है कहा नहीं जा सकता. लेकिन गांधीवादी मूल्यों में विश्वास करने वालों के लिए व्यक्तिगत रिश्ते अलग होते हैं, यह मूल्य भले ही कमजोर पड़ गए हों लेकिन आजादी के ठीक बाद के भारत में ऐसी कई कहानियां हैं जो आज भी लोगों के जेहन में तैरती हैं. ऐसी ही एक कहानी है बिहार के पहले सीएम श्रीकृष्ण सिन्हा उर्फ श्री बाबू (Shri Krishna Sinha) और कांग्रेस के कद्दावर नेता अनुग्रह नारायण सिंह (Anugrah Narayan Singh) की, जिन्होंने महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद के साथ काम किया था, उन्हें बिहार विभूति भी कहा जाता है, सीएम के लिए श्री बाबू को चुनौती देकर हार गए थे. इसके बाद अनुग्रह नारायण श्री बाबू के घर पहुंचे थे और दोनों नेता गले मिलकर फूट-फूटकर रोए थे. 

श्रीकृष्ण सिन्हा उर्फ श्री बाबू और अनुग्रह नारायण सिंह ने आजादी की लड़ाई साथ-साथ लड़ी थी. अंग्रेजों के समय 1938 में जब बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी तो श्री बाबू पीएम (तब प्रधानमंत्री कहलाते थे) के मंत्रिमंडल में अनुग्रह नारायण सिंह भी शामिल हुए. दोनों में किसी तरह के मतभेद नहीं थे. आजाद भारत में श्री बाबू के नेतृत्व में ही सरकार बनी. 1952 में जब चुनाव हुए तो कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला, श्री बाबू बिहार के सीएम बने. अनुग्रह नारायण ने उनका साथ दिया और दोनों ने मिलकर सरकार चलाई. लेकिन कुछ लोगों को यह जोड़ी रास नहीं आई. उन्हें एक सहज और लोकप्रिय नेता श्री बाबू से परेशानी होने लगी. उनके खिलाफ जाल बुने जाने लगे और मोहरा बनाया गया अनुग्रह नारायण सिंह को. लड़ाई को भूमिहार बनाम ठाकुर बनाने की कोशिश की गई. 

Advertisement

ऐसे की गई श्री बाबू की घेराबंदी

1952 का पहला विधानसभा चुनाव श्री बाबू ने मुंगेर के खड़गपुर से जीता था. यह ठाकुर बाहुल्य इलाका था और श्री बाबू भूमिहार थे. विरोधी खेमे को यह विश्वास था कि अगर श्री बाबू को यहां से हरा दिया जाए तो अनुग्रह नारायण सिंह के सीएम बनने का रास्ता साफ हो जाएगा, क्योंकि सिद्धांतों की राजनीति करने वाले श्री बाबू चुनाव हारने के बाद नैतिक रूप से सीएम की दावेदारी छोड़ देंगे. इसके बाद नंबर दो की हैसियत रखने वाले अनुग्रह नारायण सीएम के स्वाभाविक दावेदार हो जाएंगे. चुनाव हराने की जिम्मेदारी सौंपी गई मुंगेर के दमदार ठाकुर नेता और श्री बाबू के घोर विरोधी नंदकुमार सिंह को. लेकिन इसकी जानकारी श्री बाबू के समर्थकों को लग गई. उन्होंने श्री बाबू से आग्रह किया कि वह चुनाव क्षेत्र बदल दें लेकिन वह वहीं से लड़ने पर अड़े रहे. हालांकि बाद में वह अपने गृह क्षेत्र बरबीघा विधानसभा सीट से 1957 का चुनाव लड़ने को तैयार हुए लेकिन इस शर्त के साथ कि वह अपना प्रचार करने नहीं जाएंगे.

बेटे ने दिलाई बाप को कसम 

श्री बाबू बरबीघा से चुनाव जीत गए लेकिन विरोधियों ने हार नहीं मानी. पत्रकार राहुल बताते हैं कि इस खेमे की अगुवाई कर रहे थे कृष्णबल्लभ सहाय जिन्हें केबी के नाम से भी जाना जाता था और जो बाद में सीएम भी बने. उहोंने अनुग्रह बाबू के बेटे सत्येंद्र नारायण सिन्हा को मोहरा बनाया. उनसे कहा गया कि वह अपने पिता को सीएम बनने के लिए मनाएं, बहुत से लोग उनका साथ देंगे. लेकिन श्री बाबू के साथ आजादी की लड़ाई लड़े अनुग्रह बाबू को यह मंजूर नहीं था. वह गांधीवादी मूल्यों में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे. राजनीति के गलियारों में एक कहानी आज भी कही जाती है कि जब सत्येंद्र बाबू अपने मिशन में नाकाम रहे तो पिता को लेकर पटना शहर की कुल देवी पटना देवी पहुंच गए. वहां उन्होंने पिता को शपथ दिलाई कि वह सीएम के उम्मीदवार बनेंगे. 

Advertisement

तूफान मेल से आया था बक्सा, दिल्ली में गिने गए वोट

न चाहते हुए भी अनुग्रह नारायण ने सीएम की उम्मीदवारी का दावा ठोंक दिया. पटना में कांग्रेस के दफ्तर सदाकत आश्रम में विधायकों का जमावड़ा लगा और वोटिंग हुई. दोनों के समर्थक बैलेट बॉक्स लेकर तूफान एक्सप्रेस से दिल्ली निकले. पूर्व केंदीय मंत्री और बिहार कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे ललितेश्वर प्रसाद शाही ने अपनी आत्मकथा ‘बनते बिहार के साथी’ में लिखा है कि अनुग्रह नारायण ने काउंटिंग रुकवाने की भी कोशिश की. आगरा के कलेक्टर को फोन कर उन्होंने अपने बेटे सत्येंद्र नारायण से बात कराने को कहा लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया. दिल्ली में वोटों की गिनती हुई तो श्री बाबू को 145 जबकि अनुग्रह नारायण सिंह को 109 वोट मिले. श्री बाबू के दूसरी बार सीएम बनने का रास्ता साफ हो गया. 

ललितेश्वर प्रसाद शाही लिखते हैं कि परिणाम आने के थोड़ी देर बाद अनुग्रह नारायण सिंह, श्री बाबू के घर पहुंचे. अनुग्रह नारायण को इस बात का मलाल था कि वह श्री बाबू के खिलाफ लड़े क्यों, वहीं श्री बाबू इस बात से दुखी थे कि ऐसे हालात पैदा क्यों हुए. दोनों गले मिलकर फूट-फूटकर रोने लगे. जानकार बताते हैं कि श्री बाबू के मान मनव्वल के बाद अनुग्रह नारायण मंत्रिमंडल में शामिल होने को तैयार हुए. लेकिन 1957 में ही अनुग्रह बाबू का निधन हो गया और जोड़ी टूट गई. दोनों को आधुनिक बिहार का निर्माता कहा जाता है. अनुग्रह नारायण को बिहार विभूति भी कहा जाता है. 

Advertisement

सत्येंद्र नारायण सिन्हा बने सीएम 

दूसरी ओर अनुग्रह नारायण के बेटे सत्येंद्र नारायण सिन्हा सीएम बनने की हसरत लिए राजनीति में बने रहे. कांग्रेस की सरकार में वो कई बार मंत्री बने. लेकिन 1975 की इमरजेंसी का विरोध करते हुए जनता पार्टी में शामिल हो गए. वहां भी उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाई. 1980  में उन्होंने फिर कांग्रेस ज्वाइन कर ली और केंद्र की राजनीति में सक्रिय हो गए. 1985 से 1990  के बीच कांग्रेस ने बिहार में 5 सीएम बदले. इनमें से एक नाम सत्येंद्र नारायण सिन्हा का भी है जो 1989 में 9 महीने के लिए सीएम बने थे. उस वक्त श्री बाबू के छोटे बेटे बंदी शंकर सिंह भी कांग्रेस के विधायक हुआ करते थे, उम्मीद जताई जा रही थी कि उन्हें भी मंत्रिमंडल में जगह मिलेगी लेकिन लिस्ट जारी हुई तो उनका नाम नहीं था. जानकार कहते हैं कि शायद सत्येंद्र नारायण सिन्हा श्री बाबू के हाथों अपने पिता की पराजय को भूल नहीं पाए थे. हालांकि ऐसा अवसर अगर अनुग्रह नारायण सिंह के सामने होता तो तस्वीर दूसरी होती.

Advertisement
Advertisement