दुनिया में अलग-अलग दौर में कई खूंखार और जालिम तानाशाह हुए हैं, जिनके जुल्मों की कहानी रोंगटे खड़े कर देती है. कोई तानाशाह अकेले छह लाख लोगों को मौत के घाट उतार देता है, तो कोई तानाशाह अपने ही लोगों पर जहरीली गैस छोड़ देता है.
कोई महज मुंह खोलने पर सामने वाले को तोप से उड़ा देता है या फिर बदन से सारे कपड़े उतरवाकर भूखे कुत्तों का निवाला बनने छोड़ देता है. दुनिया में तानाशाहों और तानाशाही का एक लंबा इतिहास रहा है. पर उनमें से ये वो पांच तानाशाह हैं, जिनके जुल्म के आगे दुनिया की तमाम जुल्मों की कहानी छोटी लगने लगती हैं. ये वो पांच तानाशाह हैं, जिनके हाथ लाखों लोगों के खून से सने हैं.
1. किम जोंग: उत्तर कोरिया का तानाशाह हुक्मरान
तीन साल में सैकड़ों लोगों को तोप से उड़ा देने और फांसी पर चढ़ा देने का इलज़ाम
2. ईदी अमीन: यूगांडा का पूर्व आदमख़ोर तानाशाह
6 लाख लोगों के क़त्ल का इलज़ाम
3. कर्नल गद्दाफ़ी: लीबिया का पूर्व तानाशाह
हजारों लोगों को मौत के घाट उतार देने का इलजाम
4. सद्दाम हुसैन: इराक का पूर्व राष्ट्रपति
हजारों लोगों की जान लेने का इलज़ाम
5. हुस्नी मुबारक: मिश्र का पूर्व तानाशाह
सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारने का इलज़ाम.
इन सभी तानाशाह की खौफनाक दास्तान से पहले उससे मिल लीजिए, जिसने तानाशाही की सदियों पुरानी कहानी में सबसे नया पन्ना जोड़ा है. ये है दुनिया का सबसे नया तानाशाह, नाम किम जोंग है. उत्तर कोरिया इसकी सल्तनत है.
ये अचानक सुर्खियों में इसलिए आया है, क्योंकि इसने पिछले महीने अपने ही रक्षा मंत्री को सिर्फ इसलिए तोप से उड़ा दिया, क्योंकि वो एक मीटिंग के दौरान सो गए थे. इसमें अपने ही फूफा को नंगाकर सौ भूखे कुत्तों के आगे इसलिए फेंक दिया था, क्योंकि वो इसकी कुर्सी के लिए खतरा बन गया था. इसके मुल्क में अगर कोई विदेशी टीवी चैनल, विदेशी फिल्में या विदेशी गाना सुने तो उसे य़े फांसी पर चढ़ा देता है और उसके घर को आग के हवाले कर देता है. इसके मुल्क में आम लोग कार से नहीं चल सकते. ये हक सिर्फ मंत्री और रक्षा मंत्रालय के अफसरों को है. इसके मुल्क में इसके बालों का स्टाइल ही सबके बालों का फैशन माना जाता है.
खबरों के मुताबिक उत्तर कोरिया के सेना प्रमुख ह्योन योंग जोल ने सेना की एक मीटिंग में हल्की सी झपकी ले ली थी. बस उनकी इसी खता के लिए 66 साल के ह्यान को सैकड़ों लोगों की मौजदूगी में 30 अप्रैल को एक सैन्य प्रशिक्षण रेंज में विमानभेदी तोप से उड़ा दिया गया. ह्यान को मौत की सजा उनकी गिरफ्तारी के तीन दिन बाद दी गई. ऊपर से कमाल देखिए कि तोप से शरीर के चीथड़े उड़ा देने के बाद किम ने उनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान से कराया.
वैसे उत्तर कोरिया के तनाशाह किम जोंग की हैवानियत का ये पहला मामला नहीं है. किम जोंग पर अपने ही फूफा और बुआ समेत 70 बड़े नेताओं और अफसरों को जहर देकर या फिर तोप से उड़ा कर कत्ल करने इल्जाम है. कहते हैं कि उसने अपनी गर्लफेंड तक को नाराज होने के बाद गोलियों से भुनवा दिया था.
किम को नाई से डर लगता है इसीलिए उसने आज तक कभी भी अपने बाल नाई से नहीं कटवाए. वो अपने बाल खुद काटता है और उसके ऐलान के बाद से ही उसके बालों का स्टाइल ही नॉर्थ कोरिया में बालों का फैशन माना जाता है. किम ने अपने देश में पश्चिमी मीडिया, पश्चिम सभ्यता और खेल वगैरह को पूरी तरह से बैन कर रखा है.
किम को अपने दादा की तरह दिखने का जबरदस्त शौक है. कहते हैं कि कि उसने अपने दादा की शक्ल की चाह में अपने चेहरे और शरीर के कई कॉस्मेटिक ऑपरेशन करवाए हैं. इसीलिए वो अपने वजन भी कम नहीं करता. किम को घुड़सवारी का जबरदस्त शौक है. लेकिन शर्त यही है कि जिस वक्त वो घुड़सवारी करे, कोई और घुड़सवारी करता न दिखाई दे, वर्ना वो उसको गोली से मरवा देता है.
ईदी अमीन
एक ऐसे तनाशाह का नाम जिसे बहुत से लोग तो इंसान ही नहीं मानते. इसीलिए वो अपने नाम से ज्यादा आदमखोर राष्ट्रपति के नाम से जाना गया. इस आदमखोर ने अपनी ज़िंदगी की कहानी धोखे की कागज़ पर खून की स्याही से लिखी थी और फिर बन बैठा युगांडा का राष्ट्रपति. लेकिन उसका असली चेहरा अभी तक दुनिया ने नहीं देखा था. वो चेहरा था एक आदमखोर का. इस आदमखोर के नाम छह लाख लोगों को मौत के घाट उतारने का इलजाम है.
ये एक ऐसे राष्ट्रपति की कहानी है जिसे सुनकर बड़े से बड़े हिम्मतवाले की भी रुह कांप जाएगी. एक ऐसे आदमखोर राष्ट्रपति की कहानी है गद्दी पर बैठ कर इंसानों के मांस से अपनी भूख मिटाता था.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इंसानी मांस खाने वाला एक दरिंदा आखिर एक देश का राष्ट्रपति कैसे बन गया. दरअसल आदमखोर ईदी अमीन के राष्ट्रपति बनने की कहानी जितनी दिलचस्प है उतनी ही खूनी भी है. ये एक सेना के खानसामे से एक देश के राष्ट्रपति बनने की कहानी है.
दरअसल युगांडा की सेना में ईदी अमीन एक अदना सा खानसामा हुआ करता था. लेकिन उसके पास बेहद चालाक और खूंखार दिमाग था. लेकिन उसकी तरक्की की पहली सीढ़ी बना उसका राक्षस जैसा शरीर. ईदी अमीन का कद था 6 फुट 4 इंच और उसका वजन था पूरे 160 किलो. सेना की नौकरी के दौरान उसने बॉक्सिंग को अपना करियर बनाया और वो पूरे नौ साल तक लगातार युगांडा का नेशनल चैंपियन रहा और इसी की बदौलत उसे सेना में तरक्की मिलती रही.
1965 तक आते आते ईदी अमीन युगांडा की फौज में जनरल बन गया. लेकिन उसकी नज़र युगांडा की गद्दी पर थी. उस दौरान युगांडा के प्रधानमंत्री मिल्टन ओबोटे अमीन पर बेहद भरोसा करते थे. लेकिन एक दिन अमीन ने इस भरोसे को चकनाचूर कर दिया. प्रधानमंत्री ओबोटे सिंगापुर में थे और इधर राजधानी कंपाला में ईदी अमीन तख्तापलट कर दिया.
25 जनवरी 1971, महज़ तीन घंटे में पूरे देश की बाग़डोर ईदी अमीन के हाथ में आ गई. ईदी अमीन ने पूरे 8 साल तक युगांडा पर हूकुमत की. और इन 8 सालों में शायद ही ऐसी कोई सुबह रही हो जब युगांडा की सड़कों पर सैकड़ों लाशें ना मिली हों. दावा किया जाता है कि अपनी सत्ता के दौरान ईदी अमीन ने पूरे 6 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया. यही नहीं सत्ता के नशे में चूर ईदी अमीन की नज़र जिस किसी औरत पर पड़ जाती थी वो उसे हर हाल में हासिल करके ही मानता था. उसने एक दो नहीं बल्कि 6 शादियां की थी और उसके 45 बच्चे थे.
कर्नल मुअम्मर अल गद्दाफी
आदमखोर ईदी अमीन के जुल्म जितनी तेज़ी से बढ़ रहे थे उतनी ही तेज़ी से तैयार हो रहे थे उसके दुश्मन. लेकिन ईदी अमीन को अपने दोस्तों पर पूरा भरोसा था और इनमें अमीन का सबसे बड़ा दोस्त था लीबिया का तानाशाह कर्नल मुअम्मर अल गद्दाफी. गद्दाफी की ताकत पर ईदी अमीन को इतना भरोसा था कि उसने पड़ोसी मुल्क तंजानिया से दुश्मनी मोल ले ली.
30 अक्टूबर 1978 के रोज़ ईदी अमीन की फौज ने तंजानिया पर हमला बोल दिया. अमीन की मदद के लिए कर्नल गद्दाफी ने लीबिया की सेना भी भेज दी. अमीन की सेना और गद्दाफी की फौज ने मिलकर पूरे 6 महीने तक तंजानिया के साथ जंग लड़ी. लेकिन आखिर में तंजानिया की फौज धड़धड़ाती हुई युगांडा की राजधानी कंपाला में दाखिल हो गई और 10 अप्रैल 1979 को ईदी अमीन की जुल्म की हुकूमत की खत्म हो गई. और इसके साथ ही तानाशाह ईदी अमीन हमेशा हमेशा के लिए युगांडा छोड़ कर भाग खड़ा हुआ.
ईदी अमीन सबसे पहले अपने दोस्त कर्नल गद्दाफी के देश लीबिया गया और वहां से पहुंच गया साऊदी अरब. अगले 24 साल तक ईदी अमीन साउदी अरब के शहर जेद्दा में रहा और वहीं 20 जुलाई 2003 को उसकी मौत हो गई.
दो दशक तक वो इराक का बेताज बादशाह बना रहा. अमोरिका तक को उसने जब-तब धमकी दे डाली. पर इस तानशाह ने भी बस एक गलती की. जिन लोगों पर उसने हुकूमत की उन्हीं को नहीं बख्शा. घर के अंदर दीवार पर टंगी इस तानाशाह की तस्वीर तक ज़रा सी टेढ़ी हो जाती तो ये उसकी जान ले लेता. अपनी ही जनता के साथ ऐसी बेरुखी का ही नतीजा था कि आखिरी वक्त में अपने ही मुल्क में जब इसे फांसी दी गई तो उसे बचाने वाला कोई नहीं था.
सद्दाम हुसैन
हाथों में पिस्तौल थामे हवा में गोलियां चलता सद्दाम. दूसरी तस्वीर में सद्दाम हुसैन बेफिक्री से सिगरेट पी रहा है. ये तस्वीरें उस दौर की कहानी बयां कर रही हैं जब इराक में सद्दाम हुसैन की मर्जी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिलता था.
अब यह तस्वीर बदल चुकी है. इराक की राजधानी बगदाद और वहां के एक चौराहे पर सरेआम गिरता सद्दाम का बुत उसी तानाशाह के पतन की कहानी बंया कर रहा है. ये कहानी एक ऐसे तानाशाह की है जिसने अपनी ज़िद के लिए अपनी देश की जनता पर इतने ज़ुल्म ढाए कि इंसानियत भी रो पड़ी थी. ये कहानी उस तानाशाह की है जिसने अपने ही मुल्क और अपने ही आवाम को नेस्तानाबूद कर दिया.
सद्दाम हुसैन के जुल्मो-सितम की कहानी जितनी ख़ौफ़नाक है उसके राष्ट्रपति बनने का सफर उतना ही दिलचस्प. दो दशकों तक इराक़ के राष्ट्रपति रहे सद्दाम हुसैन का जन्म साल 1937 में बग़दाद के उत्तर में स्थित तिकरित के एक गांव में हुआ था. साल 1957 में बीस साल के सद्दाम ने बाथ पार्टी की सदस्यता ली.
1962 में इराक़ में विद्रोह हुआ और ब्रिगेडियर अब्दुल करीम क़ासिम ने ब्रिटेन के समर्थन से चल रही राजशाही को हटाकर सत्ता अपने क़ब्ज़े में कर ली. लेकिन उनकी सरकार के ख़िलाफ़ भी बग़ावत हुई लेकिन ये नाकाम रही. सद्दाम हुसैन भी इस बगावत में शामिल थे और पकड़े जाने का डर से सद्दाम भाग कर मिस्र में जा कर छिप गए.
1968 में फिर एक बार फिर इराक में विद्रोह हुआ और इस बार 31 वर्षीय सद्दाम हुसैन ने जेनरल अहमद हसन अल बक्र के साथ मिलकर सत्ता पर क़ब्ज़ा किया. वक्त के साथ-साथ सद्दाम हुसैन ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत कर की और अपने रिश्तेदारों तथा सहयोगियों को सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करते चले गए.
सत्ता संभालते ही उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को मारना शुरू कर दिया. इसी दौरानन 1982 में सद्दाम हुसैन ने अपने ऊपर हुए एक आत्मघाती हमले के बाद दुजैल गांव में 148 लोगों की हत्या करवा दी थी.
अगस्त 1990 में इराक़ ने कुवैत को तेल के दामों को नीचे गिराने के आरोप लगा कर उसके साथ जंग छेड़ दी. जनवरी 1991 में इस अमेरिकी फौज़ के दबाव के दखल के बाद इराक़ी सेना को कुवैत से पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस जंग में हज़ारों इराक़ी सैनिक मारे गए और पकड़े गए.
लेकिन इस शिकस्त के बाद सद्दाम को इराक़ में शिया समुदाय के विद्रोह का सामना पड़ा. और साल 2000 आते-आते अमरीका में जॉर्ज बुश की ताजपोशी ने सद्दाम सरकार पर दबाव और बढ़ा दिया. इसके बाद अमरीका साफतौर पर इराक में सत्ता परिवर्तन की बात कहने लगा. 2002 में संयुक्त राष्ट्र के दल ने इराक़ का दौरा किया और वहां रासायनिक और जैविक हथियारों का ज़खीरा ढूंढने की कोशिश की लेकिन इसमें उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली.
बावजूद इसके मार्च 2003 में अमरीका ने अपने मित्र देशों के साथ इराक़ पर हमला कर दिया. और आखिरकार चालीस दिन की जंग के बाद 9 अप्रैल 2003 को सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा दिया गया.
इसके बाद 13 दिसंबर, 2003 को सद्दाम हुसैन को तिकरित के एक घर में अंदर बने बंकर से गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद सद्दाम पर कई मामलों में मुक़दमा चलाया गया. आखिरकार 5 नवंबर 2006 को सद्दाम हुसैन को मौत की सज़ा सुना दी गई और उत्तरी बग़दाद के ख़दीमिया इलाक़े के कैंप जस्टिस में फांसी दे दी गई. इसके साथ ही दुनिया से एक और तानाशाह का वजूद हमेशा हमेशा के लिए मिट गया.
कनर्ल गद्दाफी
किस्मत का खेल देखिए. जिस शहर में गद्दाफी पैदा हुआ, उसी शहर में मारा गया. और मौत भी कैसी? करीब 42 साल तक लीबिया को अपने जूतों तले रौंदने वाला गद्दाफी अपने ही सल्तनत में पैरों तले रौंदा जा रहा था. मरने से ऐन पहले भी और मौत के बाद भी.
हजारों लाखों लोगों की हत्या का गुनहगार कर्नल मुअम्मर गद्दाफी रहम की भीख मांग रहा था.
हजारों-लाखों करोड़ की संपत्ति का मालिक था गद्दाफी, उसकी जिंदगी उसके शौक परीकथाओं को भी मात देते थे लेकिन मौत के समय वो धूलमिट्टी से सना हुआ था, खुशबूओं से तरबतर रहने वाला गद्दाफी पसीने और खून में डूबा हुआ था, मार खा रहा था.
गद्दाफी की मौत के बाद लीबिया से जुल्म की हुकूमत अब खत्म हो चुकी है और आसमान में फहरा रहा है लीबिया की आजादी का झंडा.
हुस्नी मुबारक
तारीख गवाह हैं लोगों की तानाशाही पर जीत की. उस हौसले, उस हिम्मत, उस जज़्बे की, उस जीत की जिसके लिए वो 18 दिन तक काहिरा की सड़कों पर अपनी जान की बाज़ी लगा कर डटे रहे और एक तानाशाह को देश से खदेड़ कर ही दम लिया.
गद्दी न छोड़ने पर ज़िद पर अड़े मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक को आखिरकार देश की जनता के सामने झुकना और इस्तीफा देना पड़ा. इस आंदोलन ने एक बार फिर एक और तानाशाह का गुरूर तोड़ दिया.
होस्नी मुबारक जैसे तानाशाह को हटने के लिए जनता ने तहरीर चौक को अपनी जंग का मक्का बना दिया और हर नमाज में हुस्नी के अंत की दुआ मांगी और उसका नतीजा सामने है कि हुस्नी को आखिर जाना ही पड़ा.
14 मई 1928 को जन्में हुस्नी मुबारक 12वीं के बाद ही सेना में भर्ती हो गए थे. ग्रेजुएशन की डिग्री मिलिट्री साइंस में हासिल की इसके बाद वो करीब 25 साल तक एयर फ़ोर्स में रहे.