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डॉक्टर की जुबानी: बिना नींद वो 20 रातें, फिर ICU में एक पल जब लगा आख‍िर ये तूफान कहां जाकर थमेगा

कोरोना की दूसरी लहर ने लाखों लोगों ने अपनों को खो दिया. ये वो दौर था जब हर कोई खुद को बचाने में लगा था. ठीक उसी समय डॉक्टर और हेल्थकेयर स्टाफ के सामने चुनौती थी कि उन्हें दूसरों को बचाना है. लेकिन उस बुरे दौर में डॉक्टर के दिल पर क्या बीत रही थी, वो खुद एक डॉक्टर ही बता सकता है. आइए डॉक्टर की जुबानी जानते हैं कैसे कोरोना काल में आईसीयू ड्यूटी करते हुए वो पल जब मरीजों के लिए वो सबकुछ बन गए .

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डॉ युधवीर स‍िंंह, अस‍िस्टेंट प्रोफेसर एम्स
डॉ युधवीर स‍िंंह, अस‍िस्टेंट प्रोफेसर एम्स

डॉ युद्धवीर सिंह एम्स के एनेस्थीसिया और क्रिटिकल केयर में अस‍िस्टेंट प्रोफेसर हैं.  उन्हें एम्स के कोविड आईसीयू में बड़ी जिम्मेदारी निभाते हुए एक साल से ज्यादा वक्त होने को है. इस महामारी के पूरे काल में उन्हें बहुत कुछ देखना पड़ा लेकिन जो दौर इस दूसरी वेव ने दिखाया वो इसे ताउम्र नहीं भूल सकते. 

डॉ युद्धवीर कहते हैं कि मार्च एंड और अप्रैल 2021 का वो समय बहुत पेनफुल और स्ट्रेस भरा था. पेशेंट इतने ज्यादा थे कि संभालना मुश्क‍िल था. अभी भी मेरे जेहन में वो दिन आते हैं तो पूरे शरीर में कंपकपी-सी दौड़ जाती है. अप्रैल का करीब वो आधा महीना जब मेरे दोनों मोबाइल फोन लगातार बजते रहते थे. खाना खाना भी मुश्क‍िल था, डिनर लंच कुछ भी खाने से पहले सोचना पड़ता था. ये वो खौफनाक समय था जब मैं 20 से 25 रात या दिन सो ही नहीं पा रहा था. हर वक्त कॉल पर रहता था. ड्राइव कर रहे हो तो भी फोन बजता रहता था. फोन पर बहुत से लोग एडवाइस ही पूछते थे,  कोई कहता कि ऑक्सीजन नहीं है तो घर पर कैसे करें, मैनेज कैसे करें, ऐसे में एडवाइस भी दे दी  तो और भी चिंता लगी रहती थी. कई बार इतनी बेबसी का सामना किया कि हॉस्प‍िटल में होकर भी किसी अपने को बेड भी नहीं दिला सकते थे. 

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एम्स में कम्यूनिकेशन टीम थी जो पेशेंट के अंटेंडेंट को समझाती थी. हर पेशेंट के रिश्तेदार को डॉक्टर इंडिविजुअली समझा रहे थे, फिर भी कई अटेंडेंट हमें देखते ही दौड़ पड़ते थे, कोई कहता था कि मेरा बेटा है, मेरा भाई है, मेरे पिता हैं सर बचा लीजिए कैसे भी... हम दिन रात क्र‍िट‍िकल केयर में मरीजों को बस बचाने की कोश‍िश में जुटे रहते थे. 

कई बार मरीजों से गालियां भी सुनते थे. हमें पता था कि ऐसे समय में ये किस एंजाइटी से जूझ रहे हैं, परेशान हैं, एक अच्छे स्टेट ऑफ माइंड में नहीं हैं लेकिन हम ही वार्ड में हम उनके अपनों की जगह ले चुके थे, हमें मरीजों से कुछ सुनकर भी कुछ बुरा नहीं लगता था. लेकिन बुरा ये लगता था कि हमसे वो उस तरह नहीं जुड़ पा रहे थे जैसे कि आम डॉक्टर और मरीज का सहृदय रिश्ता बनता है. 

जाहिर है हम पीपीई किट में जाते थे, जिसमें कोई फिजिकल अपीयरेंस होता नहीं है, आई टू आई कांटैक्ट, ह्यूमन टच नहीं था, ऐसे में पेशेंट काफी पैनिक हो रहे थे. शुरू में वो मोटिवेट नहीं होते थे लेकिन कई बार आवाज से वो हमसे जुड़ते थे. लेकिन कई मरीज इतने जीवट होने के बावजूद जब जिंदगी से हारे तो उनकी मौत ने हमें तोड़कर रख दिया. एक युवक मुझे अभी भी याद है जो बार-बार कहता था कि आई विल फाइट बैक सर, मैंने क्र‍िकेट खेला हुआ है, मैं रनिंग भी करता था. मुझे कुछ नहीं होगा. आख‍िर में हम उसे नहीं बचा सके. ये सोचकर दिल बैठने लगता था. 

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ठीक इसी वक्त मेरी पत्नी जो कि स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ हैं, वो भी पॉजिट‍िव हो गई थीं. यह पीक टाइम था, मुझे बहुत गिल्ट महसूस हो रहा था कि मैं पत्नी के पॉजिट‍िव होने के बावजूद उनके साथ नहीं रह पा रहा, लेकिन वो खुद एक डॉक्टर हैं तो उन्होंने मुझे हिम्मत दी. पीक टाइम ऐसा था कि हर तरफ से सिर्फ फोन या मैसेज ही नहीं सोशल मीडिया के भी सैकड़ों नोट‍िफिकेशन मिल रहे थे. ट्विटर पर तो दुबई तक से लोग मदद मांग रहे थे.

बेबसी का वो दिन... 
 
अप्रैल में मैं कॉल डे पर था, मेरा फ्रेंड जो एम्स में ही डॉक्टर है. उसका सगा भाई भी डॉक्टर था जिसे हेल्प चाहिए था, लेकिन हमारे सामने कोई रास्ता नहीं था कि अपने ही लोगों को भर्ती करा पाते. मेरे दोस्त ने कहा कि अगर बेड नहीं मिला भाई को तो वो खुद भी जान दे देगा. निराशा और हताशा में डूबे वो पल मुझे कभी नहीं भूलेंगे जब लोग  दवाओं के लिए संघर्ष कर रहे थे. ऑक्सीजन या बेड के लिए कॉल पर कॉल आ रहे थे. मुझे उस समय लगा था कि हम लोगों को जरूरत पड़ गई तो हमें भी ये दवा या ऑक्सीजन मिलेगी कि नहीं... बेड मिल पाएगा या नहीं . उस दिन मैं एक भय से कांप गया कि आख‍िर ये तूफान कहां जाकर थमेगा. हो क्या रहा है ये सब... ये सिलसिला कब रुकेगा. अपनों के दुनिया से जाने की खबरें हमें तोड़ रही थीं. 

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उस पेशेंट का चेहरा नहीं भूलता... 

डॉ युद्धवीर अपने एक पेशेंट के बारे में बताते हैं कि वो पेशेंट पूरा फाइटर था. गंभीर हालत में भर्ती हुआ था लेकिन अब इंप्रूव कर रहा था. फिर अचानक 25 दिन बाद पेशेंट कोलैप्स कर गया, इससे यकीन नहीं हो रहा था. उसकी बहन को काउंसिल करना बहुत मुश्किल लग रहा था. हम डॉक्टरों के लिए भी वो पल बहुत मुश्क‍िल होते हैं जब हम अपने ठीक होते पेशेंट को अचानक खो देते हैं. 

कोविड-19 को हल्के में न लें  

डॉ युद्धवीर कहते हैं कि भले ही कोरोना का खतरा आपको अब कम लगने लगा हो. मरीजों की संख्या कम आने लगी है लेकिन अभी भी हम सबको पूरी तरह लापरवाही नहीं करनी होगी. कोरोना के बारे में मैं इतना कह सकता हूं कि ये ऐसा मर्ज है कि जिसके बारे में अभी भी डॉक्टर अनुमान नहीं लगा पा रहे कि कौन से व्यक्त‍ि पर ये किस तरह असर डालेगा. इस पर दुनिया भर में काम चल रहा. भले ही आपने वैक्सीन ले ली है लेकिन कोरोना से बचाव के तरीके न छोड़ें. घर से मास्क लगाकर निकलें, हाथों को सैन‍िटाइज करते रहें और लोगों से डिस्टेंसिंग बनाए रखें.

 

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