'अगर दिन में दफनाने ले गए, तो झगड़ा हो जाएगा, अब शव को कहां दफनाएं...' जब भी राजस्थान के कालबेलिया समाज में किसी की मौत हो जाती है तो ये वार्तालाप काफी कॉमन होता है. ये कालबेलिया समाज की सामूहिक हकीकत है. कालबेलिया वो लोग हैं, जिसके नाच और गीतों को यूनेस्को की "मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत" की सूची में शामिल किया गया है. काले रंग के लोक परिधान में डांस करने वाले कालबेलिया समाज के लोगों ने पूरी दुनिया में अपनी खास पहचान बनाई है.
लेकिन, हकीकत ये है कि शव को दफनाने की परंपरा रखने वाले इस समुदाय के पास अपना श्मशान घाट नहीं है. मौत के बाद भी उन्हें सुबह अंधेरे में ही अपने परिजनों को दफन करना पड़ता है.
वैसे तो पहले भी कई बार श्मशान भूमि की मांग को लेकर कई प्रदर्शन हो चुके हैं, लेकिन सोमवार को फिर बाड़मेर कालबेलिया समाज की ओर से प्रदर्शन किया गया. इस बार फिर सरकार से मांग की गई है कि उन्हें मरने के बाद दो गज जमीन तक नसीब नहीं होती है, तो कम से कम उन्हें अपने परिजनों को दफनाने के लिए एक जमीन मिले. ऐसे में फिर से ये मु्द्दा चर्चा में आ गया है.
दरअसल, हकीकत ये है कि जब भी कालबेलिया समाज में किसी की मृत्यु होती है तो उनकी सबसे ज्यादा टेंशन होती है शव को दफनाया कहां जाएगा. अक्सर कालबेलिया समाज के लोग सुबह उजाला होने से पहले ही अपने प्रियजन का शव दफनाने निकल जाते हैं. डर इस बात का रहता है कि अगर उजाला हो गया, तो कोई रोक देगा. डर इस बात का कि अगर गांव जाग गया, तो शव को दफनाने की इजाज़त नहीं मिलेगी. कई बार तो हालात ऐसे होते हैं कि जमीन नहीं मिल पाती तो उन्हें अपने घर में ही शव को दफनाना पड़ता है.
इस बारे में गोवर्धन नाथ (कालबेलिया) आजतक को बताते हैं, 'हमें जीते जी तो हाशिये पर रखा ही जाता है, लेकिन मरने के बाद भी सम्मान नसीब नहीं होता. जब भी हमारे यहां किसी की मृत्यु होती है तो हमें अपनों को दफनाने के लिए जमीन तक नहीं मिलती है. हम अपने घरों में ही शव को दफनाते हैं. हम नाथ जोगी परंपरा का हिस्सा है, जिसमें मृत्यु के बाद शरीर को प्रकृति में लौटाया जाता है. ऐसे में हम शव को जलाते नहीं है, लेकिन हमारे पास हमारा श्मशान घाट नहीं है. हम मुस्लिम कब्रिस्तान में शव दफना नहीं सकते और दूसरी जाति वाले अपने श्मशान में हमे परमिशन नहीं देते हैं.'

समाज के लोगों का कहना है कि मुस्लिम और दूसरी जातियों के लोग उनके शव को अपने कब्रिस्तान में दफनाने से रोक देते हैं. कई बार इसको लेकर विवाद और तनाव की स्थिति बन जाती है. यह सिर्फ एक-दो घटनाओं की बात नहीं है, बल्कि राजस्थान के कई जिलों में बसे कालबेलिया समाज की रोजमर्रा की हकीकत है, जहां मौत भी संघर्ष बन जाती है.
इस बारे में हीरानाथ कालबेलिया कहते हैं, 'वैसे तो परेशानी काफी हैं. लेकिन, श्मशान की दिक्कत बहुत पुरानी और बहुत अहम है. हम शव को दफनाने के बाद उस पर पक्का चबूतरा बनाते हैं. ऐसे में हम काफी जगह की जरूरत है और एक कब्र पर दूसरी कब्र नहीं बनाई जा सकती. वैसे हिंदू धर्म की अन्य जातियों की तरह हम भी 12 दिन का शोक रखते हैं. लेकिन दफनाने की प्रक्रिया अलग है, लेकिन कोई भी जाति हमें जगह नहीं देती. ऐसे में किसी की मौत के बाद दफनाना हमारे लिए बड़ी दिक्कत है. हालात ये हैं कि राजस्थान के किसी भी शहर अजमेर, जालौर, जैसलमेर, बाड़मेर कहीं भी हमारे लोगों के दफनाने की जगह नहीं है.'
कौन हैं कालबेलिया?
कालबेलिया समाज राजस्थान का एक पारंपरिक घुमंतू समुदाय है. ऐतिहासिक रूप से इनकी पहचान सांप पकड़ने, सपेरा विद्या और लोक नृत्य-संगीत से रही है. ब्रिटिश शासन के दौरान इस समुदाय को ‘क्रिमिनल ट्राइब’ घोषित कर दिया गया था. आज़ादी के बाद भले ही यह टैग हटा लिया गया हो, लेकिन सामाजिक भेदभाव और शक की निगाह आज भी खत्म नहीं हुई है. वर्तमान में कालबेलिया समाज को Denotified and Nomadic Tribes यानी विमुक्त और घुमंतू जनजातियों की श्रेणी में रखा जाता है.
राजस्थान में कालबेलिया समाज की अनुमानित जनसंख्या दो से तीन लाख के बीच बताई जाती है. पाली, अजमेर, जोधपुर, जयपुर, नागौर, सीकर जैसे ज़िलों में इनकी बड़ी बस्तियां हैं. कालबेलिया समाज के लोग पहले सांप पकड़ा करते थे, अब वन्यजीव संरक्षण कानून लागू होने के बाद परंपरागत आजीविका लगभग खत्म हो गई. अब अधिकतर लोग डांस करके अपनी आजीविका चलाते हैं, आपने देखा होगा कि राजस्थान के कुछ फॉक डांस में महिलाएं काले कपड़े पहनकर डांस करती हैं, वो ही कालबेलिया डांस है.