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कावेरी इंजन क्या है? 1980 के दशक का ये डिफेंस प्रोजेक्ट फिर चर्चा में, राफेल से क्या कनेक्शन

कावेरी प्रोजेक्ट में देरी तकनीकी दिक्कतें, फंड की कमी और पश्चिमी देशों की दोहरी नीति का परिणाम है. ये वो देश हैं जो भारत को सिर्फ हथियार मार्केट के रूप में देखते हैं लेकिन भारत के साथ तकनीक साझा करने से आना-कानी करते हैं. क्योंकि इन देशों को डर है कि भारत लड़ाकू विमानों का इंजर अगर खुद बनाने लगेगा तो इनके हाथों से अरबों डॉलर का मार्केट चला जाएगा.  

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भारत लड़ाकू विमानों के लिए स्वदेशी इंजन बनाने पर जोर दे रहा है.
भारत लड़ाकू विमानों के लिए स्वदेशी इंजन बनाने पर जोर दे रहा है.

ऑपरेशन सिंदूर में लड़ाकू विमानों गजब की ताकत का अंदाजा पूरे देश को हुआ. लड़ाकू विमान पाकिस्तान की सीमा के पार गए और अपने टारगेट को मटियामेट कर सुरक्षित वापस लौट गए. युद्ध के दौरान ऐसी कमाल की सटीक ताकत, फायर पावर का प्रदर्शन करने वाले लड़ाकू विमानों का सबसे अहम हिस्सा हैं इनके इंजन. 

ये इंजन इन विमानों को ध्वनि से भी तेज गति, हवा में गजब की गुलाटी और करतब दिखाने की क्षमता प्रदान करते हैं. भारत लंबे समय से अपना ऐसा ही एक स्वदेशी इंजन बनाने की कोशिश कर रहा है. इसी प्रोजेक्ट का नाम है कावेरी इंजन प्रोजेक्ट.

कावेरी की कहानी

कावेरी इंजन प्रोजेक्ट की शुरुआत 1989 में हुई थी, जब भारत ने रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भरता की ओर जोर दिया था. इस प्रोजेक्ट का लक्ष्य था 81-83 kN थ्रस्ट वाला टर्बोफैन इंजन विकसित करना. ताकि हल्के लड़ाकू विमान तेजस लड़ाकू विमान में इसे लगाया जा सके. 

इस प्रोजेक्ट को भारत के गैस टर्बाइन रिसर्च एस्टैबलिशमैंट (GTRE) में विकसित किया गया था. GTRE भारत सरकार की संस्था DRDO की प्रयोगशाला है. लेकिन इस प्रोजेक्ट को भौतिकी और रसायन के तेज-तर्रार दिमाग की जरूरत थी. जो गति, धातु विज्ञान, हवा के दबाव जैसी बारिकियों को समझते हों. 

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लेकिन यह प्रोजेक्ट तकनीकी चुनौतियों, मैटेरियल की कमी और अपर्याप्त फंडिंग के कारण देरी का शिकार हुआ. शुरुआत में इसे तेजस के लिए डिज़ाइन किया गया था, लेकिन अपेक्षित प्रदर्शन न मिलने पर तेजस में अमेरिकी GE F404 इंजन का उपयोग किया गया.

1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद दुनिया के कुछ देशों ने भारत को लड़ाकू विमानों के संवेदनशील तकनीक देने पर प्रतिबंध लगा दिया.  

हालांकि कावेरी इंजन को पूरी तरह बंद नहीं किया गया है.  DRDO अब इसे मानव रहित हवाई वाहनों (UAV), घातक (Ghatak) UCAV, और संभावित रूप से पांचवीं पीढ़ी के एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (AMCA) के लिए तैयार कर रहा है. 

हाल के वर्षों में, इसकी प्रासंगिकता फिर से बढ़ी है, क्योंकि भारत स्वदेशी रक्षा तकनीकों पर जोर दे रहा है. ऑपरेशन सिंदूर के बाद इस प्रोजेक्ट को फिर से तेज करने की मांग चल रही है. 

सोमवार को सोशल मीडिया पर #FundKaveriEngine ट्रेंड कर रहा था और लोग सरकार से इस प्रोजेक्ट के लिए पैसा खर्च करने की मांग कर रहे थे. सोमवार पर इस ट्रेंड पर लाखों लोगों ने अपने विचार जाहिर किए.

हाल ही में कावेरी इंजन की टेस्टिंग में GTRE को कई कामयाबी मिली है. GTRE  ने कहा है कि इस इंजन के ड्राई वैरिएंट में पिछली सारी चुनौतियों को दूर कर लिया गया है और अधिक विश्वसनीय और उच्च क्षमता वाला प्रोपल्सन सिस्टम के रूप में तैयार किया गया है. ड्राई कावेरी को कठिन परीक्षण से गुजारा गया है और GTRE के अनुसार इस इंजन ने शानदार रिजल्ट दिया है.

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कावेरी में एक बड़ी कामयाबी एक उच्च क्षमता के पंखे का विकास शामिल है. इस पंखे को सांप के आकार से आने वाली हवा को लेने के लिए विकसित किया गया है. कावेरी की ये विशेषता 13 टन वाली RSPA (Remotely Piloted Strike Aircraft) के लिए जरूरी है. इस सिस्टम से लड़ाकू विमानों दूर से भी चलाया जा सकेगा. बता दें कि 13-ton RSPA भारत का नेक्स्ट जेनेरेशन मानव रहित लड़ाकू विमान है. 

कावेरी प्रोजेक्ट में देरी क्यों?

कावेरी प्रोजेक्ट में देरी तकनीकी दिक्कतें, फंड की कमी और पश्चिमी देशों की दोहरी नीति का परिणाम है. ये वो देश हैं जो भारत को सिर्फ हथियार मार्केट के रूप में देखते हैं लेकिन भारत के साथ तकनीक साझा करने से आना-कानी करते हैं. क्योंकि इन देशों को डर है कि भारत लड़ाकू विमानों का इंजर अगर खुद बनाने लगेगा तो इनके हाथों से अरबों डॉलर का मार्केट चला जाएगा.  

 इस विमान को डेवलप करने में एयरोथर्मल डायनेमिक्स, धातु विज्ञान और नियंत्रण प्रणाली जैसी उन्नत तकनीक को हासिल करने की चुनौतियां और जटिलता है. 1998 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण के बाद पश्चिमी देशों ने प्रतिबंधों के तहत भारत को सिंगल-क्रिस्टल ब्लेड जैसी महत्वपूर्ण सामग्रियों से इनकार कर दिया, जबकि भारत में कुशल तकनीकीशक्ति और हाई क्वालिटी वाली परीक्षण सुविधाओं की कमी थी, जिसके कारण उसे रूस के CIAM जैसे विदेशी सेटअप पर निर्भर रहना पड़ा.  

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अब भारत ने ‘मेक इन इंडिया’ और रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को जोर दिया है तो कावेरी इंजन के प्रोजेक्ट को भी गति मिली है. सरकार ने DRDO को हर साल 100 इंजन बनाने के लिए बजट आवंटित किया है. यह न केवल रक्षा क्षेत्र, बल्कि नागरिक उड्डयन के लिए भी महत्वपूर्ण है. 

कावेरी की जरूरत के पीछे जियो-पॉलिटिकल जरूरतें भी अहम है. ऑपरेशन सिंदूर के बाद पता चला है कि भारत के लिए स्वदेशी तकनीक के हथियार कितने अहम हैं. इन हथियारों ने जंग में उच्च कोटि का प्रदर्शन किया है. भारत-चीन सीमा तनाव और क्षेत्रीय सुरक्षा चुनौतियों ने स्वदेशी रक्षा तकनीकों की मांग को बढ़ाया है. कावेरी इंजन विदेशी आपूर्ति पर निर्भरता कम करने का एक रणनीतिक कदम है.

सोर्स कोड विवाद

हाल ही में, भारत ने राफेल के ‘सोर्स कोड’ की मांग की थी ताकि इस लड़ाकू विमान में स्वदेशी हथियारों को लगाया जा सके. इसमें इंटीग्रेट किया जा सके. लेकिन फ्रांस ने ये सोर्स कोड भारत को देने से इनकार कर दिया. 

अगर आप सोर्स कोड को समझना चाह रहे हैं तो आपको बता दें कि सोर्स कोड किसी सॉफ्टवेयर या डिजिटल सिस्टम का मूल प्रोग्रामिंग कोड होता है, जो इंसानों द्वारा पढ़ा और समझा जा सकता है. इसे सरल शब्दों में समझें तो यह एक तरह का "निर्देश पुस्तिका" है, जो कंप्यूटर को बताता है कि उसे क्या करना है और कैसे करना है. 

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राफेल का सोर्स कोड का मतलब राफेल का पूरा सिस्टम. यानी कि राफेल को ऑपरेट करने की तकनीक. यह कोड बताता है कि विमान का सिस्टम कैसे काम करेगा, जैसे मिसाइल को कैसे लॉन्च करना है या रडार को कैसे स्कैन करना है.

राफेल का सोर्स कोड फ्रांस की डसॉल्ट एविएशन और सैफरान जैसी कंपनियों की बौद्धिक संपदा है.  भारत इसे इसलिए चाहता था ताकि स्वदेशी हथियार (जैसे अस्त्र मिसाइल) को राफेल के सिस्टम के साथ जोड़ा जा सके और भविष्य में विमान को अपने हिसाब से अपग्रेड किया जा सके.  फ्रांस ने इसे साझा करने से मना कर दिया, क्योंकि यह उनकी गोपनीय तकनीक है. 

यहां कावेरी इंजन की इसलिए अहमियत बढ़ गई है क्योंकि अगर भविष्य में कावेरी इंजन अपने पूर्ण थ्रस्ट लक्ष्य (90 kN) को प्राप्त कर लेता है, तो यह भविष्य में राफेल जैसे विमानों के लिए स्वदेशी विकल्प बन सकता है.  

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